लोकतांत्रिक भारत में तानाशाह पार्टियां क्यों ?

By: Apr 26th, 2017 12:05 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’ लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

भारत किसी भी प्रतिनिधि को राष्ट्रव्यापी रूप से नहीं चुनता, फिर चुनाव आयोग एक सेंट्रल निकाय क्यों हो? हर राज्य के चुनाव आयोग को प्रत्येक पार्टी के स्थानीय खंडों को नियंत्रित करने की शक्ति देनी चाहिए। यह कदम पार्टियों को विकेंद्रीकृत करेगा, स्थानीय नेताओं को मजबूत बनाएगा और पार्टी हाइकमान का नियंत्रण कम करेगा। दूसरा, पार्टियों को स्वयं प्राथमिक चुनावों के माध्यम से उम्मीदवार चुनने चाहिएं। ऐसा करने वाली पहली पार्टी की लोकप्रियता में अत्यधिक वृद्धि होगी। परंतु उससे भी बढ़कर यह प्रथा आंतरिक संघर्ष कम करेगी, जीतने योग्य उम्मीदवार तैयार करेगी, और कल के भारत के लिए हमें दूरदर्शी नेता मुहैया करवाएगी…

भारत की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां आजकल ऊपर बैठे एक या दो लोगों द्वारा व्यक्तिगत जागीर की तरह चलाई जा रही हैं। यह तरीका राजनीतिक घरानों तक ही सीमित नहीं; यहां तक कि हाल ही में बनी आम आदमी पार्टी या जमीन से उठकर बने भाजपा जैसे दलों ने भी ‘वन मैन शो’ की संस्कृति अपना ली है। राजनीतिक पार्टियां भारतीय संविधान की कार्यशीलता में मूलभूत भूमिका निभाती हैं, परंतु ऐसे तानाशाह रखवालों के रहते हमारा लोकतंत्र कैसे बना रह सकता है? यही समय है कि भारत की पार्टियां अपने ही उपदेशों पर अमल करें, और वास्तविक आंतरिक लोकतंत्र लागू करें।

संविधान में पार्टियों के लोकतंत्र पर कुछ नहीं

यह आश्चर्यजनक है कि भारत के संविधान को कार्यान्वयन के लिए राजनीतिक दलों की आवश्यकता है, पर यह उन्हें नियंत्रित करने के लिए कुछ नहीं करता। सांसदों और विधायकों के दलबदल के कारण अस्थिर सरकारों के एक लंबे दौर के बाद ही संविधान में दल-आधारित नियंत्रण जोड़े गए। संविधान में ‘‘दल’’ से संबंधित 50 से अधिक नियमों में से लगभग सभी दलबदल विरोधी (Anti defection) प्रावधानों में मिलते हैं। हालांकि भारत के लोकतंत्र को सबसे अधिक नुकसान इस बात से पहुंच रहा है कि संविधान में राजनीतिक पार्टियों के लिए कोई नियम ही समाहित नहीं हैं। चुनाव आयोग एक संवैधानिक निकाय है, परंतु उसका अधिकार क्षेत्र चुनाव करवाना है, पार्टियों को नियंत्रित करना नहीं। परिणामस्वरूप भारतीय पार्टियां अपने ही संविधान का पालन नहीं करतीं। उनके नेता स्वयं अपनी नियुक्ति करते हैं। वे संगठनात्मक चुनाव नहीं करवाते। उनके उम्मीदवार पूरी तरह अलोकतांत्रिक तरीके से चुने जाते हैं। और, दलबदल विरोधी कानून पास होने के बाद वे अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों को जनप्रतिनिधि नहीं, बल्कि कठपुतली समझते हैं।

पार्टी नेता अपना ही ‘‘निर्वाचन’’ करते हैं

पार्टी सुप्रीमो उच्च पद के लिए नियमित रूप से अपना ही ‘‘निर्वाचन’’ करते हैं। कुछ तो दिखावे के लिए भी चुनाव नहीं करवाते। चुनाव आयोग के रिकार्ड अनुसार, एआईएडीएमके ने 2014 में दावा किया कि जयललिता निर्विरोध चुनी गईं क्योंकि ‘‘उनके अतिरिक्त किसी ने भी नामांकन पत्र दाखिल नहीं किया।’’ उसी वर्ष लालू प्रसाद ने स्वयं को आरजेडी का अध्यक्ष घोषित किया और व्यक्तिगत तौर पर ‘‘पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी, राष्ट्रीय कार्यकारिणी, केंद्रीय संसदीय बोर्ड और कोर ग्रुप का पुनर्गठन’’ कर लिया। आंतरिक चुनावों का विवरण उपलब्ध करवाने की चुनाव आयोग की शर्तों की परवाह न करते हुए बीएसपी ने पदाधिकारियों की केवल एक सूची जमा करवाई। और जब 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने ममता बनर्जी को अध्यक्ष ‘‘निर्वाचित’’ करने की रिपोर्ट दी, तो उसने सपाट रूप से यह कहा कि अन्य पार्टी पदाधिकारी नियुक्त कर दिए गए हैं। यहां तक कि भारत के सबसे बड़े दो दलों, भाजपा और कांग्रेस, का भी संगठनात्मक चुनावों के प्रति तानाशाही दृष्टिकोण है। अप्रैल में भाजपा की आंतरिक चुनाव रिपोर्ट में कहा गया कि एक नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव उपरांत ‘‘नए पदाधिकारी मनोनीत किए गए हैं’’। और कांग्रेस ने 2010 के बाद आंतरिक ‘‘चुनाव’’ करवाने की जहमत ही नहीं उठाई। चुनाव आयोग ने अंतिम चेतावनी दी, परंतु कोई असर नहीं हुआ। गणतंत्र की शुरुआत से लगभग यही हो रहा है। वर्ष 1993 में प्रसिद्ध संवैधानिक विद्वान एजी नूरानी ने लिखा कि कांग्रेस में 1972 से पार्टी में आंतरिक चुनाव नहीं हुए। वर्ष 1980 में मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर की टिप्पणी थी ः ‘‘राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करवाने की जोरदार मांग करती हैं, परंतु जब उनकी अपनी पार्टी की कार्यप्रणाली की बात आती है तो इन्हीं सिद्धांतों की उपेक्षा करती हैं।’’ उन्होंने पार्टियों के लिए पारदर्शी चुनाव आयोजित करवाने को नया कानून बनाने का सुझाव दिया।

उम्मीदवार या सौदेबाज ?

हमारे राजनीतिक दलों द्वारा आम चुनावों के लिए उम्मीदवारों का निर्वाचन न करने की प्रथा तो भारत के लोकतंत्र को और भी अधिक जोखिम में डालती है। जनता द्वारा अपने उम्मीदवारों का चयन करने के स्थान पर पार्टी के बॉस उन्हें चुनते हैं। यहां तक कि सबसे अधिक उम्मीद जगाने वाला दल, आम आदमी पार्टी, भी इस प्रथा का शिकार हो गया है। इस प्रथा के बारे में नूरानी ने 2005 में लिखा कि ‘‘यह निर्जलज्जता केवल भारत में ही है’’। ‘‘भारत के संविधान और संसदीय प्रणाली पर इसके हानिकारक प्रभाव पर चिंतन करने की फिक्र कुछ ही लोग करते हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘यह प्रथा दोनों को दूषित करती है।’’ इस प्रकार चुने गए उम्मीदवार सिद्ध सौदेबाज तो होते हैं, पर शायद वे ऐसे नेता नहीं होते जिनकी भारत को आवश्यकता है। हमारे देश में विजनरी नेताओं की कमी के पीछे यह एक सबसे बड़ा कारण है। हमारे यहां अधिकतर नेता आजीवन पोलिटीशियन, जुगाड़ू पार्टी कार्यकर्ता, और चाटुकार होते हैं। इससे भी बुरा यह कि हमारे ऐसे भी राजनेता हैं जिन्होंने केवल अपनी जाति या धर्म के कारण पहचान पाई है। और क्योंकि इन उम्मीदवारों को पद आकाओं की कृपा से मिलते हैं, इसलिए वे अपने मतदाताओं के बजाय पार्टी आका के प्रति अधिक वफादार होते हैं।

दलबदल कानून से लोकतंत्र को खतरा

भारत के दलबदल विरोधी कानून इस ‘‘सड़ी’’ व्यवस्था – विडंबना देखिए कि स्वयं एक पार्टी बॉस राहुल गांधी ने इसे ऐसा कहा है – को और अधिक तानाशाह बनाते हैं। अब सांसदों और विधायकों का उनकी पार्टी के फरमान के विरुद्ध जाना कानूनी तौर पर अवैध है। वे अपने विवेक के अनुसार वोट नहीं दे सकते। यह उनके जनप्रतिनिधि होने के उद्देश्य को ही ध्वस्त कर देता है। इसलिए हमारी विधायिकाओं में कानून बनाने की प्रक्रिया एक तमाशा बनकर रह गई है। और इसने हमारे देश को एक राजनीतिक कुलीनतंत्र में बदल डाला है, जिसे गिने-चुने पार्टी आका चला रहे हैं।

कैसे हो हल ?

हमारे लोकतंत्र के सम्मुख इन प्रमुख खतरों से बचने को तीन मोर्चों पर काम करने की आवश्यकता है :

पहला, हमें निर्वाचन व्यवस्था को विकेंद्रीकृत करते हुए, चुनाव करवाना राज्यों का विषय बनाना चाहिए। आखिरकार हमारे जनप्रतिनिधि राज्यों से चुनकर आते हैं। भारत किसी भी प्रतिनिधि को राष्ट्रव्यापी रूप से नहीं चुनता, फिर चुनाव आयोग एक सेंट्रल निकाय क्यों हो? हर राज्य के चुनाव आयोग को प्रत्येक पार्टी के स्थानीय खंडों को नियंत्रित करने की शक्ति देनी चाहिए। यह कदम पार्टियों को विकेंद्रीकृत करेगा, स्थानीय नेताओं को मजबूत बनाएगा और पार्टी हाइकमान का नियंत्रण कम करेगा।

दूसरा, पार्टियों को स्वयं प्राथमिक चुनावों के माध्यम से उम्मीदवार चुनने चाहिएं। ऐसा करने वाली पहली पार्टी की लोकप्रियता में अत्यधिक वृद्धि होगी। परंतु उससे भी बढ़कर यह प्रथा आंतरिक संघर्ष कम करेगी, जीतने योग्य उम्मीदवार तैयार करेगी, और कल के भारत के लिए हमें दूरदर्शी नेता मुहैया करवाएगी।

और तीसरे, हमारे सांसदों और विधायकों की असली निर्वाचक शक्तियां बहाल होनी चाहिएं। दलबदल विरोधी प्रावधान, जो पार्टी निर्देश के विरुद्ध वोट देने पर अयोग्य होने का भय पैदा करते हैं, भारत के लोकतंत्र का अपमान हैं।

नूरानी जी ने सही कहा है, ‘‘भारतीय संसदीय प्रणाली में जान तभी आ सकती जब इसकी पार्टी व्यवस्था लोकतांत्रिक हो।’’

साभार : दि क्विंट

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