समान नागरिक संहिता क्यों नहीं ?

By: Apr 19th, 2017 12:05 am

बीते कुछ दिनों से मुस्लिम औरतों में तीन तलाक के मुद्दे पर लगातार बहस जारी है। माना जा रहा है कि इस मुद्दे पर मुस्लिम महिलाएं खासकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ हैं, क्योंकि वे उम्मीदजदां हैं कि आखिर यही प्रधानमंत्री इस मुद्दे को निर्णायक स्थिति तक ले जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार से सलाह मांगी थी, तो हलफनामा देकर साफ कहा गया था कि यह मजहबी रीति-रिवाज खत्म हों और कानून बनाकर ‘तीन तलाक’ को अवैध, असंवैधानिक तय किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी की इस मुद्दे पर प्रतिबद्धता समझ आती है, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘तीन तलाक’ को एक नया आयाम, नई धार और नए मुहावरे दे दिए हैं। मुख्यमंत्री योगी ने इसकी तुलना महाभारत में द्रोपदी के चीरहरण तक से की है। जिस तरह उस दौरान सभा में मौजूद लोग खामोश रहे, उसी तरह आज के संदर्भ में जो राजनीतिक दल और नेता इस मुद्दे पर चुप बैठे हैं, वे भी दोषी हैं। इस पर नई बहस शुरू हो सकती है। योगी का सवाल है कि देश में एक ही समान नागरिक संहिता क्यों नहीं हो सकती? शादी-विवाह के कानून भी एक जैसे क्यों न हों? इन सवालों पर मुस्लिम समाज और मौलानाओं में एक गंभीर तल्खी-सी है। बेशक आरएसएस और भाजपा में समान नागरिक संहिता एक पुराना, प्रिय मुद्दा रहा है। देश एक है, संविधान एक है, एक जैसे ही मौलिक अधिकार लागू होते हैं, कानून भी एक जैसे ही हैं, संसद और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भी एक हैं। तो फिर वैवाहिक व्यवस्थाओं को लेकर मुसलमान और गैर मुसलमान के बीच ढेर सारे विभेद और विरोधाभास क्यों हैं? एक औसत हिंदू को अपनी पत्नी से तलाक लेने के लिए कई कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। जिंदगी भर के लिए गुजारा भत्ता भी देना पड़ता है। बच्चों के प्रति दायित्व निभाने पड़ते हैं। ऐसा नहीं है कि उत्तेजना, गुस्से और नाराजगी के किसी लम्हे में ‘तीन तलाक’ के जरिए दाम्पत्य संबंध तोड़े जा सकें। कुरान, शरियत में क्या व्यवस्थाएं हैं, हमारा उनसे कोई सरोकार नहीं है और न ही हम विशेषज्ञ हैं और न ही वे भारतीय गणतंत्र के कानून हैं। संविधान और उसके अनुच्छेदी प्रावधानों पर ही यह देश चलता है और अनुच्छेद-44 में इसकी साफ व्याख्या है कि हमें कभी भी ‘तीन तलाक’ के खिलाफ और समान नागरिक संहिता के पक्ष में सोचना ही पड़ेगा। योगी आदित्यनाथ की मांग ने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया है। दरअसल वैवाहिक संबंधों की बुनियाद मजहबी नहीं हो सकती कुरीतियां हिंदू और अन्य समाजों में भी थीं और आज भी हैं। उनके लिए आजादी के बाद भी आंदोलन होते रहे हैं। बाल-विवाह, दहेज, पत्नी-उत्पीड़न, कन्या भ्रूण को नष्ट करना आदि बुराइयां अब भी हैं, लेकिन एक फैमिली कोर्ट में ही एक शौहर अपनी बीवी को अचानक तीन तलाक दे दे और अपनी दुधमुंही बच्ची के साथ बीवी को भी वहीं छोड़कर चला जाए, ऐसी हिदायतें किस कुरान और इस्लाम ने दी हैं। ऐसा उत्तर प्रदेश में ही हुआ है। यह जुल्म नहीं तो क्या है? इस व्यवस्था में कौन से सुधार निहित हैं। इस मुद्दे पर मुस्लिम औरतों को ‘इनसाफ’ क्यों नहीं मिलना चाहिए? मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सरकार और कानून के दखल से क्यों घबराता है? हालांकि लॉ बोर्ड ने कुछ लीपापोती की है और ऐसे तीन तलाक देने वालों मर्दों के  ‘सामाजिक बहिष्कार’ की घोषणा की है। कोर्ट में जो तीन तलाक की वारदात हुई है, वह इस ऐलान के बाद की ही घटना है। कैसे बहिष्कार तय करेंगे, बेशक यह अवधारणा ही मात्र छलावा है। पर्सनल लॉ बोर्ड या मौलवियों की कोई भी संवैधानिक हैसियत नहीं है, तो उनके हुक्म को कोई क्यों मानेगा? देश में करोड़ों मुस्लिम औरतों को महज एक चौकड़ी के रहम पर कैसे और कब तक छोड़ा जा सकता है? लिहाजा मोदी सरकार इन कठमुल्लों की परवाह न करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखे कि समान नागरिक संहिता पर भी बहस शुरू हो और न्यायिक फैसला दिया जाए। अलबत्ता संसद का रास्ता तो खुला है और वहां कांग्रेस भी समर्थन देने को तैयार है।


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