सरकारी इंजीनियरिंग कालेजों को संभालें

By: Apr 4th, 2017 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवालाडा. भरत झुनझुनवाला

डा. भरत झुनझुनवाला लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

वास्तविकता यह है कि सरकारी कालेजों की हालत ज्यादा खस्ता है। इन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता। छात्रों से वसूल की जाने वाली फीस कम होने से आवेदक पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं, परंतु अध्यापकों की पठन-पाठन में रुचि नहीं होती है। उनकी नौकरी पक्की होती है। सरकारी कालेजों के प्राचार्य की नियुक्ति अकसर राजनीतिक समीकरणों से प्रेरित होती है। प्राचार्य का ध्यान भी पढ़ाई पर नहीं होता है। इस बीमारी का उपचार प्रतिस्पर्धा से नहीं हो सकता है…

मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने जालंधर में एक इंजीनियरिंग कालेज के समारोह में कहा कि कालेजों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना होगा। जो कुशल होंगे, वही जीवित रहेंगे। मंत्री के इस वक्तव्य का स्वागत है। वर्तमान समय में देश के इंजीनियरिंग कालेजों की हालत खस्ता है। महाराष्ट्र में नए दाखिलों की संख्या 89,000 से घट कर 79,000 रह गई है। लगभग 70 प्रतिशत सीटें रिक्त पड़ी हुई हैं। आंध्र प्रदेश में तमाम कालेज बिक्री पर रखे गए हैं। 500 करोड़ रुपए लगा कर बनाए कालेज को मालिक 100 करोड़ में बेचने को तैयार है, परंतु खरीददार नहीं मिल रहे हैं। आश्चर्य है कि दूसरी तरफ उद्यमियों का कहना है कि उन्हें वांछित क्षमता के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नहीं मिल रहे हैं। उनके अनुसार प्राइवेट कालेजों में समुचित शिक्षा नहीं दी जा रही है। समस्या प्राइवेट कालेजों के मैनेजमेंट की है। उचित श्रेणी के अध्यापक एवं जरूरी लैबोरेटरी आदि की व्यवस्था न करने से पढ़ाई सही नहीं हो रही है। इनके द्वारा अक्षम ग्रेजुएट पास किए जा रहे हैं, जो बेरोजगार हैं। इसलिए उद्योगों को सक्षम गेजुएट नहीं मिल रहे हैं। यदि कालेजों का मैनेजमेंट सही हो जाए तो उनके द्वारा पढ़ाए गए ग्रेजुएट सही क्षमता के होंगे और उन्हें रोजगार भी मिलेगा। मानव संसाधन मंत्री की बात मानें तो कालेजों में यह सुधार प्रतिस्पर्धा से आ जाएगा। अच्छे कालेजों द्वारा अच्छे ग्रेजुएट बनाए जाएंगे। घटिया कालेज बंद हो जाएंगे। सब ठीक हो जाएगा। मंत्री की यह रणनीति सफल हो सकती है। मान लीजिए आज देश में हर वर्ष 10 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएटों को कालेजों से पास किया जाता है। प्रतिस्पर्धा से आधे कालेज बंद हो जाएंगे। बचे कालेजों से केवल पांच लाख ग्रेजुएट पास किए जाएंगे। ये कुशल होंगे। उद्योगों को कुशल आवेदक मिल जाएंगे।

उन्हें राहत मिलेगी, परंतु इस प्रक्रिया में हर वर्ष पास होने वाले ग्रेजुएटों की संख्या दस लाख से घट कर पांच लाख रह जाएगी। देश को करोड़ों युवाओं को अच्छा रोजगार उपलब्ध कराना है। वर्तमान में यदि कालेजों द्वारा 10 लाख ग्रेजुएट पास किए जा रहे हैं, तो इस संख्या को बढ़ा कर 20 लाख करने की जरूरत है। मंत्री जी द्वारा सुझाए उपाय से हो रहा है ठीक इसके उलट। ग्रेजुएटों की संख्या में कटौती की जा रही है। वास्तविक समस्या अर्थव्यवस्था में व्याप्त उदासीनता की है। उद्योग ढीले हैं। उनके द्वारा बड़ी संख्या में नए रोजगार सृजित नहीं किए जा रहे हैं। वे ग्रेजुएटों की अपेक्षा से कम वेतन देना चाह रहे हैं। ग्रेजुएटों को अपेक्षित वेतन नहीं मिल रहा है। इस कारण वे प्राइवेट कालेजों को जरूरी फीस नहीं देना चाहते हैं। इस कारण प्राइवेट कालेजों की आय न्यून है। इस कारण वे अच्छे अध्यापकों एवं लैबोरेटरी की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। यदि अर्थव्यवस्था में ग्रेजुएटों की मांग होती और इन्हें ऊंचे वेतन दिए जा रहे होते, तो कहानी बदल जाती। तब कालेजों द्वारा उन्हें अध्यापक एवं समुचित लैबोरेटरी की व्यवस्था कर दी जाती। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक प्राइवेट कालेज के मुख्याधिकारी की मानें तो डिप्लोमा धारकों की बाजार में मांग ज्यादा है। डिप्लोमा धारकों मे अहंकार कम होता है। वे हर तरह का काम करने को राजी हो जाते हैं। इसके विपरीत डिग्री धारकों में अहंकार अधिक होता है। कई प्रकार के कार्यों को करना वे अपने कद से नीचे मानते हैं। फलस्वरूप कालेज के डिप्लोमा कोर्स में आवेदक अधिक हैं, जबकि डिग्री कोर्स में सीटें रिक्त पड़ी हैं। इससे पता चलता है कि उद्योगों में उच्च गुणवत्ता की शिक्षा की डिमांड ही कम है। डिमांड के इस अभाव का कारण अर्थव्यवस्था में उदासीनता है। इंजीनियरिंग ग्रेजुएटों के खस्ताहाल के दो कारण हमारे सामने उपलब्ध हैं। एक कारण प्राइवेट कालेजों के मैनेजमेंट में कमी है। दूसरा कारण अर्थव्यवस्था की उदासीनता है।

मेरे आकलन में असल कारण अर्थव्यवस्था की उदासीनता है। प्राइवेट कालेजों की हालत अर्थव्यवस्था की इस उदासीनता का प्रतिफल मात्र है। प्रतिस्पर्धा से इन अधमरे कालेजों में कुछ पूरी तरह से मर जाएंगे और कुछ पूरी तरह से जीवित हो जाएंगे। यह ठीक भी है, लेकिन इस प्रक्रिया में देश में ग्रेजुएटों की संख्या में गिरावट आएगी, जबकि हमारा उद्देश्य इनकी संख्या में वृद्धि हासिल करना है। अतः मेरे आकलन में मंत्री जी शिक्षित बेरोजगारों की मूल समस्या तक नहीं पहुंच रहे हैं। उनके द्वारा दिया गया प्रतिस्पर्धा का मंत्र अपने में ठीक है, परंतु शिक्षित युवाओं के लिए सिमटते रोजगार के अवसरों का इसमें हल नहीं है। मंत्री जी को चाहिए कि अर्थव्यवस्था में शिक्षित कर्मियों की मांग कम होने की पड़ताल कराएं और उन समस्याओं का हल निकालें। मंत्री जी ने जालंधर में यह भी कहा कि ‘यह वास्तव में चुनौती है कि सरकारी शिक्षा क्षेत्र में सुधार किया जाए। हम इस दिशा में प्रयास करेंगे।’ इस वक्तव्य को गहराई से समझने की जरूरत है। वास्तविकता यह है कि सरकारी कालेजों की हालत ज्यादा खस्ता है। इन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता। छात्रों से वसूल की जाने वाली फीस कम होने से आवेदक पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं, परंतु अध्यापकों की पठन-पाठन में रुचि नहीं होती है। उनकी नौकरी पक्की होती है। सरकारी कालेजों के प्राचार्य की नियुक्ति अकसर राजनीतिक समीकरणों से प्रेरित होती है। प्राचार्य का ध्यान भी पढ़ाई पर नहीं होता है। इस बीमारी का उपचार प्रतिस्पर्धा से नहीं हो सकता है, चूंकि इन कालेजों का जीवित रहना मंत्री जी द्वारा दिए जाने वाले अनुदान पर निर्भर करता है, न कि कालेज के ग्रेजुएटों को मिलने वाली नौकरी से। मंत्री जी को चाहिए कि इस समस्या का तत्काल निदान करें। इसके लिए तीन कार्य किए जा सकते हैं। पहला कि कालेज के सभी अध्यापकों का छात्रों द्वारा आकलन कराया जाए। सबसे कमजोर 10 प्रतिशत अध्यापकों को हर वर्ष बर्खास्त कर दिया जाए। अध्यापकों के शैक्षणिक एवं शोध स्तर का भी बाहरी मूल्यांकन कराया जाए। पुनः हर वर्ष सबसे कमजोर 10 प्रतिशत अध्यापकों को बर्खास्त कर दिया जाए। सरकारी कालेजों का भी बाहरी मूल्यांकन कराया जाए। इनमें सबसे कमजोर 10 प्रतिशत कालेजों के प्राचार्यों को बर्खास्त कर दिया जाए। मंत्री जी को इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। सरकारी कालेज उनके आधीन हैं। पहले इनका उपचार करना चाहिए।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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