404 फाइलों की फांस !

By: Apr 8th, 2017 12:02 am

राजनीति में कुछ चेहरे बेनकाब हुए हैं। एक विश्वास के प्रति मोहभंग हुआ है। एक छवि तार-तार हुई है। फिर राजनीति की परिभाषा यथावत है। अब लगता है कि जिस राजनीतिक व्यवस्था को आमूल बदलने के दावे किए गए थे, वे खोखले थे। भ्रष्टाचार को समाप्त करने, नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए, कुछ ईमानदार चेहरों ने दिल्ली की आत्मा को झकझोरा था, नतीजतन उन्होंने ऐतिहासिक सत्ता हासिल की थी-70 सीटों में से 67 सीटें। बंगला-गाड़ी नहीं लेंगे, सुरक्षा नहीं चाहिए, साइकिल, रिक्शा, मेट्रो ट्रेन के जरिए दफ्तर आएंगे-ये तमाम दावे झूठे साबित हुए। सत्ता में आने वाले आम चेहरे अब ‘आम’ नहीं, बेहद विशेष हैं। वे आलीशान सरकारी बंगलों में रहते हैं, सरकारी गाडि़यों में चलते हैं, उपराज्यपाल की अनुमति के बिना ही विदेश घूमने जाते हैं, अपनों को ‘मलाईदार’ सरकारी पदों पर नौकरियां बांटते हैं और अब उन पर पैसे खाने के भी आरोप लग रहे हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की साली के दामाद निपुण अग्रवाल को दो ही दिनों में, बिना इंटरव्यू और चयन समिति के, स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन के ओएसडी की नौकरी दी जाती है, क्या यह भाई-भतीजावाद नहीं है? दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष बनने से पहले ही मुख्यमंत्री अपनी रिश्तेदार स्वाति मालीवाल को सरकारी बंगला आबंटित करा देते हैं। एक विधायक अखिलेश त्रिपाठी को टाइप-5 का बंगला दे दिया जाता है। क्या यह सरकारी नियमों का उल्लंघन नहीं है? वक्फ बोर्ड में खुद ही 41 नियुक्तियां की जाती हैं, क्या यह दिल्ली के उपराज्यपाल की अनदेखी नहीं है, जो संवैधानिक तौर पर प्रशासनिक मुखिया हैं? स्वास्थ्य मंत्री की बेटी सौम्या जैन पेशे से आर्किटेक्ट हैं, लेकिन उन्हें दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक प्रोजेक्ट का इंचार्ज बना दिया जाता है। जितने कार्यकाल उन्होंने काम किया था, उस दौरान उन पर 1.15 लाख रुपए खर्च किए गए। यह पारिश्रमिक नहीं था, तो क्या था? चूंकि इस पर मीडिया में बखेड़ा खड़ा हो गया था, लिहाजा सौम्या को इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल इस्तीफा वही कर्मचारी या अधिकारी देते हैं, जिन्हें आधिकारिक तौर पर नियुक्त किया गया हो। इसके अलावा, 206 राउज एवेन्यू में आम आदमी पार्टी (आप) का दफ्तर खोलने पर भी सवाल उठाए गए हैं। शुंगलू कमेटी ने 440 फाइलों की जांच करनी थी, लेकिन 36 फाइलों का मामला लंबित था, लिहाजा 404 फाइलों की जांच की गई। रपट उसी जांच से संबंधी है, जो 27 नवंबर, 2016 को उपराज्यपाल नजीब जंग को सौंप दी गई थी। उन फाइलों में विसंगतियों और अनियमितताओं का उल्लेख है, जिन्हें दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने किया। बेशक एक चुनी हुई सरकार होने के नाते उन्हें कुछ अधिकार हासिल हैं, लेकिन उपराज्यपाल के निर्णय और संविधान की सीमाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले के मुताबिक, उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक और संवैधानिक प्रमुख हैं। केजरीवाल ने उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है। जब तक सुप्रीम कोर्ट का निर्णय नहीं आता, तब तक हाई कोर्ट का फैसला ही माना जाएगा। लिहाजा केजरीवाल और उनकी सरकार उपराज्यपाल अनिल बैजल के फैसलों की अनदेखी नहीं कर सकती। अब सवाल है कि शुंगलू कमेटी के निष्कर्षों के आधार पर क्या मुख्यमंत्री केजरीवाल के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जा सकता है? कमेटी में पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक वीके शुंगलू के अलावा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रदीप कुमार भी थे, लिहाजा रपट किसी एक व्यक्ति के मानस की उपज नहीं है। सवाल यह भी है कि दिल्ली नगर निगम चुनावों से ऐन पहले इस रपट को जानबूझ कर जारी किया गया है? इस प्रक्रिया में जो अफसर लिप्त हैं, क्या उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए? मुख्यमंत्री केजरीवाल पर जो अपनों को ‘रेवडि़यां’ बांटने के आरोप लगे हैं, उनके मद्देनजर उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा? आरोप अनेक हैं और ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री से अनजाने में ही नियमों की अनदेखी होती गई। पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी मंत्रियों के साथ नत्थी किया गया और उनके मोटे वेतन तय किए गए। बिना पद के ही रोशन शंकर को पर्यटन विभाग में ओएसडी नियुक्त किया गया। एक दौर था, जब शुंगलू कमेटी ने ही राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधी घोटाले में तत्कालीन दिल्ली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को दोषी पाया था, तब केजरीवाल और उनके साथियों ने ही उछल-उछल कर उनका इस्तीफा मांगा था। आज वे निलंबन को भी तैयार नहीं हैं। बहरहाल यह मामला सीबीआई के फंदे तक जाएगा और आरोपों की फांस केजरीवाल तथा साथियों को चुभती रहेगी।


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