चुनावी असमंजस का रणक्षेत्र

By: May 4th, 2017 12:05 am

फसल उगाने के सियासी मायनों और अंदाज से रू-ब-रू होता हिमाचल किसे सीने से लगाए या दुत्कार दे। पालमपुर में भाजपा की थाली सजाने से पहले प्रदेश सरकार ने अपनी रसोई से फिर कुछ ऐसा परोसा कि लाभार्थियों की बल्ले-बल्ले। सरकारी शगुन की एक और कड़ी में मंत्रिमंडलीय फैसलों की नीयत पर फैली पलकें और इधर पालमपुर की आंख से सत्ता की मछली पर तीर कमान तैयार। कांग्रेस से कहीं आगे वीरभद्र सरकार खुद को साबित करने की पैमाइश में, हर वह फैसला कर रही है, जिससे जनता संतुष्ट हो और आत्मीयता बढ़े। कर्मचारी महत्त्वाकांक्षा पर उदार होते निर्णयों की सौगात ने इतना एहसास तो करा दिया कि इस मौसम में ऐसे ही फल उगेंगे। सरकार का सीधा संबोधन करीब चालीस हजार अनुबंध कर्मियों के साथ और फैसले की इस घड़ी में आगे बढ़ने की दरकार। जाहिर है चुनावी वर्ष में सरकार बिना किसी अर्थशास्त्र से आगे बढ़ रही है और लाभ की फसल में केवल चुनाव के चुंबक उगाए जा रहे हैं। कर्मचारी विसंगतियों के कई अन्य पहलू छूते हुए वीरभद्र ने अपने पिटारे का मुंह इतना तो खोल ही दिया कि अब चुनावी परिदृश्य में झांकने से पहले, सरकार को देखना पड़ेगा। सरकार का झुकाव स्पष्ट है और इस बरसात का अर्थ स्पष्ट है, लेकिन जहां असमंजस है वहीं तो चुनाव होगा। ऐसे में कांग्रेस की असमंजस का रणक्षेत्र अगर पार्टी के भीतर है, तो ऐसे झंझट से मुक्त होने की तैयारी में भाजपा का कारवां पालमपुर में डटा है। ऐसी चुनौतियों के समाधान एक सरीखे ही होंगे, लेकिन भाजपा में सशक्त आलाकमान है जो कूव्वत से राजनीतिक परिभाषा बदल रहा है। इसलिए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कार्यशाला की हाजिरी में नेताओं की नस्ल परखी जाएगी। बदलाव के लिए यहां संगठन पहले है, जबकि कांग्रेस का बोझ केवल सरकार ढो रही है। राजनीति को सरकारें प्रभावित करती हैं और यही वह दौर है जहां केंद्र की मोदी सरकार का असर बाहें फैला कर लगातार चुनावी राज्यों को आगोश में भर रहा है। ऐसे में वीरभद्र अपने लिए एक ऐसा मुकाबला चाहते हैं, जो राज्य सरकार बनाम केंद्र हो। बेशक कांग्रेस के भीतर नेताओं के दो अलग-अलग झुंड हैं, जिनमें  से एक राजा के भरोसे भरोसेमंद है, जबकि दूसरा पार्टी के भीतर अपना वर्चस्व कायम करके सारा ढांचा बदलने का ख्वाहिशमंद है। जाहिर है कि सरकार की पैरवी में कांग्रेस अलग ध्रुव पर होगी और अगर भाजपा के प्रहार नुकीले होकर वीरभद्र सिंह के आसपास ही रहते हैं, तो सत्तारूढ़ दल को अधिक नुकसान नहीं होगा। अगर सीधा मुकाबला भाजपा बनाम कांग्रेस हो, तो राष्ट्रीय आगाज में शाह की पार्टी एकसाथ कई तंबू तबाह करने में सफल हो सकती है। राजनीति का यही अंतर, भाजपा के चरित्र को बदल सकता है। भाजपा के मंथन का एक विषय हिमाचल में कांग्रेस संगठन के प्रति इतनी अहमियत नहीं रखता, जितनी मशक्कत से वीरभद्र के नेतृत्व में सरकार को समझना होगा। पिछले एक साल के मंत्रिमंडलीय फैसलों का नूर इतना भी कम नहीं कि हल्के से लिया जाए। इस दौरान मात्रात्मक उपलब्धियों  की एक तस्वीर को हिमाचल बखूबी देख रहा है और यही दस्तूर वीरभद्र सरकार को निरंतर नए आयाम पर खड़ा करता रहा है। हिमाचली विकास का तुलनात्मक अध्ययन किसी भी अन्य राज्य से कमजोर नहीं और जिस अंदाज में सरकार ने अपने फैसलों की मिट्टी बिछाई है, उस पर खेती तो जरूर होगी। यह दीगर है कि अपने अंतिम पहर में धूमल सरकार भी कर्मचारियों पर अति मेहरबान रही, लेकिन सियासी फायदे में जनता का मूड पढ़ना पुष्प गुच्छ देने की तरह नहीं होता। यही मूड भांपने के लिए अमित शाह के शिविर में कसरतें जारी हैं, तो हिमाचल सरकार भी अपने होने की घोषणा हर फैसले के जरिए कर रही है। सियासत की पिच पर भाजपा का अलख और आलंबन अगर पुष्ट है, तो हिमाचल में सरकार की अदाकारी का भी एक स्पष्ट रुख है। अतः राजनीतिक घमासान में केंद्र बनाम राज्य के बजाय भाजपा बनाम कांग्रेस युद्ध होता है तो विपक्ष की भूमिका स्वयं ही बड़ी नजर आएगी, वरना सरकारी फैसलों की नकेल में कुछ न कुछ तो फंसता ही रहेगा।

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