भेदभाव को तलाक बोलने का समय

By: May 26th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंहप्रो. एनके सिंह

प्रो. एनके सिंह लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

पाकिस्तान के तीसरे  प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा, अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर, अपनी सेक्रेटरी से दूसरी शादी करना चाहते थे। उनकी पहली पत्नी ने न केवल इसका प्रतिकार किया, बल्कि इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी किया। जल्द ही, पाकिस्तान के अन्य शहरों में इस प्रकरण को लेकर विरोध प्रदर्शन होने लगे। देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के कारण, तीन तलाक और बहुविवाह को लेकर एक आयोग का गठन किया गया, जिसने 1961 में इस प्रथा को खत्म कर दिया…

कुछ निश्चित संदर्भों में सभी धर्म औरतों को मर्दों से कमतर आंकते हैं, लेकिन तलाक के मुद्दे पर इस्लाम धर्म औरतों के साथ सबसे बुरा बर्ताव करता है। कुछ मामलों में मुस्लिम औरतों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं, उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के साथ शादी करने अथवा न करने का अधिकार उन्हें दिया गया है। शादी के लिए उसकी सहमति आवश्यक मानी गई है। हालांकि, कई प्रकरणों में यह देखा जाता है कि उन्हें किसी खास व्यक्ति से शादी करने के लिए बाध्य किया जाता है। तीन तलाक विवाह विच्छेद का सबसे बुरा तरीका है। ई-मेल के जरिए भी तीन तलाक देने के उदाहरण सामने आ रहे हैं, इससे साबित होता है कि महिलाओं के शोषण का यह बहुत सरल तरीका बन गया है। तीन तलाक केवल महिलाओं को वैवाहिक जीवन से बाहर निकालने का रास्ता भर नहीं है बल्कि यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि इसकी तलवार हमेशा महिला के सिर पर लटकती रहती है। इस तरह, यह महिला का सतत रूप से प्रताडि़त करने और गुलाम बनाए रखने का एक उपकरण बन गया है। तीन तलाक पुरुषों को, किसी महिला के सभी अधिकारों का निरस्त करने का अधिकार तो देता ही है, इसके साथ ही पुनर्विवाह को लेकर महिला पर पुरुषों की अपेक्षा, बहुत कठोर शर्तें लाद देता है। स्थिति तब और बदतर होती है, जब महिला अपने पूर्व पति के पास आना चाहती है और पूर्व पति भी उसे पत्नी के रूप में पुनः स्वीकार करने के लिए तैयार होता है, लेकिन इस प्रथा के कारण ऐसा करने के लिए उसे पहले किसी अन्य व्यक्ति से शादी करनी पड़ती है और दूसरे पति द्वारा तलाक देने की स्थिति में ही, वह पहले पति से शादी कर पाती है। यह सारी प्रक्रिया किसी महिला के साथ बहुत ही बुरे तरीके से पेश आती है और इसके कारण मुस्लिम महिलाओं को बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ती है।

इस्लाम के शास्त्रीय न्यायशास्त्री ऐसा मानते हैं कि ‘महिलाओं की प्रकृति में तार्किकता और स्वनियंत्रण का अभाव होता है।’ अन्य लिंग के प्रति इस तरह के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक चिंतन और साभ्यतिक प्रगति के वर्तमान दौर में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस्लाम में विभिन्न तरह की प्रथाएं अस्तित्व में रही हैं, लेकिन ई-मेल जैसे माध्यमों द्वारा यकायक दिया जाने वाला तलाक बहुत ही निंदनीय है। अब यह प्रथा उच्चतम न्यायालय के विचाराधीन है। उच्चतम न्यायालय ने  यह जानने के लिए कि क्या तीन तलाक, इस्लाम धर्म का अनिवार्य हिस्सा है, पांच सदस्यीय पीठ का गठन कर, इस मसले को थोड़ा जटिल बना दिया है। तीन तलाक का मसला इस तरह से स्वयंसिद्ध है कि उसे लेकर न्यायालय को बाल की खाल निकालने की जरूरत नहीं थी। निम्न तथ्य पर विचार करने से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी। हिदू धर्म में तलाक के लिए कोई प्रावधान नहीं है क्योंकि इसमें शादी को जन्म-जन्मांतर तक चलने वाला रिश्ता माना जाता है, जिसे सदियों तक नहीं तोड़ा जा सकता। 1956 में यह प्रावधान लाया गया कि आपसी समस्याएं पैदा होने की कुछ स्थितियों में इसे तोड़ा जा सकता है। इसके विरोध में यह तर्क नहीं दिया गया कि यह हजारों साल पुरानी परंपरा है क्योंकि सुधार की जरूरत महसूस हो रही थी। अब, कपिल सिब्बल, जो कि इस आदिम प्रथा के पक्ष में पैरवी कर रहे हैं, का कहना है कि हिंदू द्वारा अयोध्या को रामजन्म भूमि मानने की आस्था की तरह ही, तीन तलाक की प्रथा भी इस्लाम मतावलंबियों की आस्था से जुड़ा प्रश्न है। यह केवल बिना सिर पैर का तर्क नहीं है, बल्कि यह हिंदुओं की आस्था का अपमान भी है क्योंकि राम जन्मभूमि से जुड़ी पवित्र आस्था और तीन तलाक की प्रथा में कोई समानता नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहले ही यह निर्णय दे चुका है कि ‘नागरिकों को संविधान प्रदत्त अधिकारों पर पर्सनल लॉ को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।’

यह समझ से परे है कि इस मसले पर निर्णय देने की बजाय उच्चतम न्यायालय ने इसे विशेष पीठ को क्यों सौंप दिया। न्यायालय इस बात से अनभिज्ञ नहीं था कि 20 से अधिक इस्लामी देश इस प्रथा को खारिज कर चुके हैं। ऐसे परिप्रेक्ष्य में  इस मामले को विशेष पीठ को सौंपना आश्चर्य को बढ़ा देता है। इस मसले को लेकर पाकिस्तान में जो हुआ, वह विचार करने योग्य है क्योंकि भारतीय न्यायालय के द्वारा गठित पांच न्यायाधीशों की विशेष पीठ, इस मसले पर स्वयं मुस्लिम देशों से बेहतर व्याख्या नहीं कर सकती है। विशेषकर, उस पड़ोसी देश से, जो कभी भारत का हिस्सा रहा है। पाकिस्तान में तीन तलाक की प्रक्रिया में बदलाव के मुद्दे का ऐतिहासिक महत्त्व है क्योंकि यह स्वयं वहां के प्रधानमंत्री से जुड़ी रही है। वह अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर दूसरी शादी करना चाहते थे। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा, अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर, अपनी सेक्रेटरी से दूसरी शादी करना चाहते थे। उनकी पहली पत्नी ने न केवल इसका प्रतिकार किया, बल्कि इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी किया। जल्द ही, पाकिस्तान के अन्य शहरों में इस प्रकरण को लेकर विरोध प्रदर्शन होने लगे। देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के कारण, तीन तलाक और बहुविवाह को लेकर एक आयोग का गठन किया गया, जिसने 1961 में इस प्रथा को खत्म कर दिया। इसे बांग्लादेश ने भी अपना लिया। हैरत की बात यह है कि भारत अब भी इस आदिम प्रथा से चिपका हुआ है और तथाकथित बुद्धिजीवी और वकील इसे इस्लाम का अभिन्न हिस्सा साबित करने पर तुले हुए हैं। अपनी पत्नी को निकाल फेंकना और उसे बेबसी के गर्त में धकेल देना, कौन सी आस्था है। उच्चतम न्यायाल को इस मसले पर दुविधाग्रस्त होने और  इसे किसी भूलभुलैया में तबदील करने से बचना चाहिए। सभी धर्मों की महिलाओं को उनका वांछित हक और पुरुषों के समान अधिकार देने का समय आ गया है।

बस स्टैंड

पहला यात्री : जब हिमाचल के मुख्यमंत्री से संबंधित किसी मसले पर न्यायालय में सुनवाई होनी होती है तो पूरा मंत्रिमंडल दिल्ली की तरफ दौड़ क्यों लगाता है।

दूसरा यात्री : संभवतः इस भय के कारण कि उनकी बारी कब आएगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com

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