मरीजों के पाले का दर्द

By: May 5th, 2017 12:05 am

विकास और विस्तार की जिस परिभाषा में हिमाचल पल रहा है, वहां जिंदगी और भविष्य की काबिलीयत क्यों हार रही है। तकनीकी विश्वविद्यालय की रचना में खुले तमाम इंजीनियरिंग कालेज अगर बिखरे, तो युवाओं की काबिलीयत में शंकाएं भर दीं और हालत यह है कि निजी विश्वविद्यालय भी केवल सजावटी इमारतें बनकर रह गए। अब बात मेडिकल यूनिवर्सिटी की हो रही है, तो काबिलीयत में शिक्षा का असर चिकित्सा संस्थानों तक देखा जाएगा। आश्चर्य यह कि ताबड़तोड़ मेडिकल कालेजों के उदय के बीच उदास चिकित्सा विभाग को प्रमुख क्षेत्रीय या जोनल अस्पतालों की उदासीनता का पता नहीं चल रहा। ऐसे में एमसीआई के बढ़ते निरीक्षण ने कितने प्रमुख अस्पताल लावारिस बना दिए, इसका हाल भी पूछने को कोई तैयार नहीं। ‘दिव्य हिमाचल’ ने सर्वेक्षण किया, तो मालूम हुआ कि वर्षों से मरीजों के विश्वास पर चल रहे जिला स्तरीय अस्पताल अपंग हो चुके हैं, जबकि कहने को कहीं इन्हें क्षेत्रीय और कहीं जोनल हास्पिटल का दर्जा हासिल है। बिलासपुर अस्पताल की बदकिस्मती कहें या मरीजों के पाले में दर्द समझें कि यहां पिछले छह माह से एक भी आपरेशन नहीं किया गया। जहां सरकारी अमले में एक सर्जन मुहैया नहीं, वहां वकालत में एम्स पर नाचती सियासत को क्या कहें। धर्मशाला के जोनल अस्पताल के बाजुओं में पुनः जहर भरते हुए विभाग ने एक साथ दर्जन भर दक्ष विशेषज्ञ छीन लिए, तो इस फकीरी के आलम में चिकित्सा सेवाओं का आलम क्या होगा। चंबा अस्पताल में पांच डाक्टरों के इस्तीफे और ऊना में विशेषज्ञों को छीनने की कोशिश में कराहती इमारत का क्या करें। लगभग आधा दर्जन डाक्टर अगर हमीरपुर से रुखसत हो गए, तो वहां मेडिकल कालेज का आधार क्या होगा। कमोबेश हर जिला स्तरीय अस्पताल में आठ सौ से हजार तक की ओपीडी में डाक्टरों की माकूल तादाद का इंतजाम न होना, आखिर किसको सजा दे रहा है और इन भवनों को सजाने की वजह क्या है। हैरानी यह कि हिमाचली डाक्टरों के दम पर देश के प्रतिष्ठित अस्पताल गौरवान्वित हो रहे हैं, लेकिन प्रदेश में चिकित्सकीय सेवाओं को संस्थान का रूप देने की कोई भूमिका या मॉडल ही तैयार नहीं हुए। नतीजतन सरकारी अस्पतालों के विश्वसनीय दर्पण को खुद विभाग की जरूरतें, राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और लाचारी तोड़ रही है। ऐसे में सरकार नए मेडिकल कालेजों के घुंघरू पहनकर जितना भी नाच ले, मगर कड़वा सच यह है कि जिन अस्पतालों पर मरीजों का भरोसा है, उन्हें ही अपंग बनाया जा रहा है। पहले जब टीएमसी बना, तो इसने आसपास के कई अस्पताल लील दिए और अब गिनती में बढ़ते मेडिकल कालेजों ने क्षेत्रीय अस्पतालों को कसूरवार बना दिया। ताज्जुब यह कि नए डाक्टरों को नियुक्त करने की कोई ऐसी नीति नहीं बनी, जो उन्हें आकर्षित कर पाए। लिहाजा दक्ष विशेषज्ञ प्रदेश के बाहर स्थापित हो रहे हैं और जो स्थायी रूप से सरकारी सेवा में हैं, उन्हें अस्थिर व असमंजस में रखा जा रहा है। ऐसे में चिकित्सा क्षेत्र में हो रहे विस्तार को महज भवनों में देखें या राजनीतिक मंच पर उछलती घोषणाओं का सदका करें। करीब छह सौ डाक्टरों के टोटे में चल रहा स्वास्थ्य विभाग कब तक एमसीआई को झांसे में रखकर क्षेत्रीय अस्पतालों की बलि लेगा। कुछ इसी तरह का विस्तार नए स्कूल-कालेजों की परिधि में हारती इमारतों में देखा जाएगा। कालेज संख्या और रूसा के अवतार में हिमाचल के प्रतिष्ठित व बड़े महाविद्यालयों ने अपने अमूल्य योगदान के कई चितेरे इसलिए खो दिए, क्योंकि उन्हें नए शिक्षा केंद्रों की चटाई बिछाने की जिम्मेदारी बढ़ गई है। स्कूल-कालेजों, इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेजों के विस्तार के बजाय शिक्षा और चिकित्सा के लक्ष्यों के विस्तार में काबिलीयत की चंद ईंटें अगर लगा दी जाएं, तो कहीं अधिक राहत मिलेगी।

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