प्रगति की प्राथमिकताओं को कम न करें

By: Jun 2nd, 2017 12:06 am

प्रो. एनके सिंहप्रो. एनके सिंह

(  एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं )

जब लाइसेंस के नवीनीकरण जैसे छोटे कार्य में चार महीने से अधिक का समय लग जाता है, तब मुझे लगता है कि लगता है कि लालफीताशाही बदस्तूर जारी है। इस दौरान संबंधित फाइल एडीम की टेबल पर पड़ी रहती है।  प्रधानमंत्री सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना चाहते हैं और मैं एक गांव में सौर संयत्र लगाने के लिए इच्छुक था। लेकिन अधिकारियों से बातचीत करने के बाद मैंने यह इरादा छोड़ दिया क्योंकि उनकी तरफ से कोई उपयोगी सलाह नहीं मिल सकी…

एक ऐसे समय में जब सभी मोदी सरकार की तीन वर्ष के कार्यकाल की विजयगाथा और उपलब्धियों का जयगान कर रहे हैं, अनछुए बिंदुओं पर लिखना बड़ा अटपटा जैसा लगता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्रधानमंत्री ने इस समयावधि में कई ऐसे प्रशंसनीय और नए लक्ष्य प्राप्त किए हैं, जिन्हें पूर्व के प्रधानमंत्री नहीं प्राप्त कर सके थे। लेकिन अच्छे भविष्य की ललक और आगे बढ़ने के अथक यात्रा में में हम इस सुनहरी धूप में भी गहरी छायाओं को नकार नहीं सकते। मैं ऐसे पांच बिंदुओं पर रोशनी डालना चाहूंगा, जिन पर मोदी सरकार ने पर्याप्त कार्य नहीं किया है। हांलांकि, अन्य क्षेत्रों में उन्होंने जो किया है, उस पर कई मोटे ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। नौकरशाही में फैली हुई लाल फीतशाही और आलस्य ऐसा पहला उल्लेखनीय बिंदु है। ग्रामीण इलाकों में यह बीमारी और भी अधिक गंभीर रूप में दिखती है। सरकार स्वयं ही मोदी के ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के लक्ष्य को झुठला रही है। लाल फीता अब भी लाल है और यह हरे में तबदील नहीं हो सका है। यह सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति और प्रशिक्षण से जुड़ा हुआ मसला है। इसमें विकृति के कारण ही आज भी जो सरकार में है वह आदेशों को प्रभावित करता है और दृष्टिकोण को नियंत्रित करता है। सरकारी सेवक अभी तक जनसेवक नहीं बन सके हैं।

मोदी, लोगों का प्रधान सेवक होने के संकल्प के साथ शासन में आए थे, लेकिन वह अभी तक ऐसे सुधार नहीं कर पाए हैं जो प्रशासन में सेवकों के दृष्टिकोण के साथ कार्य करने का भाव पैदा करे। इसके परिणामस्वरूप, लगभग सभी जगह, और विशेषतः राज्य सरकारों में जनमित्रवत रुख नहीं पैदा हो सका है। सरकारों पर अब भी मनमाने और दंभ भरे दृष्टिकोण के साथ कार्यकरने की प्रवृत्ति अब भी हावी है। यह प्रवृत्ति औपनिवेशिक विरासत की देन है। जब लाइसेंस के नवीनीकरण जैसे छोटे कार्य में चार महीने से अधिक का समय लग जाता है, तब मुझे लगता है कि लगता है कि लालफीताशाही बदस्तूर जारी है। इस दौरान संबंधित फाइल एडीम की टेबल पर पड़ी रहती है।  प्रधानमंत्री सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना चाहते हैं और मैं एक गांव में सौर संयंत्र लगाने के लिए इच्छुक था, लेकिन अधिकारियों से बातचीत करने के बाद मैंने यह इरादा छोड़ दिया क्योंकि उनकी तरफ से कोई उपयोगी सलाह नहीं मिल सकी। प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद संबंधित मंत्री समय पर कार्यालय पहुंचने लगे और तेजी से कामों का निपटारा प्रारंभ किया। मुझे आशा थी कि राज्य भी इस पद्धति को अपनाएंगे अथवा मंत्री महोदय राज्यों को नए और तेज तरीके से कार्य करने के लिए तैयार करेंगे। प्रधानमंत्री का निर्देश था कि अधिकारी जनता के साथ विनम्रता से पेश आएंगे, लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ होता हुआ दिख नहीं रहा है। मुझे आशा था कि वह  महत्त्वपूर्ण निर्णयों और नियुक्तियों इत्यादि पर प्रशासनिक सेवाओं के  आभासी एकाधिकार को समाप्त करेंगे।

मुझे यह अपेक्षा थाी कि नियुक्ति और प्रशिक्षण की एक नई व्यवस्था से परिचय होगा लेकिन अब भी कुछ बाहरी लीपापोती कर उसी औपनिवेशिक ढांचे से कार्य चलाया जा रहा है। एक मैंने एक ब्रिटिश अधिक से यह पूछा था कि आप लोगों ने हमें ऐसी व्यवस्था क्यों दी, उसने ठहाका लगाते हुए उत्तर दिया कि ‘हमने ऐसी व्यवस्था इसलिए दी ताकि हम राजा की तरह शासन कर सकें, लेकिन ब्रिटेन में आपको ऐसी व्यवस्था नहीं मिलेगी। जब मारग्रेट अल्वा कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की मंत्री थीं, तब उन्होंने प्रशासकीय सेवाओं के प्रशिक्षण में बदलाव के लिए एक समिति का गठन किया था ताकि वे अधिक पेशेवर हो सकें। मैं भी उस समित में शामिल था लेकिन जैसे ही उनका तबादला हुआ मेरा नाम उस समिति से बाहर निकाल दिया गया ताकि आमूल चूल बदलाव को रोका जा सके। प्रशासकीय सेवा में भी बेहतरीन लोग हैं लेकिन उन्हें यही सिखाया जाता है कि वह, एक कलेक्टर की भाषा मे कहें तो,  ‘प्रजा’ से उचित दूरी बनाए रखें। क्या मोदी इन छोटे नेपोलियनों को प्रधान सेवक में तब्दील कर सकते हैं। इसके व्यापक बदलाव होगा और व्यापार करने तथा ग्रामीण इलाकों में कल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में बहुत सहूलियत मिल सकेगी।

दूसरा क्षेत्र शिक्षा का है। इस क्षेत्र में सरकार ने छोट-मोटे बदलाव किए हैं लेकिन इस व्यवस्था में घुन इतने भीतर तक घुस चुका है कि इन छोट-मोटे बदलाव से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। सरकार द्वारा केवल एम्स, आईआईएम अथवा आईआईटी की बात करने से काम नहीं चलेगा। यहां से अच्छे परिणाम इसलिए आते हैं तो इसलिए नहीं कि सरकार ने ऐसा सुनिश्चित किया है। अच्छे परिणामों का कारण हजारों विद्यार्थियों के बीच से संस्थान द्वारा श्रेष्ठ प्रतिभाओं की चयन है। श्रेष्ठ प्रतिभाएं, अच्छे परिणाम देंगी ही।राज्यों में इन संस्थानों की प्रतिकृतियां बना देने भर से वैसे ही परिणाम नहीं आएंगे जब तक कि उच्च क्षमता  वाले प्राध्यापक तथा शोध को प्राथमिकता नहीं दी जाती। तथ्य यह है कि अब भी उच्च गुणवत्ता वाले प्राध्यापकों की बहुत कमी है और उनके पहचान की कोई प्रयास होता हुआ भी नहीं दिखता क्योंकि व्यवस्था उनकी छंटनी कर देती है। बहुत सारे निकाय   नेतृत्वहीन है अथवा अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं। एआईसीटीई, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अथवा चिकित्सा परिषद् में  लालफीताशही और भ्रष्टाचार बुरी तरह व्याप्त है।

सरकारी टोली द्वारा नियंत्रण के बजाय यदि डीन संस्थानों का नियंत्रण करें, इससे स्वनियंत्रण की क्षमता तो बढ़ेगी ही, बल्कि इससे संकाओं और प्रतिभाओं को उच्चमानकों के अनुसार गढ़ने का रास्ता भी मिल सकेगा। उच्च शिक्षा में व्याप्त खामियों की तरफ संकेत करने के लिए बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन सबसे पहले हमें आधारभूत प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, जो अभी उलझन में फंसी हुई है।उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े पैमाने पर नकल होने की मेरे पास प्रामाणिक रिपोर्ट्स हैं। अन्य प्रदेश भी इस मामले में बहुत पिछड़े हुए नहीं है। उत्तर प्रदेश में मेरे अनुभव में आया कि वहां पर परीक्षा केंद्र निर्धारित करने और नकल के लिए पैसों का खेल खेला जाता है। यदि स्कूली व्यवस्था में इतनी सड़ाध बनी रहेगी तो उच्चतर शिक्षा की स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

बस स्टैंड

पहला यात्रीः हिमाचल में स्कूल और विद्यार्थी होते हुए भी शिक्षक नहीं है, जबकि सरकार हाल में इसकी घोषणा कर चुकी है?

दूसरा यात्रीः सरकार स्कूलों की गिनती कर प्रगति निर्धारित करती है, शिक्षा उसके लिए कुछ खास मायने नहीं रखती।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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