यह किसानों की कौन सी जमात!

By: Jun 9th, 2017 12:05 am

यह भारतीय किसान का कौन-सा रूप है? सांस्कृतिक और मानसिक तौर पर शांतिप्रिय किसान आज इतना उग्र और हिंसक क्यों है? हमने कई किसान आंदोलन बड़े करीब से देखे हैं। किसानों पर गोलियां, कांग्रेस सरकारों के दौरान, कई बार चलाई गई हैं। मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में पुलिस ने गोलियां चलाईं और 6 किसानों की मौत हो गई। सिर्फ  इसी आधार पर और बदले की भावना से किसानों ने उपद्रव फैला दिया, मंदसौर के डीएम के साथ मारापीटी की और उन्हें खदेड़ दिया। जान बचाकर कलेक्टर को वहां से भागना पड़ा। करीब 100 बसों-ट्रकों में आग लगा दी, यात्री वाहनों पर ऐसे प्रहार किए कि यात्रियों को सीटों के नीचे दुबक कर जान बचानी पड़ी, वे बार-बार बचाने और दंगई भीड़ को दूर भगाने की चीख-पुकार करते रहे। पुलिस थाना भी फूंक दिया। शहर बंद, बाजार बंद और कर्फ्यू…!  ये कौन से किसान हैं? आखिर इन हरकतों से किसानों की समस्याएं संबोधित की जा सकेंगी? किसानों की कई मांगें हैं, जो सार्वजनिक हैं, लेकिन कर्जमाफी का मुद्दा सबसे प्रबल और नाजुक है। 2008 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने किसानों के करीब 65,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ  करने का ऐलान किया था और इसी आधार पर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल 2009 का लोकसभा चुनाव जीत गए थे। अभी उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने किसानों के 36,356 करोड़ रुपए के कर्ज माफ  किए और जुलाई तक बैंकों का पैसा चुकाने का दावा भी किया गया है। कई किसान बेचैन हैं, क्योंकि उन्हें बैंकों के नोटिस आ रहे हैं कि कर्ज अदा कीजिए। कर्जमाफी में उत्त्र प्रदेश सरकार के धुएं छूट गए हैं। अब महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में किसान सड़कों पर हैं और हिंसा पर उतारू हैं। मध्य प्रदेश में ही करीब 74,000 करोड़ रुपए का किसानी कर्ज है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बार-बार कर्जमाफी का आश्वासन दिया है, लेकिन किसान हिंसक और बेचैन हैं। हमारा सवाल देश के आम नागरिक के मानस से उपजा है कि यूपीए सरकार ने किसानों के कर्ज माफ  किए थे, तो किसान दोबारा कर्जदार कैसे हो गए? या यूपीए सरकार ने किन किसानी जमातों के कर्ज माफ  किए थे? क्या उनमें सीमांत और छोटे किसान शामिल नहीं थे? यदि कर्ज माफ  कर दिए गए थे, तो किसान की औसत सालाना आमदनी 20,000 रुपए से भी कम क्यों है? यह स्थिति देश के 17 राज्यों की है। आधे देश से भी ज्यादा…! यह किसी भाजपा-कांग्रेस की रपट नहीं, बल्कि संसद में पेश किए गए 2016 की आर्थिक समीक्षा के आंकड़े हैं। कर्जमाफी का यह मुद्दा राज्य-दर-राज्य फैलता जा रहा है। किसान लगातार फसलें बोता है, मंडी में आढ़ती को फसल बेचता है या सरकारी एजेंसियों को, फसल बीमा योजना के प्रावधान भी मौजूद हैं, खेत की मिट्टी की जांच के भी अब बंदोबस्त हैं। कृषि की राष्ट्रीय औसत विकास दर 4 फीसदी से भी कम है, लेकिन मध्य प्रदेश में यही दर 20 फीसदी से ज्यादा है, जो लगातार एक रिकार्ड है। सवाल यह भी है कि 1995 से 2015 तक के दो दशकों के दौरान 3.18 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। किसान संघों के नेता यह आंकड़ा 20 लाख बताते हैं। बहरहाल इसमें मोदी सरकार का तो एक ही साल है। छह साल वाजपेयी सरकार के थे, शेष कार्यकाल कांग्रेस या उसके द्वारा समर्थित सरकारों का रहा है। इस अवधि में करीब 42 फीसदी आत्महत्याएं बढ़ी हैं। लिहाजा सवाल है कि सिर्फ  मोदी सरकार और भाजपा से नफरत करने वाला यह आंदोलन क्या वाकई किसान हितों के लिए है? बेशक सरकारें किसानों और पूंजीपतियों के कर्ज माफ  करती रहें, लेकिन ये कोशिशें आर्थिक सुधारों को नकारात्मक बनाती हैं, ऐसा तमाम तटस्थ अर्थशास्त्रियों और बैंकर्स का मानना है। एक आकलन के मुताबिक, कर्जमाफी देश की जीडीपी के 2 फीसदी हिस्से के बराबर है। लाखों करोड़ रुपए का नुकसान…! लिहाजा कर्जमाफी भी अंतिम और सकारात्मक समाधान नहीं है। यदि सरकारें राज्य-दर-राज्य किसानों के कर्ज माफ करती रहेंगी, तो आने वाले वक्त में यह भी आंदोलन की आवाज बन सकती है कि सभी वर्गों के बीपीएल, मजदूर, निचले तबके के असंगठित कर्मचारियों को भी आर्थिक रियायतें क्यों नहीं? उनके भी कर्ज माफ किए जाएं। किसानों की तरह वह भी एक सशक्त वोट बैंक है और लोकतंत्र में वोट बैंक की अनदेखी संभव नहीं है। हालांकि नीति आयोग की एक रपट के मुताबिक, करीब 53 फीसदी किसान भी गरीबी रेखा के नीचे हैं। मौजू सवाल यह है कि 2022 तक औसत किसान की आमदनी दोगुनी कैसे की जा सकती है? यह सरकारों के लिए जांच का विषय है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर उनकी फसलों के दाम दिए जाते हैं या नहीं। यदि सरकारी और आढ़ती या मंडियों के स्तर पर फसलों के उचित दाम नहीं दिए जाते हैं, तो ऐसा क्यों नहीं? क्या घाटे में फसलें बेचते रहने के कारण किसान कर्जदार बनता रहा है या कोई अन्य कारण भी हैं? कृषि विज्ञानी देविंदर शर्मा का एक सुझाव सामने आया है कि किसान आमदनी आयोग बना दिए जाएं, जो किसानों का औसतन 18,000 रुपए माहवार का पैकेज तय करे और उसका भुगतान करे। तो क्या अब खेती को भी ‘सरकारी कर्म’ घोषित करना पड़ेगा? बहरहाल किसानों की आड़ में मध्य प्रदेश की हिंसा और महाराष्ट्र में दूध, फल, सब्जियों को सड़क पर फेंकना निंदनीय और नकारात्मक कोशिशें हैं। इनसे सरकारें कर्जमाफी को तैयार नहीं हुआ करतीं। मध्य प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं, लिहाजा यह मुद्दा संवेदनशील है। सवाल यह भी है कि क्या राष्ट्रीय कृषि नीति दोबारा तय की जाए और उसे कमोबेश 25 साल के लिए लागू किया जाए, बेशक केंद्र या राज्य में सरकार किसी की भी आए? करीब 5 करोड़ किसान शहरों में मजदूरी करने को विवश हो चुके हैं, यह एक खौफनाक तथ्य है, सरकार इसका भी तुरंत संज्ञान ले, लेकिन हिंसक आंदोलन का कोई भी हिमायती नहीं होना चाहिए।

भारत मैट्रीमोनी पर अपना सही संगी चुनें – निःशुल्क रजिस्टर करें !


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App