शब्द वृत्ति
माणिक मोती का खेल
खेल रहे जो जान पर, तुमको सूझा खेल, जाधव कब से सड़ रहा, घुटता है नित जेल। आज खेल भी बिक रहा, कोहिनूर के दाम, हीरे की ऐसी चमक, मिले खुदा और राम। फुर्र हो गई भावना, धुला देश से प्यार, लॉकर को लगती मधुर, सिक्कों की झंकार। फौजी दुश्मन क्यों बने, बैरी बने शहीद, लाशों के अंबार पर, मना रहे वो ईद। अमन चैन सुख शांति रहे, बेशक जब हो खेल, सीमा पर छलनी हृदय, खेल बड़ा बेमेल। गले मिल नित्य प्रति, अजब अनोखा साथ, कई खजाने लबालब, कुछ हो शर्म लिहाज। लार टपकती रोज ही, ठोकर मारो आज, परिजन देख शहीद के, सिसक रहे दिन रात। गले मिलो उनसे कभी, दिल की पूछो बात। दो ध्रुव मिलते हैं गले, टकराते हैं जाम, जब मन को कुछ तो पढ़ो, डुबा रहे क्यों नाम। शत्रु सदा ही शत्रु है, वो क्यों रखे याद, कौन सुने बकवास यह, शर्र्मा की फरियाद।
( डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )
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