एनआईए के शिकंजे में विदेशी दलाल

By: Jul 29th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीहुर्रियत कान्फ्रेंस कश्मीर की जनता का नहीं, बल्कि पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करती है। यदि मोदी सरकार को कोई बात भी करनी होगी, तो वह पाकिस्तान से सीधे कर सकती है। वह हुर्रियत के दलालों के माध्यम से बात क्यों करेगी? हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं की गिरफ्तारी कश्मीर को लेकर बदली नीति का प्रतीक है। नई नीति में देशी वेश में विदेशी दलालों की समाप्ति का संकेत है, इसे फारुक अब्दुल्ला से अच्छी तरह और कौन समझ सकता है…

पिछले दिनों एनआईए ने जम्मू-कश्मीर में कई साल से सक्रिय हुर्रियत कान्फ्रेंस के कई नेताओं व उनके रिश्तेदारों को गिरफ्तार किया है। कश्मीर घाटी में  हुर्रियत कान्फ्रेंस के बारे में कहा जाता है कि वह आतंकवादी गिरोहों का राजनीतिक मुखौटा है। आतंकवादी गिरोह जब सरकार से बातचीत करना चाहते हैं, तो मोटे तौर पर वे इसी राजनीतिक मुखौटे के माध्यम से ही बात करते हैं। हुर्रियत कान्फ्रेंस को विदेशों से, खासकर सऊदी अरब और पाकिस्तान से पैसा मिलता है। यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं है। इसे दिल्ली में बैठी सरकारें भी जानती थीं और हैं। यह भी कहा जाता है कि ज्यादातर पैसा तो सऊदी अरब से ही आता है। पाकिस्तान तो मात्र उस पैसे को हुर्रियत कान्फ्रेंस और आतंकवादी गिरोहों तक पहुंचाने का माध्यम है। पिछले कुछ बरसों से चीन भी इस मैदान में कूद पड़ा है और उसने भी घाटी में परोक्ष रूप से अपनी हाजिरी दर्ज करवानी शुरू कर दी है। हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं और उनके रिश्तेदारों की गिरफ्तारी से आतंकवादी गिरोहों का तिलमिलाना स्वाभाविक ही था। यानी तिलमिलाहट समझी भी जा सकती है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से हुर्रियत कान्फ्रेंस के साथ सार्वजनिक रूप से हम बगल होने वाले नेशनल कान्फ्रेंस के मालिक फारुक अब्दुल्ला भी इस गिरफ्तारी से तिलमिला रहे हैं। लेकिन गुस्से में भी उन्होंने एक सामयिक प्रश्न उठाया है, जिसका उत्तर दिया जाना लाजिमी है। उन्होंने कहा कि हुर्रियत कान्फ्रेंस को विदेशों से ही पैसा नहीं मिलता, बल्कि उनको भारत सरकार भी पैसा देती रही है। फारुक अब्दुल्ला ने अपनी बात को और ज्यादा पुख्ता बनाने के लिए दुलट की एक किताब का हवाला दिया है, जो कुछ साल पहले लिखी गई थी।

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के मुखिया रह चुके एस दुलट ने इसमें कहा था कि भारत सरकार भी कश्मीर घाटी में कुछ लोगों को खरीदने के लिए पैसे देती रही है। यदि फारुक अब्दुल्ला, अपने आरोप को विश्वसनीय बनाने के लिए दुलट की किताब का सहारा न भी लेते, तब भी उनकी बात पर विश्वास किया जा सकता था। वैसे तो उनके अब्बूजान पर भी यह आरोप लगता था कि रियासती काल में ब्रिटिश सरकार मुस्लिम कान्फ्रेंस/नेशनल कान्फ्रेंस को महाराजा हरि सिंह के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए पैसा देते थे। यह अलग बात है कि उसकी कभी जांच नहीं हुई। जब दिल्ली सरकार ने शेख अब्दुल्ला को अमरीका के साथ सांठगांठ करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया तब भी फारुक अब्दुल्ला, जो उन दिनों चाचा नेहरू के घर दिल्ली में आकर ठहरते थे, उसे रिश्वत नहीं बल्कि पारिवारिक रिश्ते ही कहते हैं और ऐसा कहा जाना चाहिए। दरअसल कश्मीर घाटी के लोगों का गुस्सा ही इस बात को लेकर रहा कि दिल्ली उन पर विश्वास नहीं करती, बल्कि वह घाटी में से कुछ लोगों को पैसा देकर खरीद लेती है और चाहती है कि ये खरीदे हुए नेता कश्मीर घाटी के लोगों को हाकते रहें। कश्मीर घाटी में नेहरू ने नेताओं को खरीद कर स्थापित करने की जो परंपरा शुरू की थी, वह कालांतर में भी चलती रही और कश्मीरी अपने आप को ठगा हुआ महसूस करते रहे। कांग्रेस ने कश्मीर में केवल नेता ही नहीं खरीदे, बल्कि नौकरशाही में भी चुने हुए लोगों को खरीदा।

खरीदे और आरोपित नेताओं के लंबे शासनकाल में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच गया और आम आदमी के लिए वहां की सरकार लोकतांत्रिक सरकार न रह कर, तानाशाही सरकार हो गई। कश्मीर घाटी में तो यह स्थिति हो गई थी कि आम कश्मीरी महाराजा हरि सिंह की सरकार को ही याद करने लगे थे। फारुक अब्दुल्ला जब अपनी बात को पुख्ता बनाने के लिए एएस दुलट का सहारा लेते हैं, तो उनको अब्दुल्ला परिवार के शासन के दौरान प्लेग की तरह फैले भ्रष्टाचार के लिए शायद किसी का सहारा न लेना पड़े। उसके लिए तो वह स्वयं ही प्रमाण हैं। यह अलग बात है कि फारुक अब्दुल्ला में सच कहने की हिम्मत नहीं है। कांग्रेस सरकारें पहले तथाकथित राजनीतिक नेताओं को पालती रहीं, लेकिन उनके भ्रष्टाचार से दुखी जनता ने जब उनका साथ छोड़ दिया तो दिल्ली ने हुर्रियत कान्फ्रेंस को पालना शुरू कर दिया। लेकिन असली बात यह है कि आखिर कांग्रेस कश्मीर घाटी में नेताओं को, चाहे वे हुर्रियत कान्फ्रेंस के हों या फिर तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के, खरीदने का प्रयास क्यों करती है? शायद कांग्रेस को मुसलमानों पर विश्वास नहीं है। उसे लगता है कि कश्मीर के मुसलमान पाकिस्तान के समर्थक हैं, इन्हें लालच देकर रोका जा सकता है। इस अवधारणा से ग्रस्त कांग्रेस हर प्रकार से मुसलमानों का तुष्टीकरण करने की कोशिश करती रही है। यह कांग्रेस की आज की नहीं, बल्कि आजादी से पहले की पुरानी बीमारी है।

इसी से दुखी होकर बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि कांग्रेस मुसलमानों के तुष्टीकरण में इस सीमा तक जा रही है कि वह उन्हें कोरे चेक पर हस्ताक्षर करके दे रही है, जबकि कश्मीर घाटी के लोग शुरू से ही पाकिस्तान के समर्थक नहीं थे। कश्मीरी तेज दिमाग के होते हैं, वे समझ गए थे कि नए बन रहे पाकिस्तान में पंजाबी मुसलमानों का कब्जा होगा। कश्मीरियों की वहां औकात वैसी ही होगी, जैसी बंगाली मुसलमानों की हुई। दिल्ली में कांग्रेस इस भ्रम को पाले रही कि कश्मीरी शेख अब्दुल्ला के कारण भारत के साथ हैं। दरअसल आजतक कश्मीर समस्या जनता के स्तर पर कभी थी ही नहीं, बल्कि वह कांग्रेस द्वारा खरीदे गए गए नेताओं की राजनीतिक समस्या थी। दिल्ली सभी को पैसा देकर इसे हल करना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस की इस रणनीति के कारण कश्मीर में समस्या पैदा हो गई और वह नेशनल कान्फ्रेंस से होते-होते हुर्रियत कान्फ्रेंस तक पहुंच गई। लेकिन दिल्ली सरकार अपनी उसी पुरानी नीति के आधार पर इसे भी हल करने की कोशिश करती रही।

नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली की इस सत्तर साल पुरानी नीति को बदल दिया है। उसने हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं ने अपने लिए तो बेहिसाब संपत्ति जोड़ ली और उसमें से कुछ पैसा निवेश कर पत्थर फेंक बटालियन तैयार कर ली। हुर्रियत कान्फ्रेंस के लोग जानते हैं कि वे जिन बेरोजगारों को थोड़ा बहुत पैसा देकर पत्थर फिंकवाते हैं, वे जानते हैं कि उनमें से अधिकांश मारे जाएंगे, लेकिन यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। मोदी सरकार ने हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं को विश्वास में लेने के बजाय कश्मीर की आम जनता को विश्वास में लेने की नीति अपनाई है। हुर्रियत कान्फ्रेंस कश्मीर की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि वह पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करती है। यदि मोदी सरकार को कोई बात भी करनी होगी, तो वह पाकिस्तान से सीधे कर सकती है। वह हुर्रियत के दलालों के माध्यम से बात क्यों करेगी? हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं की गिरफ्तारी कश्मीर को लेकर बदली नीति का प्रतीक है। नई नीति में देशी भेस में विदेशी दलालों की समाप्ति का संकेत है, इसे फारुक अब्दुल्ला से अच्छी तरह और कौन समझ सकता है। अब्दुल्ला की छटपटाहट का कारण भी यही है।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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