ग्रामीण समृद्धि की सुगम नीति

By: Jul 12th, 2017 12:05 am

डा. अश्विनी महाजन

लेखक, प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज दिल्ली से हैं

newsग्रामीण क्षेत्र में कृषि की सहायक गतिविधियों और व्यवसायों को बढ़ावा देना नितांत जरूरी है। गुजरात का ‘अमूल मॉडल’ इंगित कर रहा है कि किसानों की आमदनी को बढ़ाने में डेयरी का बड़ा योगदान हो सकता है। इसके अलावा मुर्गी पालन, मशरूम, बागबानी जैसी अनेक सहायक गतिविधियां किसानों की हालत सुधारने के लिए नितांत जरूरी हैं। गांवों में फूड प्रोसेसिंग, अन्य छोटे और कुटीर उद्योग, किसान को वैकल्पिक रोजगार दे सकते हैं…

पिछले कुछ समय से चल रहे किसान आंदोलनों के चलते देश में कृषि संकट फिर से चर्चा में आ गया है। इसके प्रभाव से आनन-फानन में राज्य सरकारों ने कृषि ऋणों की माफी भी शुरू कर दी है। ऐसा नहीं है कि कृषि उत्पादन में हाल ही में कोई कमी आई है, बल्कि इस साल गेहूं, चावल, दाल और तिलहन का तो रिकार्ड उत्पादन हुआ है। गन्ने को छोड़ सभी नकदी फसलों का उत्पादन भी बढ़ा है। उसके बावजूद पिछले कई सालों से चल रही किसान आत्महत्याओं का दौर थमने का नाम ही नहीं ले रहा। पिछले तीन सालों से चल रही भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का लगातार दावा रहा है कि उन्होंने किसानों और ग्रामीण विकास के लिए अभूतपूर्व कदम उठाए हैं। हर साल बजट में कृषि ऋणों के लक्ष्य को भी बढ़ाया जाता रहा है। देश में कृषि क्षेत्र से संबंधित एक विचित्र स्थिति बनी हुई है। देश में कृषि उत्पादन तो बढ़ा है, फिर भी कृषि संकट बना हुआ है। 2015-16 की तुलना में यदि 2016-17 के उत्पादन के आंकड़ों को देखा जाए तो पता चलता है कि गेहूं के उत्पादन में 5.6 प्रतिशत, चावल के उत्पादन में 4.5 प्रतिशत, दालों के उत्पादन में 36 प्रतिशत, तिलहनों के उत्पादन में 33 प्रतिशत और कपास के उत्पादन में 8.7 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई है। यदि उत्पादकता को देखा जाए तो पिछले दस सालों में गेहूं की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में 12.5 प्रतिशत और चावल में 16 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई है। कुल मिलाकर कृषि में उत्पादन और उत्पादकता दोनों में खासी बड़ी वृद्धि दर्ज हुई है। यानी कहा जा सकता है कि वर्तमान का कृषि संकट उत्पादन में कमी या प्राकृतिक आपदा के कारण नहीं है।

साथ ही यह कृषि संकट हाल ही में उत्पन्न नहीं हुआ है। यह संकट गहरा है और इसका निदान भी गहराई से करना जरूरी है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि वर्तमान के नीति निर्माता इसकी गहराई समझने के लिए तैयार नहीं हैं। पिछले 37 सालों में राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 38 प्रतिशत से घटकर मात्र 15 प्रतिशत ही रह गया है। स्थिति यह है कि 2011 की जनगणना के आर्थिक-सामाजिक आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 92 प्रतिशत गृहस्थ ऐसे हैं, जिनमें अधिकतम आय वाले सदस्य की आय 10,000 रुपए से भी कम थी। 95 प्रतिशत गृहस्थों में तो यह 5000 रुपए से भी कम थी। आजादी के बाद आती-जाती सरकारों ने अपने-अपने ढंग से कृषि की समस्याओं से निपटने का प्रयास किया है। 1960 के दशक के अन्न संकट को नई कृषि नीति के अंतर्गत हाइब्रिड बीजों, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के पैकेज द्वारा निपटाया गया। अन्न का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन आगे चलकर कृषि उत्पादन असंतुलित होने लगा और अंततोगत्वा एक कृषि प्रधान देश भारत शेष दुनिया से 94,000 करोड़ रुपए की दालों और खाद्य तेलों का अयातक देश बन गया। कृषि प्रधान देश, जहां सभी राजनेता किसान की खुशहाली लाने के नाम पर वोट बटोरते हैं, में वर्ष 1995 से 2015 तक के 20 वर्षों में 3,22,028 किसान आत्महत्या कर चुके थे (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार)। आत्महत्याओं का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। सरकार आयात-निर्यात नीति, औद्योगिक नीति आदि सभी प्रकार की आर्थिक नीतियां बनाती है, लेकिन कुछ अनजान कारणों से कृषि नीति नहीं बनाई जाती। बिना सुविचारित मत के ‘जीएम’ बीजों की वकालत (नीति आयोग समेत कई संस्थाओं द्वारा) होने लगती है, लेकिन स्वास्थ्य, सामाजिक, पर्यावरणीय और जैव विविधता पर उनके असर हो हल्के से निपटा दिया जाता है। जिस जोशो खरोश से बीटी कपास का गुणगान गाया जाता था, उसके फेल हो जाने के बाद, उसका दोष स्वीकार भी नहीं किया जाता। यानी सही कृषि नीति पर कोई सोच नहीं। विज्ञान प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के नाम पर ‘जीएम’ परोस दिया जाता है।

कृषि संकट के प्रति अपनी संवेदना का प्रदर्शन अभी तक सरकारों ने कृषि ऋण माफी द्वारा ही किया है। पहले यूपीए सरकार ने किसानों के 70,000 करोड़ रुपए के कृषि ऋण माफ कर दिए। उसके बाद अब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने ऋण माफी की घोषणा कर दी है। उसी तर्ज पर भाजपा शासित अन्य राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि में भी ऋण माफी की मांग को लेकर आंदोलन तेज होते जा रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार ने तो डेढ़ लाख रुपए तक के कर्ज माफी की घोषणा भी कर दी है। बढ़ती लागतों, उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना, फसलों के नष्ट होने, बीमारियों पर बढ़ते खर्च आदि के कारण किसान ऋणग्रस्त, बदहाल और गरीब एवं अपनी भूमि से वंचित हो रहा है। ऐेसे में ऋण माफी के बाद बैंकों एवं सहकारी संस्थाओं आदि से लिए गए ऋण तो माफ हो जाएंगे, लेकिन साहूकारों, व्यापारियों, रिश्तेदारों से लिए ऋण तो उसे चुकाने ही पड़ेंगे। दूसरी ओर जिन कारणों से किसान ऋणी होता है, वे तो ज्यों के त्यों बने हुए हैं। यदि देखा जाए तो किसान को उसकी उपज का सही मूल्य ही नहीं मिल पाता। कृषि वस्तुओं के समर्थन मूल्य महंगाई के अनुपात में भी नहीं बढ़ते। खाद्य मुद्रा-स्फीति, जिसका हवाला देकर समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाने का तर्क दिया जाता है, समर्थन मूल्य के कारण नहीं, सट्टेबाजी के कारण बढ़ी है। दूसरी ओर कृषि लागतें बढ़ती जा रही हैं। महंगे उपकरण, महंगी खाद और कीटनाशक रूपी कृषि को महंगा सौदा बनाते जा रहे हैं। इसलिए लागतों में कमी और कृषि उपज का लाभकारी मूल्य कृषि संकट का एकमात्र समाधान है।

इस बाबत एमएस स्वामीनाथन रपट को लागू करना बेहद जरूरी है, जिसमें कहा गया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम मूल्य देना चाहिए। इस बाबत सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में भी वादा किया गया था, जिसे सरकार में आने के तीन साल बाद भी लागू नहीं किया गया। जिस अनुपात में एक के बाद एक राज्य सरकारें आनन-फानन में कृषि ऋण माफी की घोषणाएं करती जा रही हैं, ऐसा लगता है कि आगे आने वाले एक वर्ष में लगभग दो लाख करोड़ रुपए के ऋणों की माफी हो जाएगी। यदि इस राशि का आधा भी खर्च किसानों को उसकी उपज के सही मूल्य दिलाने में किया जाए, तो भी किसानों की आर्थिक स्थिति में कई गुना मजबूती आएगी। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में कृषि की सहायक गतिविधियों और व्यवसायों को बढ़ावा देना नितांत जरूरी है। गुजरात का ‘अमूल मॉडल’ इंगित कर रहा है कि किसानों की आमदनी को बढ़ाने में डेयरी का बड़ा योगदान हो सकता है। इसके अलावा मुर्गी पालन, मशरूम, बागबानी जैसी अनेक सहायक गतिविधियां किसानों की हालत सुधारने के लिए नितांत जरूरी हैं। गांवों में फूड प्रोसेसिंग, अन्य छोटे और कुटीर उद्योग, किसान को वैकल्पिक रोजगार दे सकते हैं। पूर्व के योजना आयोग के सदस्य स्व. एस.पी. गुप्ता की अध्यक्षता में गठित कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करना होगा, ताकि ग्रामीण रोजगार का भी निर्माण हो और उत्पादन एवं आमदनियां भी बढ़ें।

ई-मेल : ashwanimahajan@rediffmail.com

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