चीन की जूती, चीन के सिर

By: Jul 1st, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीचीन चाहता है कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा सुविधा को ही चीन के साथ अच्छे संबंधों का प्रमाण मान लिया जाए और सीमा विवाद पर भारत चीन को रियायत दे। लेकिन न तो यह 1962 है और न ही यह पंडित नेहरू की सरकार। इसके बावजूद चीन अभी भी 1962 की ही मिसाल दे रहा है। आशा करनी चाहिए कि चीन बदले हालात को समझेगा और चुंबी घाटी में चुप हो जाने को ही बेहतर मानेगा। भारत सरकार ने इस बार जिस दृढ़ता का परिचय दिया है, उससे यकीनन चीन को सही संदेश जाएगा…

चीन लगभग धमकियों की भाषा पर उतर आया है। विवाद भूटान-तिब्बत और चीन के बीच है। दरअसल, भूटान की रक्षा का उत्तरदायित्व भारत पर है। चीन तिब्बत और भूटान को जोड़ने के लिए चुंबी घाटी से सड़क बनाना चाहता है। सड़क बनाने के लिए उसे जो जगह चाहिए, उस पर उसने अरसा पहले अपना दावा ठोंकना शुरू कर दिया था, यह चीन की पुरानी रणनीति का हिस्सा है। चीन की रणनीति विवाद को जिंदा रखने की रहती है। जब उसे विश्वास हो जाता है कि अब वह विवाद अपने पक्ष में निपटा लेने में सक्षम है, तो वह उस पर काम शुरू कर देता है। चुंबी घाटी का मामला भी कुछ ऐसा ही है। घाटी उसके कब्जे में है। भूटान के जिस इलाके में वह सड़क बनाना चाहता है, उस पर जुबानी दावा उसका पुराना है। इसके लिए वह समय-समय पर भूटान को धमकाता भी रहता है। भूटान ने अनेक बार भारत को इस मामले में सावधान भी किया है, लेकिन भारत सरकार चीन की नजर में अच्छे बालक की भूमिका अदा करने के लालच में भूटान की शिकायतों की ओर ध्यान नहीं देती थी। निराश होकर भूटान ने इस मामले में चीन से सीधी बातचीत करके ही इस समस्या का हल निकालने की कोशिश करने के संकेत देने शुरू कर दिए थे। चीन लंबे अरसे से भारत के साथ अपने अच्छे रिश्तों की दुहाई देता रहता था।

चीन के लिए अच्छे संबंधों का अर्थ केवल इतना ही है कि भारत चीन की दादागिरी की ओर ध्यान नहीं देता। जब भारत चीन की दादागिरी का विरोध करता है, तो वह उसकी नजर में बुरा देश बन जाता है। पिछली सदी के पांचवें दशक में जब चीन लद्दाख में सड़क बना रहा था, तो भारत सरकार आंखें बंद करके बैठी रही। चीन के लिहाज से हिंदी-चीनी भाई-भाई का यह सर्वोत्कृष्ट नमूना था, लेकिन यह नमूना ज्यादा देर तक चल नहीं सकता था। भारत ने जब अपने अधिकार की बात शुरू की तो चीन का उत्तर 1962 था। चीन को तब यह मालूम हो चुका था कि सैनिक तैयारी के लिहाज से भारत पिछड़ चुका है, क्योंकि देश के नीति निर्धारक सेना की उपयोगिता को लेकर ही बहस करने लगे थे। 1962 भारत की उस नीति का परिणाम था। लेकिन चीन ने भारत के कुछ हिस्सों पर अपना दावा बरकरार रखा। उसी दावे में भूटान का वह हिस्सा भी आता है, जिसको लेकर अब चीन और भारत में तनाव है। भूटान में शायद उसको लगता होगा कि भारत की प्रतिक्रिया को जान लेना जरूरी है।

हर पांच-दस साल के अंतराल के बाद वह सीमा के मामले को लेकर भारत सरकार की प्रतिक्रिया जानता रहता है। पिछले दिनों जब दलाईलामा अरुणाचल प्रदेश के तवांग में गए थे, तो चीन की भाषा और धमकियां भारत की दृढ़ता और प्रतिक्रिया जानने का एक प्रयास ही था। चीन की उत्तेजित धमकियों के बीच भारत सरकार ने दृढ़ता का रुख अख्तियार किया। अब चीन चुंबी घाटी में वही कुछ कर रहा है। भारत का हालिया रुख चीनी रणनीतिकारों को पच नहीं पा रहा है। भारत अब एक स्पष्ट नजरिए के साथ चीनी दावों का प्रतिवाद कर रहा है और उसकी धमकियों को कोई खास तवज्जो नहीं दे रहा है। पिछले पांच दशकों में चीनियों को भारत को धमकाने और अपना काम निकालने की आदत पड़ गई है। कभी सीमाओं का अतिक्रमण कर तो कभी अरुणाचल को अपना बताकर, चीन भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखने की कोशिश करता रहा है। लेकिन अब उसकी दाल गल नहीं रही है। शायद, लंबे अरसे बाद उसकी आंखों में आंख मिलाकर बात की जा रही है और चीन को यह बिलकुल पसंद नहीं आ रहा है। यदि वहां के सरकारी मीडिया पर नजर डाली जाए तो ऐसा लगता है कि उसने भारत को उपदेश देने का बीड़ा उठा रखा है। आजकल उसे इस बात की बहुत चिंता हो रही है कि भारत का हित किसमें है और किसमें नहीं है। शायद, इसका एक कारण यह भी हो कि चीनी मीडिया अपने देश में तो खुलकर बोल नहीं पाता। उसे सरकारी लाइन पर चलना पड़ता है। उसे कितना बोलना है और कहां रुकना है, इसका निर्धारण सरकार करती है। इसलिए वह दूसरे देशों के बारे में कुछ भी बोलकर खुद को ज्ञानी साबित करने की कोशिश करता है और इस तरह अपनी खीझ भी मिटाता है। चुंबी घाटी के बारे में कहा जाता है कि वह ऐसी कटार है कि जो जिसके हाथ में आ जाएगी, वह भारत के सीने में घोंप सकता है। फिलहाल वह कटार चीन के कब्जे में है।

1950 से 1959 तक, तिब्बत में आधिपत्य जमा कर चीन ने इस कटार को अपने कब्जे में किया था। उस वक्त भारत इसका विरोध कर सकता था। यदि भारत खुद सैनिक लिहाज से यह कर सकने में सक्षम नहीं था, तो वह अमरीका की सहायता ले सकता था। अमरीका उस समय चीन के खिलाफ भारत की सहायता करने के लिए तत्पर भी था। लेकिन उस समय पंडित नेहरू गुट निरपेक्षता के चलते अमरीका से दूरी बनाए हुए थे और इसी में भारत का भला मान रहे थे। यह अलग बात है कि उनकी भलमनसाहत ने चीन के हाथ चुंबी घाटी की कटार दे दी। अब भारत और अमरीका के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं। इसकी चिंता चीन को हो रही है। भारत और अमरीका की नजदीकियां दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन भारत के पक्ष में कर सकती हैं। उसी का डर चीन के दिमाग में बैठ रहा है। इसीलिए चीन के प्रवक्ता इस बात पर दुख जाहिर कर रहे हैं कि भारत ने इतने लंबे अरसे से चली आ रही गुटनिरपेक्ष नीति का त्याग कर दिया है, जो भारत के हित में नहीं है। ताज्जुब है अब चीन यह बता रहा है कि क्या भारत के हित में है और क्या नहीं। चुंबी घाटी के प्रकरण को इसी संदर्भ में देखना होगा।  दरअसल चीन चाहता है कि नाथू ला के रास्ते कैलाश मानसरोवर के यात्रियों को जाने की अनुमति की आड़ में तिब्बत और भूटान को जोड़ने वाली सड़क बना ली जाए और भारत सरकार इस पर चुप रहे। चीन चाहता है कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा सुविधा को ही चीन के साथ अच्छे संबंधों का प्रमाण मान लिया जाए और सीमा विवाद पर भारत चीन को रियायत दे। लेकिन न तो यह 1962 है और न ही यह पंडित नेहरू की सरकार। इसके बावजूद चीन अभी भी 1962 की ही मिसाल दे रहा है। आशा करनी चाहिए कि चीन बदले हालात को समझेगा और चुंबी घाटी में चुप हो जाने को ही बेहतर मानेगा। भारत सरकार ने इस बार जिस दृढ़ता का परिचय दिया है, उससे यकीनन चीन को सही संदेश जाएगा।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App