बहुमत का शासन भारतीय लोकतंत्र को खतरा

By: Jul 5th, 2017 12:05 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

केवल सहिष्णुता से ही लोकतांत्रिक सरकार नहीं चलती। इसके लिए कई अन्य स्थितियां भी आवश्यक हैं। भारत के बहुमत शासन ने देश को अनगिनत तरीकों से विफल किया है। इसने सांप्रदायिक तनावों को और बिगाड़ा जिससे देश का विभाजन हो गया। इसने कश्मीर में बहुसंख्यकों को उत्तेजित किया, जिससे यह भारतीय इतिहास का सबसे खूनी संघर्ष बन गया। भारत को भी इसी प्रकार बहुमत शासन के प्रकोपों से अपने लोकतंत्र की रक्षा करनी चाहिए। समय आ गया है कि भारतीय सरकारें ‘शासन’ के बजाय ‘सेवा’ करना आरंभ करें…

अधिकतर भारतीय यह समझते हैं कि लोकतंत्र का अर्थ बहुमत का शासन है। वे सोचते हैं कि एक बार कोई पार्टी या गठबंधन संसद अथवा विधानसभा में बहुमत पा ले, तो उसे अपनी इच्छा अनुसार काम करने का वैध और नैतिक अधिकार है। और वे जो अल्पमत में हैं, उन्हें या तो बहुमत की इच्छाओं को स्वीकार कर लेना चाहिए या सत्ता में आने की अपनी बारी की चुपचाप प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा बहुमतवाद एक महान राष्ट्र के लिए उचित नहीं है। समय आ गया है कि भारत बहुमत के निरंकुश शासन पर आधारित सरकार की प्रणाली पर पुनर्विचार करे। भारत, विश्व का एक सर्वाधिक विविध देश, बहुमत की सरकार (majority rule) के लिए कभी भी उपयुक्त नहीं था। मुख्य समस्या यह थी कि सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील राष्ट्र में स्थायी बहुमत धार्मिक आधार पर मौजूद था। आज भी कुल जनसंख्या में लगभग 80 प्रतिशत लोग हिंदू, 14 प्रतिशत मुस्लिम, और 2-2 प्रतिशत सिख व ईसाई हैं। इसके अलावा अन्य स्थायी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक संघर्ष – उदाहरणार्थ, भाषाओं व जातियों पर आधारित – भी मौजूद थे। इनमें से किसी भी बहुसंख्यक वर्ग में बदलाव आना अपेक्षित नहीं था, और इस वजह से बहुमत का शासन भारतीय परिस्थितियों के लिए उचित नहीं था। इन बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक संघर्षों से उत्पन्न समस्याओं से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। फिर भी बहुसंख्यकवाद ज्यों का त्यों कायम है।

आजकल, भाजपा केंद्र, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में अपने बहुमत का शक्ति प्रदर्शन कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पद ग्रहण करते ही अध्यादेशों के माध्यम से शासन आरंभ किया। उन्हें संसद को विश्वास दिलाना पड़ा कि ‘‘बहुमत के शासन के बजाय आम सहमति अधिक आवश्यक है।’’ परंतु उनके और उनकी पार्टी के बहुमतवादी आवेग, जैसे कि कश्मीर में कट्टरपंथी दृष्टिकोण या गोरक्षकों का उत्पात, कई प्रकार से दिखाई देते रहे हैं। हाल ही में 65 पूर्व आईएएस अधिकारियों ने सरकार व सार्वजनिक संस्थानों से इस ‘‘बढ़ रही निरंकुशता और बहुमतवाद, जो बहस, चर्चा और असहमति की अनुमति नहीं देते,’’ पर अंकुश लगाने की वकालत की है। परंतु बहुमत वालों को सहिष्णुता पर भाषण देने से ही हमारा बहुमत का शासन उपयुक्त नहीं बन जाएगा। यह बात गणतंत्र के आरंभ से ही स्पष्ट थी। ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान सर आइवर जेन्निंग्स ने भारत को वर्ष 1945 में  ही सावधान किया था : ‘‘केवल सहिष्णुता से ही लोकतांत्रिक सरकार नहीं चलती।’’

जेन्निंग्स ने वर्णन किया कि ब्रिटेन की बहुमत सरकार की प्रणाली भारत के लिए सही क्यों नहीं थी। ‘‘हमारे (ब्रिटेन में) बहुमत स्थायी नहीं हैं,’’ उन्होंने लिखा, ‘‘यह व्यक्तिगत और राष्ट्रहित के विभिन्न विचारों पर आधारित हैं, ऐसे विचार जिनमें बदलाव संभव है… यह अल्पमत को शांतिपूर्वक और यहां तक कि खुशी-खुशी बहुमत की नीति के प्रति झुकने के योग्य बनाता है।’’ ‘‘एक कंजर्वेटिव सरकार मुझे रातोंरात कंजर्वेटिव बनने के लिए फुसला सकती है,’’ उन्होंने कहा, ‘‘परंतु यह मेरे वंश, मेरी भाषा, मेरे कबीले या जाति, मेरे धर्म, और यहां तक कि मेरी आर्थिक स्थिति को नहीं बदल सकती।’’

इन्हीं कारणों से कई प्रमुख हस्तियों ने बहुमत के शासन को भारत की सरकार का आधार बनाने का विरोध किया था। एक ब्रिटिश संसदीय समिति ने 1933 में रिपोर्ट सौंपी कि ‘‘भारत में ऐसा कोई भी कारण मौजूद नहीं है’’ जो बहुमत शासन की सफलता के लिए आवश्यक है। जिन्ना ने 1939 में मुस्लिम लीग से एक प्रस्ताव पारित करवाया कि लीग ‘‘ऐसे किसी भी मंसूबे के अटल रूप से खिलाफ है, जो लोकतंत्र के वेश में बहुसंख्यक समुदाय का शासन स्थापित करे।’’ और बीआर अंबेडकर ने वर्ष 1945 में कहा था कि भारत में ‘‘बहुमत का शासन सैद्धांतिक रूप में असमर्थनीय और व्यावहारिक रूप से अनुचित है।’’ यहां तक कि भारत के लिए अच्छी प्रणाली तलाशने के लिए एक गैर-राजनीतिक प्रयास – 1945 का ‘गैर-पार्टी सम्मेलन’ – में भी ब्रिटिश-प्रकार के बहुमत शासन को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया गया। अध्यक्ष तेज बहादुर सप्रू ने कहा कि यह ‘‘अनुपयुक्त है और इस देश में वह परिणाम नहीं दे पाएगा जो इसने इंग्लैंड में दिए हैं।’’

भारत के बहुमत शासन ने देश को अनगिनत तरीकों से विफल किया है। इसने सांप्रदायिक तनावों को और बिगाड़ा जिससे देश का विभाजन हो गया। इसने कश्मीर में बहुसंख्यकों को उत्तेजित किया, जिससे यह भारतीय इतिहास का सबसे खूनी संघर्ष बन गया। यह नियमित रूप से बहुमत सरकारों को मनमानी से कानून बनाने और उन्हें इच्छानुसार लागू करने की इजाजत देता है। यह सरकार को लोगों और राजनीतिक विरोधियों को जांच एजेंसियों, जैसे सीबीआई, पुलिस और कर अधिकारियों के माध्यम से प्रताडि़त करने की अनुमति देता है। भारत के अनियंत्रित भ्रष्टाचार के पीछे भी निरंकुश बहुमत शासन ही मुख्य कारण है। यह एक अनियंत्रित बहुमत ही था जिसने इंदिरा गांधी को भारत का लोकतंत्र पूर्णतया समाप्त करने की इजाजत दी। अगर हम बहुमत शासन को लोकतंत्र का पर्याय मानना बंद कर दें तो हम यह समस्या दूर करने की शुरुआत कर सकते हैं। ऐसे अन्य लोकतांत्रिक मॉडल हैं जिनकी कार्यकुशलता बेहतर सिद्ध हो चुकी है। अमरीकी प्रणाली विशेष रूप से बहुमत के राज को रोकने के लिए तैयार की गई थी। इसके एक निर्माता, जेम्स मैडिसन ने विश्व भर के पिछले 3000 वर्षों के लोकतंत्रों का अध्ययन किया था। उन्होंने लोकतंत्रों की असफलता से संबंधित मूलभूत प्रश्न खोज निकाला था : क्या बहुमत शासन का सिद्धांत सही है? उनका उत्तर था नहीं, और वह व उनके साथी एक बेहतर प्रणाली बनाने में जुट गए। मैडिसन ने पाया कि लोकतंत्र बहुमत की ‘‘शरारतों’’ से असफल हुए थे। उन्होंने लिखा, ‘‘विधायी परिषदों में बहुसंख्यक विपरीत रुचि व विचार रखने वाले अल्पसंख्यकों के बलिदान के लिए एक हो जाते हैं।’’ मैडिसन ने एक साधारण सा प्रश्न पूछा, ‘‘तीन व्यक्तियों को एक परिस्थिति में रखिए, और उनमें से दो को ऐसी रुचि दे दीजिए जो तीसरे के अधिकारों के विरुद्ध हो। क्या तीसरा व्यक्ति सुरक्षित होगा?’’

अमरीकी प्रणाली बहुमतों को मनमानी करने या लोगों का उत्पीड़न करने से कैसे रोकती है? वह ऐसा दो व्यावहारिक तरीकों से करती है। पहला, यह चुनावों का दायरा बढ़ाते हुए विशाल और विविध जनसंख्या को चुनाव क्षेत्र में शामिल करती है। ताकि इसमें रुचियां तो कई हों, परंतु साधारण बहुमत न हो। संपूर्ण क्षेत्र से देश और राज्यों का मुख्य कार्यकारी अधिकारी निर्वाचित करने का यह बहुत बड़ा लाभ है। समूचे राष्ट्र के लोगों द्वारा स्पष्ट रूप से निर्वाचित होने वाले प्रधानमंत्री के लिए संप्रदाय, जाति या भाषा आधारित बहुमत के बल पर जीतना बहुत मुश्किल होगा। दूसरा, अमरीकी प्रणाली सरकार के ढांचे और प्रक्रिया को जटिल बनाती है। शक्तियों का वास्तविक पृथक्करण, द्विसदनीय विधायिका, न्यायिक समीक्षा, और सच्चा संघवाद, किसी भी बहुमत के लिए यह असंभव बना देता है कि समूची सरकार को नियंत्रित किया जा सके। शक्ति इतने अधिक तरीकों से बांटी जाती है कि अल्पमत विचारों को अभिव्यक्ति के लिए एक मंच और बहुमत के विरुद्ध कार्रवाई के लिए एक संस्था हमेशा मिल जाती है। बेशक इससे शासन मुश्किल और हताशाजनक हो जाता है, परंतु यह देश के लोकतंत्र को मजबूत करता है और इसके  निणर्यों को बेहतर बनाता है। भारत को भी इसी प्रकार बहुमत शासन के प्रकोपों से अपने लोकतंत्र की रक्षा करनी चाहिए। समय आ गया है कि भारतीय सरकारें ‘शासन’ के बजाय ‘सेवा’ करना आरंभ करें।

साभार : दि ट्रिब्यून

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