मीडिया ताप में जांच

By: Jul 26th, 2017 12:05 am

कोटखाई की दर्दनाक घटना ने हिमाचल से न जाने कितने सवाल पूछे या प्रश्नों के गुंबद पर जो सूलियां टंगी, वहां अदृश्य आशंका में अनेक गर्दनें सजी हैं। मामला सीबीआई के पाले में पहुंचा, लेकिन इससे पहले तथ्यों को समझने मेें लापरवाही के सबूत और अनर्गल तर्कों की खींचतान में पूरा प्रदेश रहा। बेशक पूरे कांड के वीभत्स साए में उबला माहौल सबसे अधिक उद्वेलित मीडिया को करता रहा और यह भी एक कड़वा सत्य है कि आलोचना के दौर में अगर जांच के पैमाने बदले तो अग्रणी भूमिका में मीडिया कर्मी ही रहे। इससे पूर्व एक गार्ड की रहस्यमयी मौत के कारणों पर मीडिया का अन्वेषण, जांच की जिरह में पेश हुआ। मीडिया के ये तेवर हिमाचली अस्तित्व में अपनी अदायगी का पुण्य कमा सकते हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शब्द केवल सत्य की व्याख्या है, जबकि खुद सत्य नहीं और न ही मीडिया कवरेज किसी प्रमाण को प्रमाणित करने की अति है। अब जबकि जांच के परिदृश्य में मीडिया का कैनवास विस्तृत हो चुका है, जिम्मेदारी का संतुलन और भी पुष्ट करना होगा। मामले की परतों में छिपा गुनाह सामाजिक ताने-बाने में सुराख सरीखा है, इसलिए भी मीडिया संवेदना को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाएगा, फिर भी इस विधा की अपनी एक परंपरागत परिपाटी व संयम का संतुलन है। मुख्यधारा का मीडिया आजकल इस फिराक में है कि सोशल मीडिया को पटकनी दे या जब चर्चा हो तो उसी का जिक्र हो, इसलिए कोटखाई प्रकरण की तमाम चर्चाओं का साथी मीडिया है, लेकिन यह कोई पटकथा भी नहीं कि हर चर्चा मंच सरीखी हो। यह विडंबना ही मानी जाएगी कि कवरेज को पाठक के मन के बजाय मंच पर चढ़ाकर साबित करने की होड़ सी प्रतीत हो रही है, इसलिए जांच से आगे निकलते दावे और पोल खोलती दृष्टि में अनेकानेक खामियां भी पसर चुकी हैं। बेशक यह एक जिम्मेदारी भरा अवसर है और जब कल पूरे मामले के निष्कर्ष सामने आएंगे, तो मीडिया की गवाही का रंग भी उस इबारत में होगा। यह प्रशंसनीय बहस का एक पक्ष है, लेकिन अगर कहीं सीमाओं का उल्लंघन हुआ या शब्द फिसल गए होंगे, तो इस परीक्षा में कलम को अपनी ईमानदारी की मात्रा पर गौर करना पड़ेगा। हिमाचल में सोशल मीडिया की सक्रियता के जाल में सरकार की जांच का एक हिस्सा जिस तरह फंसा है या प्रतिक्रियाओं के दौर में सत्तापक्ष के ही कई नेता शामिल हुए हैं, तो असली-नकली के द्वंद्व में मीडिया खुद को एक पार्टी नहीं बना सकता। दुर्भाग्यवश मुख्य मीडिया के कुछ पात्र अपने कहे को अनकहा या अनकहे को कहा साबित करने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया का अनुसरण कर रहे हैं, इसकी हिमायत नहीं की जा सकती। अखबारों के संदर्भ अपनी मर्यादा और मुद्रण माध्यम की खासियत की वजह से आज भी श्रेष्ठ, पारंगत, परिपक्व व परिमार्जित माने जाते हैं, तो इसलिए कि यहां शब्द किसी की निजी मिलकीयत नहीं रहे। ऐसे में सोशल मीडिया के माध्यम से मुद्रण माध्यम को बेचने की कोशिश से बचना होगा, वरना आदतन कुछ कमजोरियां ओढ़ने की ऐसी संगत एक रिवायत बन सकती है। खबर और प्रचार में अगर मौलिकता व विश्वसीनयता का प्रश्न न होता तो दीवारों पर चस्पां पोस्टर भी समाचार पत्र की तरह पढे़ जाते। इसलिए समाचारों की प्रासंगिकता में सूचना स्रोत की पवित्रता व हेतु हमेशा परखे गए। हिमाचल की परिपाटी बनकर खड़े हुए मीडिया की पहचान प्रायः अखबारी माध्यम से ही रही है, इसलिए प्रकाशन की बकअत को बेअसर नहीं किया जा सकता। ऐसे में मीडिया ताप पर चढ़ी कोटखाई जांच का पटाक्षेप क्या पहले ही लिखा जा सकता है, यह दायित्व जांच एजेंसियों के सुपुर्द ही रहे तो बेहतर होगा। यह दीगर है कि कोटखाई प्रकरण के बहाने मीडिया के सामने खुद में झांकने को जो दर्पण खड़ा हुआ, वह भी जांच के बाद कुछ परछाइयों का पीछा करेगा और तब मालूम होगा कि शब्दों की बिसात पर केवल सत्य को चुनने का सतत प्रयास ही मीडिया की कशमकश है।

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