कोटखाई प्रकरण की राख पर

By: Aug 31st, 2017 12:05 am

यह तो मानना होगा कि हिमाचल की तस्वीर अनेक कारणों से बिगड़ रही है और कोटखाई जैसे प्रकरण इसका हवाला देते हुए आघात पहुंचाते हैं। चुनाव से ठीक पूर्व ऐसी घटनाएं भले ही जनादेश संग्रह की दिशा में राजनीति को टर्राने का अवसर देती हैं, लेकिन सुशासन के आधार पर किसी सरकार की समीक्षा की यही घड़ी कठोर होती है। लिहाजा सीबीआई जांच ने हिमाचल की तस्वीर पर प्रश्न तो चस्पां किए ही हैं। अदालती फैसले की स्याही और जांच की कालिख में फर्क रंग का नहीं, बल्कि नीयत का ही होगा इसलिए अब प्रदेश को अविश्वास करने का नैतिक समर्थन मिल गया। कम से कम आक्रोश की आंधी जिस प्रकार शिमला में आकर टकरा रही थी, उसके लिए सीबीआई द्वारा पिंजरे में डाली गई पुलिस एसआईटी का अर्थ जांच का सुधरना होगा। तस्वीर का एक दूसरा पक्ष भी है तथा जिस पर सरकार के पक्षधर सीधे या सोशल मीडिया के मार्फत चर्चा कर रहे हैं और यह प्रश्न उस समय तक रहेगा, जब तक कोटखाई प्रकरण की राख ठंडी नहीं होती या दुष्कर्म के दोषी पकड़े नहीं जाते। यह प्रश्न उठाना गैर वाजिब है कि सीबीआई की दिशा भटक रही है या पुलिस को लांछित करके कोई मकसद पूरा हो रहा है, लेकिन निष्कर्षों की फेहरिस्त बना लेना भी नाइनसाफी होगी। असली गुनाह तो एक बेटी के साथ पेश आई दरिंदगी है, जिसने हिमाचली तस्वीर को मैला कर दिया। यह दीगर है कि पुलिस जांच से अदालती फैसलों तक के सफर में किसी भी कानूनी परिपाटी की तस्वीर बिगड़ सकती है और इसके लिए बाकायदा रास्ते अख्तियार किए जाते हैं। विडंबना यह भी कि तमाम स्थानांतरणों की तरह पुलिस विभाग की बदलियां भी प्रश्न खड़े करती हैं। सक्षम पुलिस अधिकारी के सबूत चौराहों पर सतर्कता या अवैध धंधों पर निगरानी से मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए कांगड़ा के पूर्व पुलिस अधीक्षक संजीव गांधी ने अपने महकमे में अनुशासन व कर्त्तव्यपरायणता के दीपक जलाए, तो सामाजिक अंधेरों तक रोशनी पहुंची। युवा पीढ़ी को गुनाह के रास्ते से हटाने के लिए अगर एक एसपी शुरुआत कर सकता है, तो यह विभागीय प्राथमिकता क्यों नहीं बनती। जांच तो इस विषय की होनी चाहिए कि ईमानदार अधिकारी को क्या मौजूदा राजनीति निष्ठापूर्वक काम करने देती है या विभागीय निष्ठा को बंधक बनाया जाता है। गांधी इसका एक उदाहरण हो सकते हैं, क्योंकि नशे के खिलाफ उनकी मुहिम से एक सशक्त वर्ग परेशान रहा और अंततः सियासी दखल से कांगड़ा से इस कुशल पुलिस अधिकारी को हटा दिया गया। यानी हिमाचली तस्वीर में आ रही विकृतियां एक सोची-समझी सियासी साजिश या प्रश्रय की वजह से ही देखी जा रही हैं। यही कारण है कि जिसे हम प्रभावशाली राजनीति का अवतार मान लेते हैं, उसके कारण और उसके पीछे एक बड़ा माफिया साम्राज्य छिपा है। इसमें समाज की अभिलाषा और गिरते नौतिक मूल्यों की भागीदारी भी स्पष्ट है। जब आग हमारे घर में लगती है, तब हम जागते हैं वरना गली-मोहल्लों की सामाजिक आबरू बची ही कहां है। कोटखाई के संदर्भों में भी जो विकरालता सामने आई, उसमें समाज का अंधापन स्पष्ट है। क्या सभ्य समाज के चश्मे बदल गए या समाज, सरकार और व्यवस्था के बीच माफिया हिस्ट्री को फैलने का आधार मिल गया। अगर सीबीआई माफिया की इसी सुरंग से गुत्थियां निकालकर पुलिस के लोगों पर हाथ डाल रही है, तो नागरिक सुरक्षा की ऐसी कार्यप्रणाली पर भरोसा कौन करेगा। आश्चर्य यह कि सत्ता के करीब समाज और व्यवस्था का जो चहेता वर्ग पुरस्कृत होता है, उसके कारण माफिया ही माइबाप बन रहा है। हम जो देखना चाहते या दिखाना चाहते हैं, अगर इसी भावना से व्यवस्था चलेगी, तो समाज भी इसका एक पात्र है। कानून से सौदेबाजी अगर हमारी फितरत होगी, तो पुलिस के अधिकारी भी बिकेंगे। जब फाइल का फरेब ही हमारी सफलता की कसौटी होगा, तो अपराध की भाषा और परिभाषा में अंतर नहीं रहेगा। ऐसे में हिमाचल की मेहनत और ईमानदारी को अगर राजनीतिक कारणों से बट्टा लग रहा है, तो हम हर दिशा में राजनीति के साथ नहीं चल सकते। कठोर राज्य की परिभाषा में कानून-व्यवस्था और सुशासन की प्रणाली का स्वतंत्र व निष्पक्ष होना अनिवार्य है। क्या समाज इस तरह की व्यवस्था को प्रश्रय देगा।

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