बैंकिंग क्षेत्र की खिसकती जमीन

By: Aug 1st, 2017 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

डा. भरत झुनझुनवालाबैंक इस समय चारों तरफ से घिरे हुए हैं। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है, जिसे ऋण की जरूरत कम है। बड़े उद्योग सीधे बांड के माध्यम से पूंजी उठा रहे हैं। छोटे उद्योग पस्त हैं और इनकी ऋण लेने की क्षमता ही नहीं रह गई है। विकास दर में गिरावट आने से खपत के लिए कम ही ऋण दिए जा रहे हैं। ऊपर से सार्वजनिक बैंकों में कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है…

सर्वविदित है कि सरकारी बैंकों की हालत खस्ता है। इन्हें पुनर्जीवित करने को सरकार छोटे सार्वजनिक बैंकों का बड़े सार्वजनिक बैंकों के साथ विलय करने पर विचार कर रही है। बड़े बैंकों की कार्यकुशलता अच्छी होने से इनके द्वारा छोटे बैंकों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, लेकिन बड़े बैंकों के सामने स्वयं खतरा मंडरा रहा है। वास्तव में देश के बैंकिंग क्षेत्र का मूल चरित्र ही बदलता जा रहा है। आर्थिक संवृद्धि में अब ऋण की भूमिका ही सिकुड़ती जा रही है। 2015 में संपूर्ण बैंकिंग क्षेत्र द्वारा दिए गए ऋण में 10.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। 2016 में यह वृद्धि दर घट कर 5.1 प्रतिशत रह गई है। यानी कुल ऋण बढ़ रहे हैं, परंतु बढ़त की गति कम होती जा रही है, जैसे कार का एक्सलरेटर हल्का होता जा रहा है। इस स्थिति में स्वाभाविक है कि कमजोर बैंक दबाव में शीघ्र आएंगे जैसे अकाल के समय छोटे किसान पहले प्रभावित होते हैं। ऋण की मांग कम होने का प्रमुख कारण है कि अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है। इस क्षेत्र में सॉफ्टवेयर, होटल, ट्रांसपोर्ट, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सेवाएं आती हैं, जिनमें किसी भातैक माल जैसे कपड़े अथवा सब्जी का उत्पादन नहीं होता है। बीते पांच वर्षों में सेवा क्षेत्र में 51 प्रतिशत की ग्रोथ हुई, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में 32 प्रतिशत की। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ता जा रहा है। सेवाओं के व्यापार में ऋण की जरूरत कम पड़ती है। जैसे सॉफ्टवेयर के निर्माण में 25,000 रुपए के एक कम्प्यूटर से वर्ष मे 10-20 लाख रुपए के सॉफ्टवेयर का उत्पादन किया जा सकता है। अथवा एक कम्प्यूटर से वर्ष में लगभग तीन-चार लाख रुपए की ऑनलाइन ट्यूशन दी जा सकती है। तुलना में विनिर्माण क्षेत्र में जमीन, फैक्टरी शेड तथा मशीन में भारी निवेश की जरूरत पड़ती है। इसलिए विनिर्माण क्षेत्र के फिसलने के साथ-साथ ऋण की मांग कम होती जा रही है। हमारी बैंकिंग व्यवस्था के दबाव में आने का यह प्रमुख कारण दिखता है।

दूसरा कारण बांड मार्केट का विस्तार है। कंपनियों द्वारा वर्तमान में भारी मात्रा में बांड जारी किए जा रहे हैं। बांड जारी करने को कंपनी द्वारा अपनी प्रॉपर्टी को रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी में गिरवी रखा जाता है। गिरवी रखी गई प्रॉपर्टी के सामने कंपनी द्वारा फुटकर निवेशकों को बांड जारी किए जाते हैं। किसी विशेष स्थिति में कंपनी अगर डूब गई, तो सरकार द्वारा गिरवी प्रॉपर्टी की नीलामी करके निवेशक को उनकी रकम लौटाने की व्यवस्था रहती है। इससे खुदरा निवेशक सुरक्षित महसूस करते हैं और बांड खरीदते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनी द्वारा ब्याज की संपूर्ण रकम निवेशक को मिलती है। बैंकों के माध्यम से ऋण लेने में भी मूल रूप से यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। कंपनी द्वारा अपनी प्रॉपर्टी का बैंक के पास गिरवी रख दिया जाता है। इस प्रॉपर्टी के सामने बैंक लोन देता है। कंपनी को ऋण देने के लिए बैंक द्वारा खुदरा निवेशकों से फिक्स डिपॉजिट में रकम ली जाती है। ऋण देने वाले खुदरा निवेशक तथा ऋण लेने वाली कंपनी के बीच बैंक विचोलिए की भूमिका निभाता है। जैसे बैंक द्वारा सात प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से खुदरा निवेशक से रकम ली जाती है और 12 प्रतिशत की दर से उसी रकम से कंपनी को लोन दिया जाता है। बांड तथा बैंक दोनों ही तरह से खुदरा निवेशक द्वारा ही निवेश की गई रकम को कंपनी तक पहुंचाया जाता है। बीते समय में बांड के मार्केट का विकास हो जाने के कारण कंपनियां बांड के माध्यम से सीधे खुदरा निवेशक से ऋण ज्यादा ले रही हैं। कंपनी 10 प्रतिशत की दर से बांड जारी करती है, तो खुदरा निवेशक को 10 प्रतिशत का ब्याज मिलता है। बैंक को कमीशन नहीं मिलता है। बैंकों का धंधा मंद पड़ गया है। बीते चार वर्षों में कुल ऋण में बैंकों का हिस्सा 45 प्रतिशत से घट कर 22 प्रतिशत रह गया है, जबकि बांड का हिस्सा 22 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया है। वर्तमान समय में बैंकों के खस्ता हाल होने का यह दूसरा कारण है।

हमारे सार्वजनिक बैंकों की मूल समस्या प्रबंधन आदि की नहीं है। मूल रूप से बैंकों की जमीन ही खिसक गई है। सार्वजनिक बैंकों में इसके अतिरिक्त कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार की भी समस्या है। छोटे सार्वजनिक बैंकों का बड़े सार्वजनिक बैंकों के विलय से छोटे बैंकों में व्याप्त कुप्रबंधन की समस्या का कुछ निदान हो सकता है, परंतु बैंकों की जमीन के खिसकने से उत्पन्न मूल समस्या का समाधान विलय से हासिल नहीं हो सकता है। बांड जारी करने की प्रक्रिया पेचीदा होती है। इसे बड़ी कंपनियों द्वारा ही अपनाया जा सकता है। खुदरा निवेशकों में भरोसा बनाने के लिए भारी विज्ञापन देने होते हैं एवं रोड शो करने होते हैं। इसलिए छोटी कंपनियों को बैंकों पर ही निर्भर रहना होता है। लेकिन बीते समय में सरकार द्वारा लागू की गई नीतियों ने छोटे उद्योगों को पस्त कर दिया है। सरकार का प्रयास है कि मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं के तहत बड़ी, आधुनिक एवं आटोमेटिक मशीनों का उपयोग करने वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। फलस्वरूप छोटे उद्योगों को मिल रहा संरक्षण कम हो गया है। इसके बाद नोटबंदी के कारण इनके ग्राहक लुप्त हो गए। अब जीएसटी की जटिल व्यवस्था इनके लिए अभिशाप बन गई है। इस कारण छोटे उद्योगों द्वारा ऋण कम ही लिए जा रहे हैं। बड़े उद्योग बांड मार्केट के चलते बैंकों के हाथ से फिसल गए है। छोटे उद्योग स्वयं मृतप्राय हो रहे हैं। अतः सेवा एवं विनिर्माण दोनों क्षेत्रों में बैंकों का धंधा कमजोर पड़ रहा है। बचता है खपत का क्षेत्र, जैसे कार अथवा मकान के लिए दिए गए ऋण। यह क्षेत्र अभी भी जीवित है, परंतु देश की आर्थिक विकास दर में गिरावट आने के कारण आम आदमी की क्रय शक्ति घट रही है और यह क्षेत्र भी दबाव में है। बैंक इस समय चारों तरफ से घिरे हुए हैं। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है, जिसे ऋण की जरूरत कम है। बड़े उद्योग सीधे बांड के माध्यम से पूंजी उठा रहे हैं। छोटे उद्योग पस्त हैं और इनकी ऋण लेने की क्षमता ही नहीं रह गई है। विकास दर में गिरावट आने से खपत के लिए कम ही ऋण दिए जा रहे हैं। ऊपर से सार्वजनिक बैंकों में कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है। इस स्थिति में सरकार को दो कदम उठाने चाहिएं। छोटी विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र की इकाइयों को संरक्षण देना चाहिए। मेक इन इंडिया को छोटे उद्योगों की तरफ मोड़ना चाहिए। साथ-साथ सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। इनका डूबना निश्चित है। यह डूबे, इसके पहले इनकी बिक्री कर देनी चाहिए, जैसे चतुर दुकानदार एक्सपायरी के पहले दवा को बेच देता है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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