भारतीयों को नई सामाजिक संस्कृति की दरकार

By: Aug 11th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

प्रो. एनके सिंहहम बरसों तक गुलाम रहे और विदेशी शासकों का शोषण सहन करते रहे, अब आम लोगों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। प्राचीन हिंदू संस्कृति मूल्य आधारित थी, लेकिन सैकड़ों बरसों की विदेशी गुलामी के कारण दुर्भाग्य से इसमें विकृति आ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेटी बचाओ अभियान, सफाई अभियान के साथ-साथ मापदंड बनाने व लक्ष्य पूरे करने के साथ सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन लाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जब तक उनके पीछे चलने वाले आनाकानी करते रहेंगे, तब तक वह अकेले ही इस काम को अंजाम नहीं दे सकते…

हाल में मीडिया ने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की अनुसंधान रपट देते हुए खबर दी कि भारतीय विश्व भर में सबसे सुस्त लोग हैं। जब मैं बहुत सारे दोपहिया चालकों को बिना हेल्मेट के गाड़ी चलाते देखता हूं तो मुझे भी लगता है कि ऐसा गरीबी के कारण नहीं, बल्कि लापरवाही व सुस्ती के कारण होता है। मैं अकसर देखता हूं कि कई छोटे कस्बों में कई बस व ट्रक चालक सुरक्षा मानकों व जनता की सुविधा को धत्ता बताते हुए बीच सड़क में बतियाते रहते हैं। वे अपने साथियों से बातचीत करने के लिए इंतजार करने तथा गाड़ी को साइड में लगाने से कतराते हैं। वे सड़क के बीचोंबीच ऐसा करते हैं और अन्य लोगों को पास लेने से रोकते हैं। ऐसा करने वाले अकसर बड़े वाहनों को चला रहे होते हैं और अन्य लोग कुछ नहीं कर पाते। ऐसे कृत्य चुनौती देने योग्य होने चाहिएं। यह भी अकसर देखा जाता है कि लड़के बाइक पर लड़कियों का पीछा कर रहे होते हैं और एक बाइक पर चार-चार लोग सवार होते हैं। उक्त यूनिवर्सिटी का अध्ययन, अगर हम पूरा ब्यौरा खंगालें, हालांकि चुनौती योग्य है, पर इस समय यह बेहतर होगा कि हम अपनी उन कमजोरियों को समझें जो हमें तुलनात्मक परिदृश्य में नीचे लाती हैं। सामाजिक संस्कृति से काफी कुछ फर्क पड़ता है कि हम लोगों के बीच किस तरह काम करते हैं, हम एक-दूसरे को कैसे आदर देते हैं और कैसे हम विविन्न दायित्वों का निर्वहन करते हैं। कुछ विशेषज्ञ इसे समाज का लोकाचार मानते हैं।

चाहे राजनीति का क्षेत्र हो या शिक्षा, उद्योग या कोई अन्य संस्थागत जीवन का क्षेत्र, हमारे परंपराओं को सम्मान देने तथा मापदंडों को मानने के अलग-अलग तरीके होते हैं जिन पर सवाल उठ रहे हैं। सबसे पहले हम परिवार को लेते हैं जो कि आधारभूत इकाई है और जहां संस्कृति के बीज बोए जाते हैं। मेरी पत्नी स्पष्ट रूप से मेरे ध्यान में लाती हैं कि किस तरह पाकिस्तानी मुस्लिम परिवार देश के भीतर भी और बाहर भी एक-दूसरे को संबोधित करते समय अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। जनाब, इंशा अल्लाह, आप, तसलीम और सलाम इतने आम शब्द हैं, जिनसे लगता है कि वे बहुत अच्छे व्यवहार वाले लोग हैं। यह एक धर्म का हिस्सा हो सकता है, आधार चाहे कुछ भी हो, यह प्रशंसा योग्य है। विनम्रता और सहृदयता के मोर्चे पर पाकिस्तानियों को केवल जापानी लोग चुनौती देते लगते हैं। जहां तक भारत का संबंध है, यहां तो गुड मॉर्निंग भी अब मात्र ‘हाय’ हो गया है। कई ऐसे धर्म हैं जहां अब भी अपने से बड़ों का आदर होता है और पांव छूकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। लेकिन इस तरह के सलीकों का तेजी से पतन हो रहा है। पश्चिमी देशों में आज्ञापालन व सम्मान देना आम बात है, जबकि भारत में अगर एक लिफ्ट में दो या तीन लोग चल रहे हों तो वे एक-दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते तथा वे एक-दूसरे को सलाम तक भी नहीं कहते। मैंने फ्रांसीसी भाषी देशों में देखा है कि लोग एक-दूसरे के लिए अजनबी होते हुए भी आपस में सम्मान सूचकों का प्रयोग करते हैं। लेकिन यह आनंददायी और सामाजिक अंतरक्रियात्मक व्यवहार है। सबसे खट्टा अनुभव तब होता है जब भारत के सरकारी कार्यालयों में कोई जाता है।  हमारी सरकारी संस्कृति आम तौर पर शत्रुता वाली होती है, मानो आप उनके काम में दखल दे रहे हैं।

यहां पर हालत यह है कि प्रधानमंत्री तक को सरकारी कर्मचारियों को समझाना पड़ता है कि वे सभ्य बनें, हालांकि इसका असर भी बहुत कम होता है। यहां सरकारी कर्मचारियों में अहंकार, उत्कृष्टता का भाव व हेकड़ी चलाने की जिद ज्यादा है जिसके कारण उनमें तथा उनके पास काम कराने के लिए आने वाले आम लोगों में एक दीवार सी खड़ी हो जाती है। उपनिवेशवादी समय में भी यही संस्कृति थी, लेकिन आजाद देश में सरकारी कर्मचारियों और यहां तक कि मंत्रियों तक आम लोगों की पहुंच आसान होनी चाहिए। जब मैं सरकारी नौकरी करता था तो मैं समय मिलते ही अपने पूरे कार्यालय में घूमता था, अपने कनिष्ठ अधिकारियों से मिलता था और उनसे काम की प्रगति तथा नए विचारों पर विमर्श करता था। एक बार मेरा एक निदेशक मेरे पास आया और कहने लगा कि निचले स्तर के कर्मचारियों के साथ वार्तालाप के कारण उत्कृष्टता का सत्तात्मक भाव खत्म हो जाएगा। मैंने उसे और अन्य लोगों को समझाया कि मानव होने के नाते उनकी भी देखभाल होनी चाहिए। इसके अलावा अगर मैं उनके विचारों पर कार्रवाई करता हूं और इससे विभाग को कोई चिंता होती है तो मैं उस विचार को स्वीकार या रद्द करने से पहले उसके मुखिया से भी बात करूंगा। उपनिवेशवादी संस्कृति का अब खात्मा हो जाना चाहिए तथा उसकी जगह सहभागिता वाली सामाजिक संस्कृति का प्रसार होना चाहिए।

परिवार या समाज में हमें उन लोगों की चिंता करनी चाहिए जिन्हें हमसे मिलने का अवसर नहीं मिल पाता। ऐसा करके ही एक नेता अथवा उच्च स्तर के प्रबंधक को स्थिति की पूरी जानकारी मिल पाएगी और वह निचले स्तर के प्रबंधकों पर निर्भर नहीं रहेगा। सरकारी नौकरी के दौरान मेरी कार्यशैली ऐसी ही रही तथा बाद में कुछ लेखकों ने इसी पर आचरण करते हुए किताब लिखी-मैनेजमेंट बाई मूविंग एराउंड अर्थात एमबीएम। हमारी सामाजिक संस्कृति में खुलापन होना चाहिए। हमें आम लोगों के लिए अविश्वसनीय व अजनबी बनकर नहीं रहना है। हम बरसों तक गुलाम रहे और विदेशी शासकों का शोषण सहन करते रहे, अब आम लोगों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। प्राचीन हिंदू संस्कृति मूल्य आधारित थी, लेकिन सैकड़ों बरसों की विदेशी गुलामी के कारण दुर्भाग्य से इसमें विकृति आ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेटी बचाओ अभियान, सफाई अभियान के साथ-साथ मापदंड बनाने व लक्ष्य पूरे करने के साथ सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन लाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जब तक उनके पीछे चलने वाले आनाकानी करते रहेंगे, तब तक वह अकेले ही इस काम को अंजाम नहीं दे सकते। सभी देशवासियों को एक बेहतर सामाजिक व कार्य संस्कृति बनाने के लिए प्रयास करना होगा।

बस स्टैंड

पहला यात्री : आम तौर पर लड़के लड़कियों का पीछा करते हैं, परंतु एक दिन लड़कों के पीछे लड़कियां क्यों दौड़ रही थीं।

दूसरा यात्री : क्योंकि उस दिन रक्षाबंधन था।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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