हिंदू बनाम मुस्लिम त्योहार

By: Aug 26th, 2017 12:02 am

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी घोर सांप्रदायिक हैं। वैसे वह संघ-भाजपा पर सांप्रदायिकता और विभाजनकारी होने का आरोप लगाकर अपनी सियासत करती रही हैं, लेकिन एक बार फिर त्योहारों के जरिए उन्होंने हिंदू बनाम मुसलमान का माहौल बनाने की कोशिश की है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आदेश है चूंकि पहली अक्तूबर को विजयदशमी और मुहर्रम के त्योहार एक साथ पड़ रहे हैं, लिहाजा दुर्गा विसर्जन 2, 3, 4 अक्तूबर को कभी भी मना लिया जाए, लेकिन पहली अक्तूबर को मुहर्रम अमन-चैन के साथ मनाने दिया जाए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 1982 में भी दोनों त्योहार एक ही दिन थे और हिंदू-मुसलमानों ने बेतनाव अपने-अपने त्योहार मनाए थे। कई बार ऐसा हुआ है कि होली के दिन ईद भी आ गई है, तो दोनों त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाए गए। अब मुंबई में गणपति उत्सव की शुरुआत हो रही है, तो बीच में ईद भी आ सकती है। धर्मनिरपेक्ष भारत की यही खूबी है कि वह आपसी सौहार्द के साथ धार्मिक आयोजन करता रहा है। नास्तिक माने जाने वाले वामपंथियों ने भी कोई दखल नहीं दिया था और त्योहारों को लेकर सांप्रदायिक तनाव पैदा नहीं हुआ था। अब ममता सरकार ने संभावित तनाव के मद्देनजर मुहर्रम की इजाजत दी है और हिंदुओं की अस्मिता, आस्था और पूजा-पद्धति पर पाबंदी का प्रहार करके हालात को सांप्रदायिक बना दिया है। सवाल है कि यदि लाखों हिंदू भी दुर्गा विसर्जन और विजयदशमी के लिए सड़कों पर उतर आए, तो क्या सरकार कानून-व्यवस्था पर काबू पा सकेगी? क्या सरकार हिंदू-मुस्लिम के हालातजन्य तनाव को दबा सकेगी? हमने ममता बनर्जी को घोर सांप्रदायिक इसलिए कहा है, क्योंकि बीते साल भी रामनवमी और हनुमान जयंती पर संघ से जुड़े संगठनों के जुलूस निकालने पर पाबंदी चस्पां की गई थी। मामला हाई कोर्ट गया। जस्टिस दीपांकर दत्ता ने न केवल ममता सरकार को फटकार लगाई थी, बल्कि इसे एक समुदाय का तुष्टिकरण करार दिया था। एक बार फिर मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। बंगाल में करीब 28 फीसदी मुसलमानों को एक पुख्ता वोट बैंक माना जाता है। तृणमूल कांग्रेस की ओर से एक अनुमान प्रचारित किया जा रहा है चूंकि बीते चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक ने ममता के पक्ष में मतदान किया था, लिहाजा मुख्यमंत्री मुसलमानों को खुश करने के दबाव में रहती हैं। ममता सरकार ने मुसलमानों के लिए 500 करोड़ रुपए की योजनाओं की घोषणा की। 2012 में इमामों को 2500 रुपए प्रति माह देना तय किया। मुस्लिम युवाओं को लैपटॉप और साइकिल दिए गए। सवाल है कि वह मुख्यमंत्री तो सभी समुदायों की हैं, तो फिर हिंदुओं को लैपटॉप और साइकिल क्यों नहीं दिए गए? इंजीनियरिंग की परीक्षा मुसलमानों के लिए फ्री की गई। लेकिन मुसलमानों ने सत्ता के यथार्थ नहीं देखे। बंगाल में 28 फीसदी वोट बैंक वाली आबादी को सरकारी नौकरियों में मात्र दो फीसदी हिस्सेदारी मिली है। उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, लेकिन करीब 19 फीसदी आबादी की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी मात्र दो फीसदी है, जबकि गुजरात में मुसलमान करीब 7.5 फीसदी हैं, लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी करीब आठ फीसदी है। मुसलमानों को समझ क्यों नहीं आता कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उनका इस्तेमाल ही होता रहा है? मुस्लिम यह भी देखें कि बंगाल में उनकी साक्षरता दर कितनी है? प्रति व्यक्ति आय क्या है? हिंदू और मुस्लिम त्योहार एक ही दिन आने से कभी फसाद नहीं हुए, अलबत्ता मुहर्रम पर अकसर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच तनाव देखा जाता रहा है। तो ममता बनर्जी क्या साबित करना चाहती हैं? तनाव हिंदू-मुसलमानों में नहीं, जितना ममता बनर्जी पैदा कर रही हैं। मुख्यमंत्री दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक खाइयां खोदने का काम नहीं किया करते। ममता सरकार ने भाजपा को भी आग-बबूला कर दिया है। चूंकि बीते कुछ अरसे से भाजपा बंगाल में राजनीतिक आधार बनाने की कोशिशें कर रही है, कुछ कामयाबी भी मिली है, लेकिन राजनीति को क्षुद्र सांप्रदायिकता से संचालित करना समाज विरोधी और मानवता विरोधी कर्म हैं। ममता को आत्ममंथन करना चाहिए कि वह खुद भी ‘हिंदू’ हैं। क्या चुनाव में वोट हासिल करना ही राजनीति है? क्या धर्मनिरपेक्षता के मायने मुसलमानों से ही हैं? क्या हमारा देश वाकई धर्मनिरपेक्ष है? इन सवालों पर विमर्श तो जरूर जारी होगा, लेकिन ममता बनर्जी की आंख कब खुलेगी?

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