आध्यात्मिक ज्ञान

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

बाह्या इंद्रियां शरीर के विभिन्न भागों में स्थित दृश्य अंग हैं, अंतःइंद्रियां अस्पृश्य हैं। हमारे नेत्र, कान, नाक आदि बाह्या हैं  और उनसे संगत अंतःइंद्रियां हैं। हम निरंतर इंद्रियों के इन दोनों वर्गों के संकेतों पर नाचते हैं। इंद्रियों के समानुरूपी इंद्रिय विषय हैं। यदि कोई इंद्रिय विषय निकट होते हैं, तो इंद्रियां हमें उनका अनुभव करने को विवश करती हैं, हमारी कोई इच्छा अथवा स्वतंत्रता नहीं होती। यह एक बड़ी नाक है और वहां तनिक भी सुगंध है तो मुझे वह सूंघनी पड़ती है। यदि गंध बुरी होती, तो मैं अपने से कहता, इसे मत सूंघो पर प्रकृति कहती है ‘सूंघ’, और मैं सूंघता हूं। तनिक सोचो तो, हम क्या हो गए हैं। हमने अपने को बांध लिया है। मेरी आंखें हैं, कुछ भी हो रहा हो, अच्छा या बुरा, मुझे देखना होगा। सुनने के साथ भी यही बात है। यदि कोई मुझसे बुरी तरह बोलता है, तो वह मुझे सुनना होगा। मेरी श्रवणेइंद्रिय मुझे यह करने को बाध्य करती हैं और मुझे कितना दुख अनुभव होता है। निंदा अथवा प्रशंसा मनुष्य को सुननी पड़ेगी। मैंने बहुत से बहरे मनुष्य देखें हैं, जो आमतौर पर नहीं सुन पाते, पर यदि बात उनके बारे में होती है, तो वह सदा सुन लेते हैं! ये सब इंद्रियां  अंतः और बाह्या, शिष्य के नियंत्रण में होनी चाहिए। कठिन अभ्यास के द्वारा उसे ऐसी अवस्था में पहुंच जाना चाहिए, जहां वह अपने मन द्वारा इंद्रियों का, प्रकृति के आदेशों का, सफल विरोध कर सके। वह अपने मन से यह कह सकें ‘तुम मेरे हो, मैं तुम्हें कुछ न देखने की अथवा न सुनने की आज्ञा देता हूं’ और मन न कुछ देखे, न कुछ सुने। मन पर किसी रूप अथवा ध्वनि की प्रतिक्रिया न हो। इस अवस्था में मन इंद्रियों के अधिकार से मुक्त हो चुका होता है, उनसे अलग हो चुका होता है। अब वह इंद्रियों और शरीर से आबद्ध नहीं रहता। बाह्य वस्तुएं अब मन को आज्ञा नहीं दे सकती। मन अपने को उनसे जोड़ना स्वीकार नहीं करता। वहां सुंदर गंध है। शिष्य मन से कहता है, मत सूंघो और मन गंध का अनुभव नहीं करता। जब तुम ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हो, तभी तुम शिष्य बनना आरंभ करते हो। इसीलिए जब प्रत्येक मनुष्य कहता है, ‘मैं सत्य को जानता हूं।’ तो मैं कहता हूं। यदि तुम सत्य हो जानते हो, तो तुममें आत्म नियंत्रण होना चाहिए और यदि तुममें आत्म नियंत्रण है, तो उसे इन इंद्रियों के नियंत्रण के रूप में प्रकट करो। इसके बाद मन को शांत करना चाहिए। वह इधर-उधर भटकता रहता है जब मैं ध्यान के लिए बैठता हूं। तो मन में संसार के सब बुरे से बुरे विषय उभर आते हैं। मतली आने लगती है। मन ऐसे विचारों को क्यों सोचता है, जिन्हें मैं नहीं चाहता कि वह सोचे? मैं मानो मन का दास हूं। जब तक मन चंचल है और वश से बाहर है, तब तक कोई आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है। शिष्य को मनोनिग्रह सीखना है। हां, मन का कार्य सोचना है। पर यदि शिष्य नहीं चाहता, तो उसे सोचना नहीं चाहिए, जब वह आशा दे, तो सोचना बंद कर देना चाहिए। शिष्यता का अधिकारी बनने के लिए मन की यह स्थिति बहुत आवश्यक है और शिष्य की सहनशक्ति भी महान होनी चाहिए।


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