छद्म धर्मनिरपेक्षता ने जनता से दूर किए विवेकानंद

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

कुछ तिथियां इतनी महत्वपूर्ण  बन जाती हैं कि वह आगे आने वाले समाज को न सिर्फ निरंतर प्रभावित करती रहती हैं, बल्कि आत्म अवलोकन एवं आत्मनिरीक्षण करते हुए मानवता के प्रति अपने दायित्वों का भी  बोध कराती रहती हैं। 11 सितंबर कुछ उन्हीं विशिष्ट तिथियों में से एक है। सन् 1893 में इसी दिन स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन में अपना ऐतिहासिक वक्तव्य दिया था। इस भाषण ने देश, राष्ट्र व समाज की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। इसने भारत की मिथ्या संकल्पना, जो पश्चिम ने गढ़ रखी थी, को अचानक तोड़ दिया। इस भाषण की प्रासंगिकता आज भी हम सबके लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी उस काल खंड के लोगों के लिए थी। विवेकानंद के इस दिन के भाषण ने भारतीय ज्ञान को  न सिर्फ  वैश्विक स्वीकार्यता दिलवाई, बल्कि उसे सर्वोत्तम ज्ञान परंपरा के रूप में स्थापित करने का भी प्रयास किया। इसका मुख्य आधार सहिष्णुता थी, किंतु समय के साथ भारत ने विवेकानंद को सिर्फ  तस्वीरों में ही कैद करने का प्रयास किया है। आजादी के पश्चात देश ने छद्म धर्मनिरपेक्षता के कारण न सिर्फ  विवेकानंद के विचारों से जनमानस को दूर किया है,  बल्कि अपने ज्ञान को भी पश्चिम के हवाले करने का काम किया है। सत्य को क्षणिक दबाया जा सकता है, परंतु समाप्त नहीं किया जा सकता। प्रखर वाणी व ओजस्वी चिंतन के कारण आध्यात्मिक क्षेत्र के नेपोलियन एवं विश्वात्मा की अनुपम संगीत रचना के रूप में विख्यात संन्यासी विवेकानंद का अमरीका दौरा व्यापक चुनौतीपूर्ण रहा था। परंतु भारतीय ज्ञान पर अटूट व अटल विश्वास ने उन्हें अंतिम सिद्धि तक पहुंचा दिया। उनकी यात्रा के शुरुआत से लेकर संबोधन तक का विवरण सही अर्थों में व्यापक संदर्भपूर्ण ज्ञात होता है। उनका संघर्ष न सिर्फ  भौतिक था, वरन मानसिक एवं मीमांसिक भी था। विवेकानंद को इस सम्मेलन में जाने से पूर्व न कोई औपचारिक आमंत्रण था, न ही सही तरीके से प्रतिभागी होने की शर्तें थीं। सिर्फ  इतना ही सुना था कि अमरीका में किसी दिन किसी समय किसी स्थान पर एक सर्वधर्म सम्मेलन होने जा रहा है। बस मन की इच्छा को साकार करने का निश्चय कर लिया। मन में यह विश्वास था कि सही समय पर वहां उपस्थित होने पर सभी कार्य स्वयं सिद्ध हो जाएंगे।  खेतड़ी नरेश के द्वारा जहाज की टिकट और काफी जिद के बाद एक अंगरखा के साथ विवेकानंद  31 मई 1893 को मुंबई से अमरीका के लिए रवाना हुए। श्रीलंका-जापान होते हुए वह मध्य जुलाई में बदहवास स्थिति में शिकागो पहुंचे। शिकागो शहर के औद्योगिक दृश्यों से साक्षात्कार हुआ तो शुरुआत में उन्हें व्यापक लुभावना लगा, किंतु समय के साथ जब उन्होंने अमरीका के समाज को करीब से देखना शुरू किया तो क्षुब्ध रह गए। उन्हें लगा कि किस प्रकार पश्चिम का समाज भौतिक लालसा में आंतरिक रूप से क्षत-विक्षत हो चुका है। जब उन्हें मालूम हुआ कि धर्म सम्मेलन के लिए पंजीकरण की अवधि समाप्त हो चुकी है तथा सम्मेलन की तिथि 11  सितंबर है तो उन्हें आघात पहुंचा। किंतु प्रकृति ही जब विश्व समाज को उनके ज्ञान का दर्शन करवाना चाहती हो तो फिर समस्या किस बात की। सभी मसले सुलझा लिए गए।  विवेकानंद ने अपने भाषण में हिंदू धर्म एवं भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता को अपना मुख्य आधार बनाया। उनके अनुसार यही सबसे प्रमुख गुण है जिस कारण से भारतीय सभ्यता अभी तक चली आ रही है। किंतु वर्तमान समय में विभिन्न संकुचित वैचारिक मानसिकता  वाले लोगों ने भारतीय समाज को ऐतिहासिक रूप से असहिष्णु घोषित करने का बीड़ा उठा लिया है जिसका व्यापक एवं वैचारिक प्रत्युत्तर इस भाषण में मिलता है। विवेकानंद ने अपने इस भाषण के शुरुआती वक्तव्य में सभी धर्मों के लोगों को संबोधित करते हुए उन वक्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया जिन्होंने यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूर्व के देशों से, मुख्यतः भारत से फैला है। अर्थात अंग्रेजों के राज में जब भारत गुलामी की जंजीरों में बंधा था, भारतीय समाज ने अपने मूल गुण असहिष्णुता को सहेज कर रखा हुआ था। विवेकानंद ने आगे कहा कि मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का मंत्र सिखाया है। भारत न सिर्फ  सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखता है, बल्कि विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में भी स्वीकार करता रहा है। अपने भाषण को तर्क प्रदान करते हुए उन्होंने कहा कि मैं एक ऐसे देश से हूं जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों को परेशान किए बिना सभी लोगों को शरण दी है। सहिष्णुता के तर्क को उस काल खंड में विश्व ने तो  स्वीकार कर लिया, किंतु समय के साथ हम स्वयं ही भूल गए हैं। यही कारण है कि आज इस देश के ही कई तथाकथित बुद्धिजीवी एवं राजनीतिक दल भारत के आधारभूत मूल्यों पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।

-अनुराग ठाकुर, लोकसभा सांसद


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