एक विशेष मानसिक गढ़न की जरूरत

By: Oct 22nd, 2017 12:05 am

लिखना, अक्षर-अक्षर जुगनू बटोरना और सूरज के समकक्ष खड़े होने का हौसला पा लेना, इस हौसले की जरूरत औरत को इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसे निरंतर सभ्यता, संस्कृति, समाज और घर-परिवार के मनोनीत खांचों में समाने की चेष्टा करनी होती है। कुम्हार के चाक पर चढ़े बर्तन की तरह, कट-कट कर तथा छिल-छिल कर, सुंदर व उपयोगी रूपाकार गढ़ना होता है। इसके बावजूद वह अपने लिए पर्याप्त जगह बना ले और अपने हक में फैसला लेकर, रोने-बिसुरने या मनुहार करने की अपेक्षा उस पर अडिग रह सके। इसके लिए अध्ययन और लेखन एक मजबूत संबल, माध्यम हो सकता है। यदि वह स्वतंत्र चेता होकर, निर्णायक की भूमिका में आना चाहे…..यद्यपि पहाड़ की कुछ अपनी (भीतरी व बाहरी) मुश्किलें व दुष्चिंताएं हैं। इसके बाद भी यह अत्यंत सुखद है कि हिमाचल में, महिला लेखन की सशक्त परंपरा रही है जिसका सतत् निर्वाह हो रहा है। इन रचनाधर्मी महिलाओं की रचना प्रक्रिया को समझने के प्रयास में कुछ विचार बिंदु इनके सम्मुख रखे हैं। इस अनुरोध सहित कि कुछ ऐसा जो इन बिदुंओं तक नहीं सिमटता हो, वे वह भी कहें। संक्षिप्त परिचय व तस्वीर के साथ।…‘तुम कहोगी नहीं तो कोई सुनेगा नहीं। सुनेगा नहीं तो जानेगा नहीं और निदान इसी में कि कोई सुने, तुम कहती क्या हो/ कोई जाने/ तुम सहती क्या हो…

यह सही है कि अस्तित्व अर्थात व्यक्ति का होना पहले आता है और मूल्य बाद में। यह केवल अस्तित्ववादी विचारकों ने ही नहीं कहा है। विशुद्ध अद्वैतवादी भक्त कवि सूरदास भी कहते हैं-‘भूखे भजन न होय गोपाला। यह ले अपनी लकुटी माला।’ परंतु यह भी सत्य है कि अस्तित्व के रहते, मूल्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। आदमी यदि जानवर से कुछ आगे रहकर जीना चाहता है, तो इसके लिए एक विशेष मानसिक गढ़न की जरूरत है। यह गढ़न, अनुभव, अध्ययन व मनन से निर्मित होती है, जो चेतना की धार को निरंतर पैना करती है। आज के समय में आधुनिक तकनीकी माध्यमों, साधनों ने बेशुमार सूचनाएं उपलब्ध करवाई हैं। पल-पल अभिरुचि के अनुरूप मनोरंजन दिया है। ज्ञान के स्रोत मुहैया करवाए हैं, परंतु कुछ दृढ़चित्त, विश्वासों पर अडिग लोग ही इसका सही लाभ उठा पा रहे हैं। अधिकांश इनकी गिरफ्त में आकर व्यसनी हो रहे हैं। अपने सामान्य स्वरूप से विलगते हुए मुद्रित शब्द माध्यम  को गौण करते हुए, पढ़ने-पढ़ाने और मौलिक चिंतन व अभिव्यक्ति को इन माध्यमों ने महत्त्वहीन कर दिया है। इन दिनों लोग पढ़ते कम हैं। देखते व सुनते ज्यादा हैं। एक शोर में तैरते हुए। इसी शोर से निसृत शब्द जुबान पर रहते हैं और विचार दिमाग में घर करते जाते हैं। कितने-कितने और कैसे-कैसे बहुरंगी मुखौटे चित्रांकित होते हैं इसमें। असहमति के अंदेशे मात्र पर, बारूद के गोले की तरह जो दाग दिए जाते हैं हर बार और सोच की उर्वरा जमीन, बंजर होकर धुआं हो जाती है। जिसके पीछे धुंधलाए से परछाईं हुए लोग, किसी भी महत्त्वपूर्ण फैसले के पहले या बाद की हाजिरी के काबिल नहीं रह जाते। यह केवल तकनीकी क्रांति मात्र नहीं है। तयशुदा योजना के अंतर्गत इसका इस्तेमाल अपनी जरूरत के अनुरूप खिलौने गढ़ने के लिए हो रहा है। सामान्य जन को अलंस मानसिक निष्क्रियता के चक्रव्यूह में घेरे रखने के लिए। …. व्यवस्था क्यों चाहेगी कि आप पढ़ें। उनके पास वर्षों से आजमाया हुआ तरीका और सुनिश्चित पद्धति है, अपनी सत्ता व अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए। विशेष लोगों के हित तो उनके अपने हितों से भी पहले आते हैं। सामान्य रियाया अर्थात दलितों, किसानों और स्त्रियों को उस ज्ञान से वंचित रखना जो उनमें सही व गलत की समझ पैदा करे। अपने हक के प्रति सचेत करे। ….बाजार क्यों अनुमति दे कि आप घंटों पढ़ें। पढ़ते-पढ़ते कभी जैनेंद्र का बाजार दर्शन पढ़ लें और जान जाएं कि जिसका मन जितना खाली होगा, उतना ही वह खरीददारी ज्यादा करेगा। मन भरा हो तो घर भरने की इच्छा नहीं रहती। …. धर्माधिकारियों को तो दिमागी कंगाली सबसे ज्यादा भाती है। यह मानसिक दीवालियापन ही तो भीड़तंत्र का हिस्सा होने की अनिवार्य योग्यता है, जो वर्तमान का खतरनाक विध्वंसक अस्त्र है, परंतु सत्ता, धर्म व बाजार का हथियार भी हो रहा है। भीड़ उछाल रही है पत्थर और लहूलुहान भी/भीड़ ही हो रही है। ….इसलिए यह संकट किताबों का नहीं, बल्कि आदमी के निरंतर आगे बढ़ने की संभावनाओं पर मंडराता भयावह खतरा है। … कहानी लेखन के क्षेत्र में पहचान बना चुकी, तारा नेगी के स्वभाव में पहाड़ी परिवेश की दृढ़ता व स्वच्छता है। उनके अनुसार अच्छी रचना के लिए छटपटाहट सदैव बनी रहती है। कोई हमें पढ़ता है, यह प्रोत्साहित करता है। उन्हें लगता है कि कई बार वह कहना, कुछ चाहती है, पर कह कुछ जाती हैं, जिससे उन्हें कोफ्त होती है, क्योंकि कथनी और करनी का सामंजस्य उनका लक्ष्य है। जहां यह समरसता है, वहां दबाव या तनाव नहीं होता। … वह चाहती हैं कि मानव मात्र के सरोकार सांझे हों। कुल्वी हिमाचली में उनका कहानी संग्रह, हिमाचली साहित्य में विशेष योगदान है… कविता व गद्य के अतिरिक्त साहित्यकार कलाकार विवरणिका, शब्दावली विश्वकोष तथा समकालीन कविता कोष में सार्थक योगदान देते हुए संगीता श्री ने, प्रचलित परिवेशगत मुहावरों व लोकोक्तियों की अर्थवतत्ता को सामयिक सदंर्भों में आंकने का सराहनीय प्रयास भी किया है। उनके अनुसार, एक नदी सी स्वयं को दो किनारों में नियंत्रित करके भी, स्त्री सतत प्रवाहमान रहने की क्षमता रखती है। वह कहती हैं कि यथार्थ चित्रण लेखन का अनिवार्य धर्म है, जो समाज को सचेत व आधुनिक बोध से संपन्न रखता है। साहित्य में, चार कविता संग्रह तथा गद्य लेखन से उन्होंने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज की है…विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध प्रियवंदा ने कविता के साथ-साथ समीक्षा के क्षेत्र में भी रचनात्मक हस्तक्षेप किया है। उनके अनुसार, महिला लेखन, दबाव और विरोध की प्रतिकूल स्थिति में सैलाब बनकर सृष्टि को आप्लावित कर देता है। अन्याय उसे अत्यंत जुझारू तथा विद्रोही की भूमिका में ला खड़ा करता है। किताबें उनके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साथी हैं, जिनसे वह दुख बांटती और समाधान पाती हैं…किताबों के पन्नों पर अक्षर नहीं, मोती चमकते हैं। नुस्खे, तन-मन को तनी हुई प्रत्यंचा के समान साधे रखने में सक्षम। कितनों के हिस्से में ये ‘शब्द’/पर हर एक के लिए समूचे, समग्र और सहस्त्र बाहू वरदहस्त। …. और एक कविता : खुशी। खुश हो जाती हूं जब निपट जाता है दिन भर का झाड़ना-बुहारना/चौका-बर्तन उघाड़ना-संगेतना/एक दो मेहमान भी आएं/और मैं बाजार की मटरी या कुछ मीठा पका कर/इलायची-अदरक मौसम के अनुरूप/कुछ जमा जोड़ करके चाय के संग परोस दूं/पर संतोष से अधिक एक खुशी भोगते/अंग-अंग निंदियाती उमंग से भर। भरपूर मीठी नींद लेती हूं, उस रात/जब इस सुबह से सांझ के बीच पढ़ पाती हूं कुछ पन्ने/लिख लेती हूं कुछ पंक्तियां या दोहरा ही लेती हूं/पुराना पढ़ा हुआ/लिखा हुआ कोई गीत कोई कहानी/जिस पढ़े-लिखे और दोहराए हुए में/गली नुक्कड़ से लेकर दूर-दूर की बस्तियां मकान/मेरे चिरपरिचित आकारों में ढलने लगते हैं/और उनमें रहने वालों के चेहरे/मेरे अपनों के चेहरों पर मढ़ जाते हैं/हठीली जिद पकड़े कि हम तो यहीं रहेंगे…..।

-चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला


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