गांधी को भूलते विश्वविद्यालय !

By: Oct 2nd, 2017 12:05 am

आज एक बार फिर गांधी जयंती है। इस बार तो देश स्वच्छता को लेकर राष्ट्रीय अभियान के मूड में है। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान का असर लोगों पर दिखाई दे रहा है। कमोबेश सफाई पर एक मानस तो बन रहा है। हालांकि सौ फीसदी बदलाव कब तक होगा, फिलहाल कहना कठिन है। भारत के संदर्भ में इतना ही काफी है कि लोग सफाई की महत्ता समझने लगे हैं। गंदगी से 15 जानलेवा बीमारियां फूटती हैं, यह भी एहसास होने लगा है, लेकिन गांधी ने स्वच्छता के साथ-साथ संयम, शुचिता, अनुशासन का पाठ भी पढ़ाया था, जो धीरे-धीरे विस्मृत होता जा रहा है। कमोबेश हमारे विश्वविद्यालयों पर तो ये मानवीय गुण लागू ही नहीं होते। विश्वविद्यालय परिसर में अराजकता, सुलगन, आंदोलन और सुरक्षाकर्मियों पर ही पलटवार की घटनाएं सिर्फ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं हैं। इन विश्वविद्यालयों की घटनाओं ने उग्र रूप धारण कर लिया, लिहाजा वे सुर्खियां बन गए। अलबत्ता सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित इलाहाबाद विश्वविद्यालय बीते पांच सालों से सुलग रहा है। छात्रों और प्रशासन के बीच संघर्ष जारी है। नतीजतन परीक्षाएं देर से हो रही हैं, नए प्रवेश भी मुश्किल से हो रहे हैं, आरोपों का दौर जारी है, लेकिन अभी ऐसी कोई घटना नहीं हुई है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी सुर्खियां बटोर सके। दरअसल यह संक्रमण और बदलाव का दौर है, लिहाजा कमोबेश सभी विश्वविद्यालय तनाव और संघर्ष में घिरे हैं। बुनियादी कारण यह है कि अब कैंपस में एक्टिविज्म का दौर है। विश्वविद्यालय परिसर में आने वाला औसत छात्र एक निश्चित विचारधारा और राजनीतिक संबद्धता के साथ आ रहा है। उसने कई छात्रों को कालांतर में राष्ट्रीय नेता बनते देखा है, लिहाजा नई पीढ़ी का छात्र भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के साथ कैंपस में आता है। उदाहरण के तौर पर जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का ही मामला गौरतलब है। वह आज बिहार में लालू यादव की गोद में बैठा है। देश भर में वामदलों का वह युवा चेहरा बन गया है, क्योंकि अब वह उनके मंचों पर मौजूद रहता है और जनता को संबोधित भी करता है। कांग्रेस ने भी उस युवा, तेज-तर्रार चेहरे को तोड़ना चाहा था, लेकिन संभव न हो सका। यही नहीं, पत्रकारों की नृशंस हत्याओं के मुद्दे पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया सरीखे मंच से भी कन्हैया ने संबोधित किया था। उसकी पीएचडी का क्या हुआ? आज यह सवाल नेपथ्य में है, लेकिन कन्हैया जिस मुकाम पर पहुंचना चाहता था, वह उसे हासिल हो चुका है। अलबत्ता राजनीति की पगडंडियां बेहद टेढ़ी-मेढ़ी और मारक होती हैं। कन्हैया के दौर में जेएनयू में अफजल गुरू सरीखे आतंकवादी की बरसी मनाई गई थी। छात्रों का वह कथित वामपंथी जमावड़ा अफजल को आतंकी नहीं मानता और उसे फांसी पर लटकाने का दोष केंद्र की यूपीए सरकार पर ही चस्पां करता है। उस जमावड़े ने ‘कश्मीर की आजादी’ तक के नारे लगाए थे, लिहाजा कन्हैया समेत कुछ छात्रों को देशद्रोह की कानूनी धाराओं के तहत जेल में भी डाला गया था। यह दीगर है कि केस अदालत में साबित नहीं किया जा सका। ‘अफजलवादी’ छात्रों के मंच पर सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई सांसद डी. राजा और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सरीखे नेता भी गए और छात्रों के मुद्दों का समर्थन किया। क्या विश्वविद्यालय परिसर भी सियासत के अड्डे हैं? ऐसी विभाजक एवं देश विरोधी राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत यूनिवर्सिटी कैंपस के भीतर भी दी जा सकती है क्या? गांधी के उपदेशों और आह्वानों को भुला दिया गया है क्या? बीएचयू के भीतर भी मुद्दा सुरक्षा का नहीं था। हमारी बनारस के पुलिस अधिकारियों और विवि के कुलसचिव से फोन पर बात हुई है। बेशक छात्रों की अपनी दिक्कतें हो सकती हैं-फेलोशिप समयबद्ध न मिलना, होस्टल संबंधी समस्याएं और कुछ विभागीय दिक्कतें। बीएचयू की नई प्रॉक्टर डा. रॉयना सिंह का भी मानना है कि कैंपस में छात्राओं के साथ छेड़खानी की घटनाएं होती रही हैं। उनका संज्ञान लेकर कार्रवाई भी की जाती रही है। लेकिन छात्रों की ओर से पेट्रोल बम तक फेंके गए। क्या विश्वविद्यालय में यह काम संभव है? जिसे पुलिस समझ कर बम फेंके गए, दरअसल वे विवि के ही सुरक्षाकर्मी थे। उनकी यूनिफॉर्म पुलिस जैसी ही थी। अब एसपी ने यूनिफॉर्म बदलने का आग्रह कुछ कड़ाई से किया है। क्या पेट्रोल बम कैंपस के संभ्रांत छात्र बना और फेंक सकते हैं? इस तथ्य से आंदोलन में बाहरी तत्त्वों की मौजूदगी का संदेह पुख्ता होता है। फिलहाल जांच जारी है। निष्कर्ष सामने क्या आता है, इंतजार रहेगा, लेकिन 40,000 से ज्यादा छात्रों वाले और 2500 से अधिक अध्यापकों वाले विश्वविद्यालय की गरिमा कलंकित जरूर हुई है। दरअसल अब जो विश्वविद्यालय परिसरों में हो रहा है, इसे सामाजिक, सांस्कृतिक और अकादमिक बदलाव का एक पड़ाव मानना चाहिए। क्या गांधी का सपना यही था? सफरनामा इससे भी आगे जाएगा और विवि ‘क्रांति’ के अड्डे भी बन सकते हैं। याद रहना चाहिए कि ऐसे ही उग्र छात्रों ने जेएनयू में कुलपति के दफ्तर का घेराव किया था और उन्हें 24 घंटों तक अपने ही दफ्तर में बंद रहना पड़ा था। यह कौन सी संस्कृति और क्रांति है? इसे सामान्य तौर पर ग्रहण नहीं किया जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालय में शिक्षा और करियर पीछे छूटते जा रहे हैं। अब विश्वविद्यालय शिक्षार्थ और सेवार्थ नहीं, बल्कि नेतार्थ होते जा रहे हैं! हैदराबाद विवि में पीएचडी के शोधार्थी रोहित वेमुला ने जब आत्महत्या की, तो दलित का मुद्दा उछाला गया कि मोदी सरकार दलित विरोधी है। बाद में जांच-पड़ताल से तथ्य सामने आया कि रोहित दलित नहीं, ओबीसी था। बहरहाल हमारे विवि कैंपस के भीतर जो हालात बन रहे हैं और असामाजिक आंदोलन खड़े किए जा रहे हैं, वे देशहित में नहीं हैं। इससे राष्ट्रपिता गांधी को भी सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।


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