पटेल का संविधान

By: Dec 27th, 2017 12:10 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

अगर पटेल की योजना अस्वीकार न की गई होती, तो आज भारत अमरीका के समान एक संघ होता और राजनीतिक व्यवस्था भी वैसी ही होती। हमारी राज्य सरकारें केंद्रीय नियंत्रण पर कम निर्भर होतीं, और जनता द्वारा निर्वाचित गवर्नर होते। भारत एक सहभागी लोकतंत्र होता, जिसकी विकेंद्रीकृत सरकारें जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी होतीं। और हमारी राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे ज्यादा मध्यमार्गी होते…

वल्लभभाई पटेल के पास भारत के संविधान के लिए एक दूरदर्शी फार्मूला था। वह राज्यों का एक ऐसा वास्तविक संघ बनाना चाहते थे, जिसमें स्वायत्त राज्य सरकारें और एक मजबूत केंद्र हो। शुरुआत में उनका अद्वितीय प्रस्ताव भारत की संविधान सभा में पास हो गया। परंतु बाद में, एक अजीब उलटफेर के तहत, हमारे संविधान निर्माण निकाय ने संपूर्ण विचार ही निकाल बाहर किया।

अगर पटेल की योजना अस्वीकार न की गई होती, तो आज भारत अमरीका के समान एक संघ होता और राजनीतिक व्यवस्था भी वैसी ही होती। हमारी राज्य सरकारें केंद्रीय नियंत्रण पर कम निर्भर होतीं, और जनता द्वारा निर्वाचित गवर्नर होते। भारत एक सहभागी लोकतंत्र होता, जिसकी विकेंद्रीकृत सरकारें जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी होतीं। और हमारी राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे ज्यादा मध्यमार्गी होते।

संविधान सभा ने पटेल से भारत की प्रांतीय सरकारों की रूपरेखा बनाने को कहा था। जैसे ही उनकी प्रांतीय संविधान समिति ने कार्य आरंभ किया, उसे एक मूल प्रश्न से संघर्ष करना पड़ा कि भारत एक संघ होना चाहिए या एकात्मक राष्ट्र?

यह वर्ष 1947 का जून महीना था और पटेल रियासतों को स्वतंत्र भारत में मिलाने के काम में बुरी तरह व्यस्त थे। उन्होंने पाया कि राज्य सरकारों को स्वतंत्रता और स्थानीय उत्तरदायित्व की आवश्यकता है। परंतु उन्हें यह भी एहसास हुआ कि राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए मजबूत केंद्र चाहिए। किसी निष्कर्ष पर न पहुंच पाने के कारण पटेल ने परामर्श के लिए नेहरू की समिति को बुलाया, जिसे संघटन का ढांचा तैयार करने का काम सौंपा गया था।

पटेल बनाम नेहरू

नेहरू की संघटन संविधान समिति भी समान उलझन में थी। इसने भी निष्कर्ष निकाला था कि ‘‘संविधान एक मजबूत केंद्र वाला संघीय ढांचा होना चाहिए’’ परंतु यह निर्धारित नहीं कर पाई कि यह अद्वितीय मेल काम कैसे करेगा।

इस बैठक में भारत का संविधान बनाने में जुटे शीर्ष नेताओं ने कुछ तफसील बनाई। उन्होंने तय किया कि ‘‘हर राज्य का प्रमुख एक गवर्नर होना चाहिए, और ‘‘गवर्नर राज्य द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए, केंद्र सरकार द्वारा नहीं।’’

अगले दिन, 8 जून 1947 को, पटेल की समिति ने इस समझौते के अनुसार कार्य शुरू कर दिया। इसने तय किया कि गवर्नर हर राज्य के वयस्क लोगों द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित किए जाएंगे। परंतु नेहरू की समिति ने निर्धारित किया कि देश का राष्ट्रपति देश के सांसदों व विधायकों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाए।

इसने टकराव पैदा कर दिया — संघीय सरकार का प्रमुख यानी राष्ट्रपति सांसद व विधायक चुनेंगे, जबकि राज्य सरकारों के प्रमुख यानी गवर्नर जनता। केएम मुंशी, जो दोनों समितियों के सदस्य थे, ने हस्तक्षेप किया ताकि संघटन और प्रांतीय संविधान समन्वित किए जा सकें।

उन्होंने सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को लिखा : ‘‘राष्ट्रपति और प्रांत प्रमुखों के चुनाव का प्रश्न आपस में इतना जुड़ा है कि मसले पर संयुक्त बैठक में विचार होना चाहिए।’’

पटेल की सलाह अनसुनी

पटेल ने तुरंत दूसरी संयुक्त बैठक बुलाई। 10-11 जून को दो दिन चली दूसरी बैठक में हमारे संविधान के 36 प्रमुख निर्माता शामिल हुए। इनमें नेहरू, पटेल, प्रसाद, मुंशी, बीआर अंबेडकर, जीबी पंत, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जेबी कृपलानी, जगजीवन राम और एके अय्यर सम्मिलित थे। मुंशी ने बाद में लिखा कि ‘‘एक गरम बहस के बाद… दो या तीन वोट से यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया कि राष्ट्रपति का निर्वाचन वयस्क मतदाताओं द्वारा किया जाएगा।’’

केवल यही नहीं, परंतु समिति ने ‘‘बहुमत वोटों के आधार पर संघटन संविधान सभा से सिफारिश की कि उन्हें राष्ट्रपति को अप्रत्यक्ष रूप से चुनने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए।’’  नेहरू ने कभी पुनर्विचार नहीं किया। उस बैठक के केवल कुछ घंटों के बाद जुटी उनकी समिति ने सलाह को सिरे से नजरअंदाज कर दिया।

हालांकि यह पटेल को मसला सभा में लाने से रोक नहीं पाया। 15 जुलाई, 1947 को पटेल ने प्रत्यक्ष निर्वाचित गवर्नरों की योजना सभा में प्रस्तुत की। इसमें प्रावधान था कि हर गवर्नर को ‘‘मदद और सलाह’’ के लिए एक मंत्री परिषद होगी, परंतु गवर्नर के पास विवेकाधीन शक्तियां होंगी। उन्होंने प्रत्यक्ष निर्वाचन से जुड़ी कठिनाइयों को स्वीकार किया, परंतु ‘‘पद की गरिमा’’ के लिए उन्हें आवश्यक माना। उन्होंने तर्क दिया कि इस प्रकार निर्वाचित गवर्नर ‘‘लोक-सम्मत सरकार और प्रांत पर व्यापक प्रभाव रखेगा।’’

पटेल और नेहरू की भिन्न परिकल्पनाएं

पटेल और नेहरू की भिन्न परिकल्पनाएं अंतिम टकराव पर आ पहुंचीं, जब सभा संविधान प्रस्तावों का मसौदा अंगीकार करने लगी। अंबेडकर की प्रारूप समिति ने गवर्नर नियुक्ति के तरीके को प्रत्यक्ष निर्वाचन से बदलकर एक वैकल्पिक खंड लिख दिया था। प्रारूप समिति के तौर पर वह ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं थी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी के कुछ प्रभावशाली नेता इस बदलाव पर जोर डालने को तुरंत उपलब्ध थे।

परंतु पटेल नहीं। जाहिर तौर पर स्वस्थ और सक्रिय होने पर भी सभा से उनकी अनुपस्थिति अजीब थी। कुछ सदस्यों ने तर्क दिया कि कई दिनों की बहस के बाद, और पटेल के कद के नेता द्वारा जोर दिए जाने के बाद अपनाया गया एक मूलभूत सिद्धांत, उनकी भागीदारी के बिना हटाया नहीं जाना चाहिए।

विश्वनाथ दास ने कोहराम मचा दिया जब उन्होंने इशारा किया कि पार्टी मनमानी कर रही है। और यह कि पटेल को इन थोक परिवर्तनों की जानकारी तक नहीं है।

नेहरू ने सदस्यों को शांत किया। वह यह कहने के लिए उठे कि यह बदलाव ‘‘अजीब चीज नहीं लगना चाहिए,’’ और ‘‘यहां तक कि सरदार पटेल जैसे लोग, जिन्होंने स्वयं इस सदन में अलग राय प्रस्तुत की, ने महसूस किया कि बदलाव वांछित होगा।’’ उन्होंने तीन कारणों का उल्लेख किया ः निर्वाचित गवर्नर अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देंगे, वे प्रांतीय सरकारों के लिए प्रतिद्वंद्वी बन जाएंगे, और चुनाव करवाना मुश्किल हो जाएगा।

अंतिम शब्द

एक बार नेहरू बोले, तो सदस्य ठंडे हो गए। जो अब चर्चा करना भी चाहते थे, उन्हें हड़काया गया और बदलाव स्वीकार कर लिया गया। भारतीय संविधान निर्माण प्रक्रिया के दौरान एक मूलभूत सिद्धांत में यह एकमात्र बदलाव था। पटेल ने सभा में कभी यह रहस्योद्घाटन नहीं किया कि गवर्नर चुनने के तरीके में बदलाव के स्थान पर संयुक्त उपसमिति ने निर्णय लिया था कि राष्ट्रपति प्रत्यक्ष निर्वाचित होना चाहिए।

क्या पटेल का फार्मूला कामयाब हो पाता?

यह देखते हुए कि केंद्र द्वारा नियुक्त गवर्नरों का क्या हाल हो गया है, यह तर्क दिया जा सकता है कि निर्वाचित गवर्नर इससे बुरे नहीं हो सकते थे। अगर वे मुख्यमंत्रियों के प्रतिद्वंद्वी बनते, तो इससे एक दूसरे पर अति आवश्यक नियंत्रण उपलब्ध हो पाता।

जहां तक विघटनकारी प्रवृत्तियों जिनका नेहरू को डर था का सवाल है, भारतीय संविधान के प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन के उस समय लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए : ‘‘देश में एकता के लिए कार्यरत शक्तियां एकता के खिलाफ जुटी ताकतों से अधिक शक्तिशाली और संख्या में अधिक थीं।’’

पटेल का दूरदर्शी फार्मूला अभी भी विचार के योग्य है।

अंग्रेजी में ‘दि क्विंट’ में प्रकाशित (15 दिसंबर, 2017)


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