लोकतांत्रिक मूल्यों से किनारा करती पार्टियां

By: Dec 8th, 2017 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

 

अब कांग्रेस में एक महा विस्फोट हो गया है तथा महाराष्ट्र कांग्रेस के सचिव शहजाद पूनावाला ने पार्टी के तानाशाही व वंशवादी तरीके पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होंने राहुल गांधी के अध्यक्ष के रूप में चयन को भी एक धोखा करार दिया है। सीधे व सरल शब्दों में कहें तो पहले बॉस सभी प्रतिनिधियों को चुनता है तथा बाद में उसी बॉस को उसके द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधि चुनते हैं। पार्टी में अंडा और चिकन सिस्टम बिना किसी लोकतांत्रिक अंश के चल रहा है। लिहाजा पार्टी में पाखंड व चापलूसी निरंतर चल रहे हैं…

राहुल गांधी के कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में चुने जाने अथवा मनोनयन ने पार्टी के भीतर लोकतंत्र पर गरमागर्म बहस छेड़ दी है। इसके बावजूद देश का संसदीय लोकतंत्र व चुनाव प्रक्रिया वे कारक हैं, जिनके कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। हालांकि शासन के संसदीय मॉडल की तीखी आलोचना हो रही है, फिर भी इस समय सियासी दलों के भीतर लोकतंत्र सबसे बड़ा मसला बना हुआ है। हालांकि भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए शासन चलाया जाता है, इसके बावजूद पार्टियों के संगठन में शक्ति आबंटन की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक ढंग का अभाव है। जब नरेंद्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शासन संभाला था, तो विपक्ष विशेषकर कांग्रेस ने इसे तानाशाही करार दिया था। उन्होंने चुनाव प्रक्रिया का सामना किया था। हालांकि एक समय लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का कड़ा प्रतिस्पर्धी माना जा रहा था, जिसके कारण चुनाव को लेकर कुछ संदेह भी फैला।

प्रधानमंत्री के तौर पर विकल्प को लेकर हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी प्रभाव रहा, लेकिन ऐसा सभी काडर आधारित दलों, जैसे कि कम्युनिस्ट पार्टी में होता रहता है। प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद विपक्ष की ओर से निरंतर उनकी आलोचना उनके कथित तानाशाही रवैये को लेकर हो रही है। यहां तक कि विपक्ष के लोग उन्हें तानाशाह अथवा हिटलर की संज्ञा भी देते हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपनी कार्यशैली से यह प्रमाणित कर दिया है कि वह अपने मंत्रियों, पार्टी नेताओं तथा यहां तक कि विपक्ष के साथ व्यवहार के दौरान भी इस तरह का तरीका नहीं अपनाते हैं। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा व अरुण शौरी का मामला ही ले लेते हैं। ये तीनों अकसर प्रधानमंत्री की आलोचना करते रहते हैं और कई अवसरों पर इन्होंने मोदी को धोखा भी दिया।

बड़े सुधारों की बात करें तो नोटबंदी तथा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून ऐसे विषय हैं, जहां इन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साथ नहीं दिया। मोदी की ही पार्टी के ये तीनों नेता विपक्ष के साथ मिलकर अकसर प्रधानमंत्री को उकसाते रहते हैं। इसके अलावा ये कई मौकों पर मोदी सरकार की दूसरी नीतियों की आलोचना करते रहे हैं। इन उत्तेजक परिस्थितियों में भी नरेंद्र आम तौर पर विनम्रता का परिचय देते रहे हैं। वह ठीक ही कहते हैं कि एक समय था, जब एक पूर्व प्रधानमंत्री से यह स्वीकृति ली जाती थी कि अखबार में क्या छपना है। अब विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई दबाव नहीं है। हालांकि अब भी ऐसा संभव है कि मीडिया पर परोक्ष रूप से प्रभाव डाला जाए, इसके बावजूद मीडिया कमोबेश स्वतंत्र है। यह खुली हवा में सांस लेने का सूचक है। लोकतंत्र में ऐसे लक्षणों की सहज अपेक्षा की जाती है। अब राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर बहस छिड़ गई है। कोई इसे तानाशाही व वंशवादी तरीका बता रहा है, तो उनके समर्थक इसे लोकतांत्रिक ढंग से चयन की संज्ञा दे रहे हैं। राहुल के समर्थक यह भी कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी भी लोकतांत्रिक प्रणाली का अनुसरण नहीं करती है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि जिस तरह कांग्रेस में पहले होता रहा है, उसी तरह भविष्य में राहुल गांधी भी देश की बागडोर संभाल लें, लेकिन उन्हें ऐसी पार्टियों से सामना करना होगा, जिनमें इस तरह का वंशवाद नहीं है। मायावती व ममता बनर्जी का उदाहरण भी हमारे सामने है, जहां वंशवाद को पूरा संरक्षण मिला हुआ है। लोक जनशक्ति पार्टी भी इस परंपरा से खुद को अछूत नहीं रख सकी है। ठीक उसी तरीके से बहुजन समाजवादी पार्टी तथा तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों को भी चलाया जा रहा है। हो सकता है भविष्य में इन दलों में यह प्रणाली खत्म हो जाए, लेकिन कांग्रेस, जो लोकतांत्रिक होने का दावा करती है, के बारे में अभी से कुछ साफ तौर पर कहा नहीं जा सकता।

पार्टी के सामने मुख्य मसला यह है कि वह ईमानदारी के साथ स्वीकार करे कि इसमें वंशवाद है। आखिर कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने ही कहा है कि राजसी लोग परंपराओं का पालन करते हैं, जैसे मुगल राज में होता था। अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने एक और रोचक बात कही कि हम उनकी तरह काम नहीं कर रहे हैं। उनसे कम होने के बावजूद पार्टी राजसी होने की सोच रही है तथा ऐसा करने की जरूरत नहीं है जैसा कि वह कह रही है कि हमारे यहां लोकतंत्र है अथवा हम लोकतांत्रिक व संवैधानिक तरीके से काम कर रहे हैं। मेरा यह अनुभव है कि सभी राज्यों में संविधान को परे धकेल कर हाइकमान के इशारे पर चयन होता है। सभी जिला अध्यक्ष मनोनीत किए जाते हैं तथा प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति में हाइकमान की चलती है। इसके बदले में राज्यों के अध्यक्ष हाइकमान के पक्ष में वोटिंग करते हैं। यह एक घुमावदार तरीका है, जिसमें एक जैसे लोग ही अपने बारे में निर्णय करते हैं।

अब पार्टी में एक महा विस्फोट हो गया है तथा महाराष्ट्र कांग्रेस के सचिव शहजाद पूनावाला ने पार्टी के तानाशाही व वंशवादी तरीके पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होंने राहुल गांधी के अध्यक्ष के रूप में चयन को भी एक धोखा करार दिया है। सीधे व सरल शब्दों में कहें तो पहले बॉस सभी प्रतिनिधियों को चुनता है तथा बाद में उसी बॉस को उसके द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधि चुनते हैं। पार्टी में अंडा और चिकन सिस्टम बिना किसी लोकतांत्रिक अंश के चल रहा है। परिणाम यह है कि पार्टी में पाखंड व चापलूसी निरंतर चल रहे हैं। पार्टी की कार्यप्रणाली का एक अन्य पहलू यह है कि इसमें योग्यता के बजाय केवल वफादारी देखी जाती है। ऐसी स्थिति में यह पार्टी नेता पर निर्भर करता है कि किसे सत्ता सौंपनी है या नहीं। इसीलिए शहजाद ने हमला बोला है कि इस तरह का फरेब कब तक चलेगा और कब तक लोकतंत्र के झूठे दावे होते रहेंगे। लोगों को संविधान का अनुसरण करने के लिए पार्टी से मांग करनी चाहिए। चुनाव आयोग को इस मामले में पार्टी को विवश करना चाहिए।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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