सियासत में धर्म अब ज्यादा स्वीकार्य

By: Dec 15th, 2017 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

देश के कई राज्यों में पराजय से उपजी निराशा के बाद कांग्रेस ने अपने नजरिए में परिवर्तन किया है और वह अब मोदी का मुकाबला उन्हीं की शैली में कर रही है। राजनीति और धर्म का इस तरह का घालमेल पहले कभी नहीं हुआ, जिस तरह का अब इस मसले पर दिख रहा है। कांग्रेस भी आने वाले समय में अपने धार्मिक हितों की उपेक्षा नहीं कर सकेगी क्योंकि यह उसके वोट बैंक के खो जाने का कारण बन सकता है। कश्मीर व राम मंदिर वे मसले हैं, जो भविष्य में कांग्रेस को उद्वेलित करते रहेंगे…

राहुल गांधी का अचानक दर्जनों मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करना कई राजनेताओं को हैरानी में डाल रहा है। यह हैरानी इसलिए ज्यादा हो रही है, क्योंकि अब तक कांग्रेस के नेता धार्मिक विश्वासों व क्रियाकलापों में पीछे माने जाते रहे हैं। देश के कई राज्यों में पराजय से उपजी निराशा के बाद कांग्रेस ने अपने नजरिए में परिवर्तन किया है और वह अब मोदी का मुकाबला उन्हीं की शैली में कर रही है। अब तक कांग्रेस ने अपना धार्मिक चेहरा पेश नहीं किया था और अब उसे एहसास हो गया है कि हिंदू वोटर उसके हाथों से फिसलते जा रहे हैं। यह केवल महात्मा गांधी थे, जिन्होंने ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का घोष करते हुए धर्म का पंथनिरपेक्षता से संतुलन बैठाया। हालांकि उनकी मौत के बाद हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों से प्रेम जतलाने की चतुर रणनीति एक तरह से गायब हो गई, इसके बावजूद उनका प्रभाव जारी रहा। देश का विभाजन इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जब धर्म ने देश को दो भागों में बांट दिया। विभाजन के दौरान सामूहिक नरसंहार भी हुए। हिंसा भी व्यापक स्तर पर हुई।

यह बात अब भी चर्चा का विषय बनी हुई है कि क्यों हमने सांप्रदायिक दलों, विशेषकर मुस्लिम लीग की आधारहीन व औचित्यहीन लक्षण वाली देश के विभाजन की मांग स्वीकार कर ली। मुस्लिम लीग ही वह दल है जिसने देश में दोनों धर्मों की अलग-अलग पहचान की पैरवी की थी। यह सत्य है कि मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किए और बड़े स्तर पर नरसंहार को भी अंजाम दिया। उन्होंने ऐसा उनका धर्म व विश्वास न अपनाने पर किया तथा हिंदुओं की संस्कृति के प्रतीक कई मंदिरों को नष्ट कर दिया। हालांकि दोनों ही धर्मों ने कुछ मुस्लिम शासकों के साथ मित्रतापूवर्क जीवन व्यतीत करना सीख लिया। मुसलमान शासकों की ओर से उदारवादी व्यवहार भी हुआ, जैसे इस्लाम न मानने वालों पर लगाया गया जजिया कर हटा लिया गया। अकबर जैसे शासकों ने हिंदू परिवारों में विवाह किए, वे हिंदू त्योहार मनाने लगे तथा अपने शासन में हिंदू मंत्रियों व सलाहकारों को जगह भी दी।

इस तरह दोनों धर्मों के बीच दीवार धीरे-धीरे ढहने लगी, हालांकि दोनों समुदायों के लोग अपने-अपने रीति-रिवाजों व परंपराओं का निर्वाह करते रहे। सभी कुछ व्यवस्थित तरीके से चलने लगा और देश जब आजाद हुआ तो सरकार ने धार्मिक सद्भाव व सहनशीलता की नीति व व्यवहार जारी रखा। यह एक बहुत बड़ी गलती थी कि जब देश आजाद हुआ तो दोनों समुदायों ने सद्भाव की इस नीति को भुला दिया तथा एक-दूसरे का बड़े स्तर पर नरसंहार किया। धार्मिक व सांप्रदायिक घृणा की राजनीति तक पहुंच हो गई और दोनों देशों ने आपस में कई लड़ाइयां भी लड़ीं। महात्मा गांधी देश के विभाजन के एकदम खिलाफ थे। उन्होंने घोषणा की थी कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन बाद में जवाहर लाल नेहरू व वल्लभभाई पटेल के समझाने पर वह विभाजन को मान गए।

रातोंरात विभाजन का फैसला लिया गया। इस दौरान बड़े स्तर पर मानव व संपदा का हस्तांतरण दोनों देशों के बीच हुआ। लोगों को कई कठिनाइयां झेलनी पड़ीं और दोनों ओर बड़े स्तर पर नरसंहार भी हुआ। राजनीति ने अंततः धर्म को कैसे निगल लिया, इस संबंध में कई सिद्धांत हैं। हालांकि भारत, विभाजन के बाद भी पंथनिरपेक्ष बना रहा और यहां अब भी सीमाओं पर बड़ी मुस्लिम जनसंख्या रहती है। उस समय कांग्रेस सरकार का मुसलमानों के प्रति नरम रुख था। कांगे्रस में मौलाना आजाद जैसे मुस्लिम नेता भी थे, जिन्होंने अपना भाग्य इस पार्टी के साथ जोड़ लिया था। विभाजन के बाद कांग्रेस ने अपनी पंथनिरपेक्ष छवि बनाए रखने के लिए मुस्लिम कार्ड चला। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसने मुसलमानों के साथ समान व सच्चे भारतीय जैसा व्यवहार करने के बजाय प्राथमिकता देने वाली नीति अपनाई। मिसाल के तौर पर हज सबसिडी देने का निर्णय इस बात को पुष्ट करता है।

अल्पसंख्यकों के प्रति इस उदारवादी नीति को बहुसंख्यकों का समर्थन भी मिला, जिसे गारंटी के रूप में माना गया। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि सरकार में शामिल अधिकतर लोग हिंदू ही थे। हिंदुओं ने पंथनिरपेक्षता का पालन अपना दायित्व समझा और अल्पसंख्यकों के प्रति उदारवादी नीति को एक अच्छे मेजबान का दर्जा मिला। यह नीति कांग्रेस के लिए मुख्य रणनीति के रूप में काम आई क्योंकि हिंदुओं का खुश रहना उसके वोट बैंक में वृद्धि के रूप में काम आया और वे बड़े स्तर पर उसके पक्ष में मतदान करते रहे। अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अल्पसंख्यकों के प्रति प्राथमिकता वाली नीति को दुरुस्त करते हुए संविधान के अनुसार सबके साथ समान व्यवहार की नीति अपना ली है। मोहम्मद ओवैसी व अन्य वहाबी नेताओं जैसे गैर हिंदू तत्त्वों को यह नीति अल्पसंख्यकों के प्रति शत्रुता वाली लग रही है। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर लड़ाई इस परिवर्तन व विरोध का सांकेतिक चिन्ह है। अब हिंदू व मुसलमान, दोनों संप्रदायों में कड़ा संघर्ष चल रहा है। बहुसंख्यकों का विचार है कि अयोध्या में राम मंदिर है, क्योंकि यह पैगंबर की जन्म भूमि नहीं, श्रीराम की जन्म भूमि है। आपसी सहमति से इस विवाद को बहुत पहले ही निपटा लिया गया होता। राजनीति के कारण यह मसला अभी तक अनसुलझा चल रहा है और यह देश में विभाजन का कारण बनता जा रहा है। शिया वक्फ बोर्ड ने सद्भावना का परिचय देते हुए मस्जिद को लखनऊ शिफ्ट करने की सहमति जताई है, लेकिन मुसलमानों का सुन्नी संप्रदाय इस बात से सहमत नहीं है तथा वह इस समझौते के विरोध में आ खड़ा हुआ है। यहीं से पूरा संघर्ष और भी गहरा जाता है।

राजनीति और धर्म का इस तरह का घालमेल पहले कभी नहीं हुआ, जिस तरह का अब इस मसले पर दिख रहा है। कांग्रेस भी आने वाले समय में अपने धार्मिक हितों की उपेक्षा नहीं कर सकेगी क्योंकि यह उसके वोट बैंक के खो जाने का कारण बन सकता है। कश्मीर व राम मंदिर वे मसले हैं, जो भविष्य में कांग्रेस को उद्वेलित करते रहेंगे।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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