स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सुधार जरूरी

By: Dec 5th, 2017 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

अपने देश में सरकारी शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाएं सभी को उपलब्ध हैं। गरीब को इनका ही सहारा होता है, परंतु इन सेवाओं को उत्तरोत्तर निजी क्षेत्र द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है। निजी सेवाओं की गुणवत्ता सामान्यतः उत्तम होती है। जैसे आम तौर पर ग्रामीण निजी स्कूल के 50 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं, तो सरकारी स्कूल के 25 प्रतिशत। लेकिन प्राइवेट डाक्टरों तथा स्कूलों द्वारा भारी फीस वसूल की जाती है। हमारे सामने चुनौती है कि सरकारी सेवाओं की सर्व उपलब्धता तथा निजी सेवाओं की गुणवत्ता दोनों को कैसे हासिल किया जाए…

नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा है कि जीएसटी, दिवालिया कानून तथा बेनामी संपत्ति कानून के मौलिक सुधारों के बाद अब शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की जरूरत है। आयोग के इस मंतव्य का स्वागत है। प्रश्न है कि इन सुधारों की दिशा क्या हो? मूल प्रश्न निजी क्षेत्र की भूमिका का है। अपने देश में सरकारी शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाएं सभी को उपलब्ध हैं। गरीब को इनका ही सहारा होता है, परंतु इन सेवाओं को उत्तरोत्तर निजी क्षेत्र द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है। निजी सेवाओं की गुणवत्ता सामान्यतः उत्तम होती है। जैसे आम तौर पर ग्रामीण निजी स्कूल के 50 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं, तो सरकारी स्कूल के 25 प्रतिशत। लेकिन प्राइवेट डाक्टरों तथा स्कूलों द्वारा भारी फीस वसूल की जाती है। सरकारी मेडिकल कालेज की फीस यदि 30,000 प्रति वर्ष होती है, तो प्राइवेट मेडिकल कालेज की फीस छह लाख प्रति वर्ष होती है। हमारे सामने चुनौती है कि सरकारी सेवाओं की सर्व उपलब्धता तथा निजी सेवाओं की गुणवत्ता दोनों को कैसे हासिल किया जाए। इस विषय पर अमरीका तथा इंग्लैंड की तुलना से कुछ दिशा मिलती है, चूंकि अमरीका ने निजी सेवाओं को बढ़ावा दिया है, जबकि इंग्लैंड ने सरकारी सेवाओं को।

अमरीका में लगभग सभी स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान की जाती हैं। ये बहुत महंगी हैं। अपने देश में यदि ठंड लग जाए या खांसी हो जाए, तो व्यक्ति केमिस्ट से 50 रुपए की एंटीबायोटिक दवा लेकर स्वस्थ हो जाता है। अमरीका में इस प्रकार की तमाम सामान्य दवाओं को बिना डाक्टर के पर्चे के नहीं खरीदा जा सकता है। फलस्वरूप आपको पहले डाक्टर को 200 डालर या 13,000 रुपए की फीस देकर दिखाना होगा। उसके बाद केमिस्ट से 50 डालर या 4,000 रुपए की दवा खरीदनी होगी। जिस रोग का उपचार भारत में 50 रुपए में हो जाता है, उसके उपचार में अमरीका में 20,000 रुपए लगते हैं। कठिन रोगों जैसे हार्ट बाइपास अथवा किडनी डैमेज का डाक्टरी खर्च तो आसमान छूता है। आम अमरीकी इन महंगी स्वास्थ्य सेवाओं से त्रस्त है। एक रपट के अनुसार अमरीका में दिवालिया घोषित करने वाले लोगों में 60 प्रतिशत का कारण स्वास्थ्य खर्चा पाया गया है। स्पष्ट है कि अमरीका मे निजी स्वास्थ्य सेवाओं की लूट है। दूसरी तरफ अमरीका में श्रेष्ठ गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। अमरीकी ड्रग कंपनियों द्वारा नई दवाओं की खोज में भारी निवेश किया जाता है। इन दवाओं को महंगा बेच कर भारी मुनाफा कमाया जाता है। तमाम असाध्य रोगों का वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठ उपचार अमरीका में ही उपलब्ध है।

इंग्लैंड की स्थिति बिलकुल अलग है। यहां सरकारी अस्पतालों का विस्तृत जाल बिछा हुआ है। हर नागरिक को इन अस्पतालों में मुफ्त सेवाएं हासिल करने का अधिकार है, लगभग जैसा अपने देश में है। सरकारी अस्पतालों की गुणवत्ता भी अपने देश की तुलना में अच्छी है, परंतु सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या की तुलना में डाक्टरों की भारी कमी है। एक आकलन के अनुसार 1,25,000 डाक्टरों की जरूरत है, जबकि केवल 50,000 सेवा में हैं। सरकार के पास बजट नहीं है कि डाक्टरों की संख्या में वृद्धि करे। कई आपरेशनों के लिए मरीज को छह माह का इंतजार करना होता है। इंग्लैंड की स्वास्थ्य सेवाएं अकसर दुकान के शोकेस में रखी वस्तुओं की तरह हो जाती हैं, जो कि तकनीकी स्तर पर आपको उपलब्ध हैं परंतु आपकी पहुंच से बाहर होती हैं। अमरीका में स्वास्थ्य सेवाओं के महंगेपन को देखें, तो हम बहुत अच्छे हैं। अपने यहां तमाम रोगों को केमिस्ट ही ठीक कर देते हैं। होम्योपैथी, आयुर्वेदिक तथा एलोपैथिक डाक्टरों की भरमार है। डाक्टरों की फीस अकसर 100 से 500 रुपए होती है, जो कि अमरीका की 13,000 रुपए से बहुत कम है। देश के नागरिकों की औसत आयु तेजी से बढ़ रही है, जो कि सुधरते स्वास्थ्य का द्योतक है। अमरीका की दवा कंपनियों के आतंक से भी हम मुक्त हैं।

भारत सरकार ने आम उपयोग की तमाम दवाओं के दाम निर्धारित कर रखे हैं, जिससे दवा कंपनियों को मुनाफाखोरी करने के अवसर कम हैं। साथ-साथ इंग्लैंड की तरह हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं सबको उपलब्ध हैं, यद्यपि इनकी गुणवत्ता इंग्लैंड की तुलना में बहुत कमजोर है। हमारी उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है। इस दिशा में हमें तीन कदम उठाने चाहिएं। पहला कदम है कि निजी डाक्टरों तथा अस्पतालों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए। वर्तमान में एमबीबीएस डिग्री हासिल करने के लिए चार साल मेडिकल कालेज में पढ़ना अनिवार्य होता है। दूसरे विषयों की तरह यहां भी प्राइवेट परीक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करने से देश में डाक्टरों की उपलब्धता बढ़ जाएगी। इनके बीच प्रतिस्पर्धा से डाक्टरों की फीस में गिरावट आएगी और स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच में आ जाएंगी। इसी क्रम में दवाओं के जेनेरिक पर्चे दिखाना अनिवार्य बना देना चाहिए, जिससे दवा कंपनियों द्वारा केवल नाम की कमाई बंद हो जाए। निजी डाक्टरों तथा अस्पतालों के विरुद्ध शिकायतों के निस्तारण के लिए स्वास्थ्य पुलिस स्थापित करनी चाहिए।

दूसरा कदम है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा जन स्वास्थ्य तक सीमित कर देना चाहिए, जैसे मलेरिया के बचाव के लिए तालाबों में छिड़काव करने तक। इन पर किया जा रहा खर्च मुख्य रूप से सरकारी डाक्टरों को पोसने में जाता है। जैसे गोरखपुर में बच्चों की त्रासदी के जिम्मेदार डाक्टर अपना अलग अस्पताल चलाते थे। सरकारी वेतन इनके लिए मात्र बोनस होता है। सरकारी सेवाओं को सीमित करके जो पैसा बचे, उसे देश के नागरिकों में वाउचर के रूप में वितरित कर देना चाहिए। इन वाउचर से वे प्राइवेट डाक्टरों से वे सेवाएं खरीद लेंगे।

तीसरा कदम है कि नई दवाओं तथा उपचारों के खोज के लिए सरकार को भारी मात्रा में अनुदान देने चाहिएं। दवा कंपनियों, अस्पतालों तथा डाक्टरों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने से आम आदमी को राहत मिलेगी, परंतु इनके द्वारा अनुसंधान में निवेश करना कठिन हो जाएगा। इसलिए अनुसंधान के लिए सरकार को अनुदान देना चाहिए। इन कदमों पर नीति आयोग को सरकार का मार्गदर्शन करना चाहिए।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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