विवेकानंद : विश्व नेतृत्व को भारत के गुरु

By: Jan 19th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

आज जरूरत इस बात की है कि हम स्वामी विवेकानंद के मूल्यों को अपनाएं और भारत की महानता के लिए उनके द्वारा सुझाए गए मार्ग को समझें। वह एक ऐसे आध्यात्मिक नेता हैं, जो भारत की वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों में अन्य किसी भी नेता से ज्यादा प्रासंगिक हैं। उनके सत्योपदेश के प्रति हमारी वचनबद्धता ही वह मार्ग है, जिससे हम विश्वगुरु बन सकते हैं। उन्होंने भारतीयों को जगाते हुए ठीक ही कहा था-उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते…

स्वामी विवेकानंद की 154वीं जयंती मनाने के लिए हमने कई तरह के समारोह आयोजित किए, लेकिन जरूरत इस बात की है कि हम उनके मूल्यों को अपनाएं और भारत की महानता के लिए उनके द्वारा सुझाए गए मार्ग को समझें। वह एक ऐसे आध्यात्मिक नेता हैं, जो भारत की वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों में अन्य किसी भी नेता से ज्यादा प्रासंगिक हैं। उनके सत्योपदेश के प्रति हमारी वचनबद्धता ही वह मार्ग है, जिससे हम विश्वगुरु बन सकते हैं। उन्होंने भारतीयों को जगाते हुए ठीक ही कहा था-उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते। एक बार जब स्वामी जी की शिष्या सिस्टर निवेदिता से किसी ने पूछा था कि रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानंद में क्या अंतर है, तो उन्होंने जवाब दिया था कि परमहंस भारतीय अध्यात्म के पिछले 5000 वर्षों के ज्ञान-भंडार रहे हैं, जबकि स्वामी जी भारत के लिए अगले 1500 सालों के लिए गाइड होंगे। अपनी युवावस्था में ही स्वामी जी ने भारत को वह मार्ग दिखलाया जो परिवर्तित होते विश्व में भारत की भूमिका को सुदृढ़ करता है।

1863 में जन्मे स्वामी विवेकानंद ने भारतीय अध्यात्म व दर्शन की मजबूती के लिए निर्बाध कार्य किया। रामकृष्ण परमहंस के गुरुत्व में उन्होंने वेदांत का पाठ पढ़ा। यह उनके लिए उत्साह का एक कारक था, जिसे उन्होंने पूरे विश्व को दिया। स्वामी जी इतना काम करते थे कि उनके पास अपने शरीर की तरफ ध्यान देने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं था, क्योंकि वह निरंतर घूमते रहते थे और व्रत पर रहते थे। इसी कारण उनकी युवावस्था में ही मौत हो गई। वह अपने पीछे भारतीय दर्शन से संबंधित कई व्याख्यान व पुस्तकें चिंतन के लिए छोड़ गए। बताया जाता है कि उन्हें 31 प्रकार के रोग थे और इनमें सबसे खतरनाक रोग यह था कि वह नींद में भी चलने लगते थे। इन रोगों के बावजूद वह काम करते रहे तथा अपनी कार्यशैली से उन्होंने विश्व को भारतीय बोध का प्रशंसक बना दिया। उन्होंने भारत के सार्वभौमिक जयघोष के लिए दिन-रात काम किया।

अमरीका के शिकागो में धर्म पर विश्व संसद जब हुई, तो वह पहला अवसर था जब स्वामी जी का विश्व स्तर पर धार्मिक दर्शन से सामना हुआ। उनके विचार के अनुसार धर्मों के मध्य कोई अंतर नहीं था, क्योंकि सभी इस बड़ी वास्तविकता के भाग थे कि हिंदू धर्म इसे मान्यता देता है तथा इसमें विश्वास रखता है। जब उन्होंने विश्व संसद को ‘सिस्टर्ज एंड ब्रदर्ज’ के साथ संबोधित किया तो इससे दुख हुआ क्योंकि पाश्चात्य विचार इससे मेल नहीं खाते थे। बाद में एक बार उन्होंने कहा था कि वह इस बात को समझते हैं कि क्यों पश्चिम में महिला को माता के रूप में संबोधित करने का बुरा मनाया जाता है। वास्तव में माता कहने से वह प्रौढ़ता की प्रतीक बन जाती है, इसीलिए इसे वहां मान्यता नहीं मिल पाती।

विश्व संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने हिंदू धर्म की जो व्याख्या की, उससे इसका वह स्वरूप सामने आया, जो सार्वभौमिकतावाद के लिए हकीकत में एक चार्टर हो सकता है। वेदांत ने अंतर और पक्षपात को मान्यता नहीं दी। उसने यह अंतिम सत्य व वास्तविकता समझाई कि लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि सभी बुराइयां असमानता व अंतर में विश्वास से आती हैं तथा अच्छाई अद्वैत वेदांत से आती है। अद्वैत वेदांत से अभिप्राय विश्व के एकत्व में विश्वास से है। इसे पश्चिम में एकत्ववाद के रूप में जाना जाता है और भारत ने इस तरह के सार्वभौमिकतावाद को हजारों वर्ष पहले विकसित कर लिया था। वह हमेशा कहा करते थे कि हम सभी गीता, कुरान या बाइबल में विश्वास रखते हैं, परंतु हमें उनकी जरूरत नहीं है क्योंकि ‘मैं’ का सार्वभौमिक भावना अथवा आत्मा में विलय हो जाता है। उन्होंने विश्व संसद में कहा कि हम अपने-अपने कुओं में बैठे उन मेंढकों की तरह हैं, जो अपने कुएं को ही श्रेष्ठ मानते हैं। हमें अपने नजरिए को बड़ा करते हुए समुद्र को देखना है। यह सार्वभौमिकता का संदेश था। हिंदू धर्म आत्मा में विश्वास रखता है। वह पौधे तक को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। उसका शांति, अहिंसा व विश्व की एकता में विश्वास है, वहां जाति व धर्म के आधार पर अलगाव को कोई जगह नहीं है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि विश्व का इतिहास मानव का इतिहास है, उस मानव का, जिसका अपने ऊपर पर विश्वास है। यह भी कि विश्वास से अंतःमन में दिव्यता का भाव जगता है और मृत्यु तब आती है जब व्यक्ति या राष्ट्र अपने में विश्वास खो देता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि स्वामी विवेकानंद एक बढि़या रसोइया भी थे। उनके शिष्य उन्हें महाराज कहा करते थे। यह शब्द एक साथ राजा, रसोइए व संत के लिए प्रयोग किया जाता है। कुकिंग में उन्हें महारत हासिल थी। स्वामी जी की कई महिला शिष्याएं भी थीं, जिनमें एक थी सिस्टर निवेदिता। उन्होंने स्वामी जी के जीवन व पुरुषार्थ पर बहुत कुछ लिखा है। इसके अलावा उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में भी भाग लिया जिसके लिए उनकी प्रशंसा महात्मा गांधी व रवींद्रनाथ टैगोर ने भी की। सिस्टर निवेदिता को एक बार जब स्वामी जी के स्वास्थ्य को लेकर चिंता हुई, तो वह स्वामी जी की कुंडली लेकर एक ज्योतिषी के पास पहुंच गईं। जब स्वामी जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने सिस्टर निवेदिता को दंडित किया क्योंकि वह अंधविश्वास नहीं रखते थे। इसके बावजूद यह घटना सिस्टर निवेदिता के प्रेम व चिंता को प्रकट करती है।

स्वामी अकसर कहा करते थे कि प्रेम सबसे बड़ा सदाचार है, प्रेम केवल देना जानता है और बदले में वह कुछ नहीं चाहता। जब प्रेम ही सबसे बड़ा है तो कोई आदमी कैसे किसी संप्रदाय, जाति अथवा पंथ से घृणा कर सकता है। यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि एक बार कोलकाता नगर निगम ने विवेकानंद आश्रम पर मनोरंजन कर लगा दिया, जिसके खिलाफ स्वामी जी को कोर्ट में लड़ाई लड़नी पड़ी। मनोरंजन कर लगाने का कारण केवल यह था कि यहां भजन गाए जाते थे। इस मामले में उनका सामना भारतीय नौकरशाही से हुआ था, यही नौकरशाही आज भी भारतीयों को परेशान करती है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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