संस्कृत में शपथ के मायने

By: Jan 6th, 2018 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

हिमाचल प्रदेश विधानसभा का पहला सत्र होगा, तो सभी नवनिर्वाचित सदस्य शपथ ग्रहण करेंगे। आशा करनी चाहिए कि बड़ी संख्या में सदस्य संस्कृत में शपथ लेंगे। संस्कृत भाषा में शपथ लेना केवल कृत्रिम रस्म नहीं होगी, बल्कि जीवंत परंपरा का हिस्सा होगी। संस्कृत भाषा का भाजपा-कांग्रेस की राजनीति से भी कुछ लेना-देना नहीं है। इसके विपरीत राजा वीरभद्र सिंह के राजवंश ने तो सदा ही अपने शासन काल में संस्कृत को प्रश्रय दिया है। विक्रमादित्य तो संस्कृत में शपथ लेकर इस परंपरा को आगे बढ़ा ही सकते हैं…

हिमाचल प्रदेश के दो मंत्रियों सुरेश भारद्वाज और गोविंद ठाकुर ने पद और गोपनीयता की शपथ संस्कृत में ली। इसलिए इस तथ्य को प्रदेश के समाचार पत्रों ने प्रमुखता से छापा। यह अपने आप में खबर बन गई। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि संस्कृत केवल भाषा नहीं है, बल्कि यह संस्कार की भाषा है। भगवान बुद्ध के उपदेश जो प्रारंभ में पाली-प्राकृत में संभाले गए, कालांतर में संस्कृत में लिखे गए और अधिकांश बौद्ध साहित्य की भाषा संस्कृत हो गई। एक समय था जब पूरे जंबू द्वीप में बौद्धिक विचार-विमर्श की भाषा संस्कृत हुआ करती थी। भारत का सदियों से संचित ज्ञान-विज्ञान संस्कृत पांडुलिपियों में ही संचित है। भारत में विदेशी शासन के सल्तनत काल और मुगल काल में चाहे शासन की भाषा फारसी हो गई थी, लेकिन संस्कृत की जीवंत और व्यावहारिक भाषा के रूप में अध्ययन-अध्यापन की परंपरा समाप्त नहीं हुई थी। संस्कृत की अवहेलना ब्रिटिश काल में शुरू हुई। 1857 के बाद हिंदोस्तान में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया और ब्रिटेन का प्रत्यक्ष शासन प्रारंभ हुआ। इस नए विदेशी शासन ने भारत में ब्रिटेन की शिक्षा पद्धति की तर्ज पर नई शिक्षा व्यवस्था प्रारंभ की। इस नई शिक्षा पद्धति में संस्कृत को जीवित और प्रयोग की भाषा न मान कर, उसे मृत भाषा मान कर अध्ययन-अध्यापन में स्थान दिया गया। विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग तो खुले, लेकिन उनमें संस्कृत भाषा का अध्ययन अंग्रेजी भाषा के माध्यम से किया जाने लगा। ब्रिटिश सरकार के सामने यूरोप की अपनी भाषा लैटिन का उदाहरण था। जिस प्रकार लैटिन भाषा मर चुकी थी और उसका अध्ययन भाषा वैज्ञानिक शोध के एक औजार के रूप में करते हैं, उसी प्रकार अंग्रेजों ने संस्कृत को मृत भाषा मान कर, उसके व्याकरण, साहित्य सौंदर्य, व्युत्पत्ति इत्यादि का अध्ययन शुरू किया।

यकीनन यह अध्ययन अंग्रेजी में ही हो सकता था और अंग्रेजी के माध्यम से ही संस्कृत भाषा की विशेषताओं की ओर विश्व का ध्यान खींचा जा सकता था। यह कुछ-कुछ उसी प्रकार था, जिस प्रकार नील घाटी की मृत हो चुकी सभ्यता की विशेषताओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। यह ध्यान वर्तमान काल की भाषाओं के माध्यम से ही आकर्षित किया जा सकता है, नील घाटी की सभ्यता के दिनों की भाषाओं में नहीं, क्योंकि उस समय की भाषाएं तो मर चुकी हैं। वे वर्तमान युग में व्यवहार में नहीं हैं। संस्कृत को लेकर यही सोच या फिर यही रणनीति ब्रिटिश शासकों की रही। लेकिन इस पूरी सोच या रणनीति में एक मुख्य कमी थी। संस्कृत सचमुच मृत भाषा नहीं थी। वह अभी भी केवल पूजा-पाठ या फिर कुछ रस्में निभाने के काम ही नहीं आ रही है, बल्कि उसमें आधुनिक साहित्य भी लिखा जा रहा है। दैनिक बोलचाल में संस्कृत भाषा का प्रयोग करने वालों की संख्या कम जरूर है, लेकिन आम बोलचाल में उसका प्रयोग नहीं होता, यह नहीं कहा जा सकता।

अंग्रेजों को डर था, यदि संस्कृत भाषा का अध्ययन स्कूल-कालेजों में संस्कृत के माध्यम से ही शुरू हो गया, तो बोलचाल में संस्कृत भाषा का प्रयोग करने वालों की संख्या बढ़ने लगेगी। उसके चलते यह देश अपनी संस्कृति और विरासत से जुड़ा रहेगा। ब्रिटेन की सरकार की धूर्तता की यह इंतहा मानी जाएगी कि उसने संस्कृत भाषा के विभागों के माध्यम से ही संस्कृत को मारने का अभियान चलाया और कुछ सीमा तक उनको इसमें सफलता भी मिली। यह अलग बात है कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद की स्वदेशी सरकार ने भी संस्कृत को लेकर मोटे तौर पर उसी ब्रिटिश नीति को जारी रखा। लेकिन जैसा कहा गया है कि काल्पनिक तथ्य को आधार बना कर लिखा गया शोध प्रबंध ज्यादा देर टिक नहीं पाता, उसी प्रकार संस्कृत मृत भाषा है-इस काल्पनिक तथ्य को आधार बना कर स्थापित विदेशी आडंबर ज्यादा देर टिक नहीं पाया और संस्कृत के व्यावहारिक प्रयोग में वृद्धि ही हुई है, कमी नहीं। 2011 की जनगणना में इसको लेकर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। इन आंकड़ों के अध्ययन से पता चलता है कि एक संतोषजनक संख्या उन लोगों की विद्यमान है, जिनकी मातृभाषा संस्कृत है। रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्ज के कार्यालय से मिली जानकारियों से पता चलता है कि बहुत बड़ी संख्या में पत्र-पत्रिकाएं आज भी देश के हर हिस्से से संस्कृत भाषा में प्रकाशित हो रही हैं। संस्कृत भाषा में शोध पत्र लिखे जा रहे हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से संस्कृत में समाचार प्रसारित होते हैं। संस्कृत भाषा में फिल्में बन रही हैं। संस्कृत भारती नामक संस्था बोलचाल में संस्कृत भाषा का प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाती है। वर्तमान भारत सरकार ने भी इस दिशा में प्रयास किए हैं। ऐसे में जब किसी विधानसभा या लोकसभा में कोई सदस्य संस्कृत भाषा में शपथ लेता है, तो भाषा को स्वतः प्राणवायु प्राप्त होती है। हिमाचल प्रदेश में इस प्रकार की परंपरा शांता कुमार ने शुरू की थी। मेरे ध्यान में है, जब वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने संस्कृत में शपथ ग्रहण की थी। उसी परंपरा को आज सुरेश भारद्वाज और गोविंद ठाकुर ने आगे बढ़ाया है।

अभी हिमाचल प्रदेश विधानसभा का पहला सत्र होगा, तो सभी नवनिर्वाचित सदस्य शपथ ग्रहण करेंगे। आशा करनी चाहिए कि बड़ी संख्या में सदस्य संस्कृत में शपथ लेंगे। यह केवल हिमाचल प्रदेश में ही संभव हो सकता है, क्योंकि यहां दसवीं कक्षा तक संस्कृत एक प्रकार से अनिवार्य विषय है, इसलिए सभी सदस्य संस्कृत भाषा जानते हैं। संस्कृत भाषा में शपथ लेना केवल कृत्रिम रस्म नहीं होगी, बल्कि जीवंत परंपरा का हिस्सा होगी। संस्कृत भाषा का भाजपा-कांग्रेस की राजनीति से भी कुछ लेना-देना नहीं है। इसके विपरीत राजा वीरभद्र सिंह के राजवंश ने तो सदा ही अपने शासन काल में संस्कृत को प्रश्रय दिया है। विधानसभा में संस्कृत में शपथ लेना भी उसी परंपरा को प्रश्रय देना है। विक्रमादित्य तो संस्कृत में शपथ लेकर इस परंपरा को आगे बढ़ा ही सकते हैं। जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि संस्कृत संस्कार की भाषा है, इसलिए संस्कृत में शपथ लेकर सदस्य विधानसभा में एक नए स्वस्थ संस्कार की शुरुआत तो कर ही सकते हैं।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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