बौद्धिक दृष्टिकोण

By: Feb 24th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

वृक्ष पूजा और सर्प पूजा सदा साथ होती है। वृक्ष तो सदा होना ही चाहिए और वृक्ष किसी प्रकार सर्प से संबंधित है। ये प्राचीनतम पूजा के रूप हैं। यहां भी तुम देखते हो कि कोई विशेष वृक्ष अथवा कोई विशेष पत्थर पूजा जाता है, संसार के सब वृक्ष अथवा पत्थर नहीं पूजे जाते। रूपों की उपासना की एक उच्चतर अवस्था पूर्वजों और ईश्वर की प्रतिमाओं का पूजन है। लोग दिवंगत मनुष्यों की मूर्तियों और ईश्वर की कल्पित प्रतिमाएं बनाते हैं और फिर इन मूर्तियों और प्रतिमाओं को पूजते हैं। इससे उच्चतर उपासना दिवंगत संतों और सतकर्मी स्त्री-पुरुषों की है। मनुष्य उनके अवशेषों को पूजते हैं। वे अनुभव करते हैं कि किसी प्रकार इन अवशेषों में संतों का आभास है और वह उनकी सहायता करेगा। वे विश्वास करते हैं कि यदि वे संत की अस्थियों का स्पर्श करेंगे, तो रोगमुक्त हो जाएंगे। यह नहीं कि अस्थियां रोग शमन करती हैं, वरन यह कि उनमें जो संत रहता है, वह करता है। यह सब उपासना की निम्न अवस्थाएं हैं और फिर भी उपासना है। हम सबको उनमें से पार होना पड़ता है। केवल बौद्धिक दृष्टिकोण से ही उनमें कमी पाई जाती है। अपने हृदय में हम उनसे छुटकारा नहीं पा सकते। यदि तुम किसी मनुष्य से सब संत और प्रतिमाएं छीन लो और उसे मंदिर में न जाने दो, तो भी वह सारे देवताओं की कल्पना कर लेगा, उसे करनी होगी। एक अस्सी वर्ष के बूढ़े ने मुझ से कहा कि वह ईश्वर की कल्पना बादल पर बैठे हुए एक लंबी दाढ़ी वाले बूढ़े मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता। यह क्या दर्शाता है? उसका शिक्षण पूर्ण नहीं है। उसको आध्यात्मिक शिक्षा बिलकुल नहीं मिली है और वह मानव स्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की कल्पना करने में असमर्थ है। औपचारिक उपासना का एक इससे ऊंचा स्तर भी है। प्रतीकवाद का जगत रूप वहां भी है। पर वे न वृक्ष, न पत्थर, न प्रतिमाएं और न संतों के अवशेष, वे प्रतीक हैं। संसार भर में सभी प्रकार के प्रतीक हैं। वृत्त नित्यता का महान प्रतीक हैं, वर्ग है, हमारा सुपरिचित प्रतीक क्रूश है और एस और जेड के समान एक दूसरी को काटती हुई दो अंगुलियां हैं। कुछ लोग प्रतीकों से कोई भी अर्थ न ग्रहण करने का निश्चय कर लेते हैं और दूसरे उनमें सब प्रकार के जादू-टोने चाहते हैं। यदि तुम उन्हें सीधी सच्चाई बताते हो, तो वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है वे समझते हैं कि तुम जितना कम समझते हो, तुम उतने ही अधिक अच्छे अधिक महान हो। सभी युगों में, सभी देशों में उपासक कुछ चित्रों और रूपों द्वारा ठगे जाते हैं। ज्यामिति सब विज्ञानों में श्रेष्ठतम थी। अधिकांश जनता उसके बारे में कुछ नहीं जानती थी। उनका विश्वास था कि यदि ज्यामिति शास्त्री बस एक वर्ग खींच दे और उसके चारों कोनों पर जादू का मंत्र फूंक दे, तो सारा संसार पलटने लगेगा, आकाश फट जाएगा, ईश्वर नीचे आ जाएगा और इधर-उधर उछलेगा और दास बन जाएगा। आज ऐसे पागलों का एक पूरा समुदाय है, जो दिन-रात ऐसी बातों में धुंध रहता है। यह सब एक प्रकार का रोग है। यहां आवश्यकता दार्शनिक की नहीं, डाक्टर की है। मैं मजाक उड़ा रहा हूं, पर मुझे दुःख है, भारत में मुझे यह समस्या बहुत गंभीर  लगती है। ये जाति के विनाश, अधःपतन और संकट के चिन्ह हैं।


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