भारतीय लोकतंत्र के अप्रिय पहलू

By: Feb 16th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

लोकतंत्र का मतलब केवल यह नहीं है कि नियमों को लिख भर दिया जाए। इसकी अपनी एक आत्मा होती है जो सहभागिता के आधार पर काम करती है तथा जिसमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना होती है। आम सहमति की परंपरा विकसित करने तथा राष्ट्रीय हितों के लिए निजी हितों की कुर्बानी देने की परिपाटी शुरू होनी चाहिए। अगर मूल्यों की कुर्बानी इसी तरह दी जाती रही व संवैधानिक पदों का अपमान जारी रहा, तो यह संस्थान जीर्ण-शीर्ण व खोखला हो जाएगा…

भारत में कई ऐसे नेता हैं, जो इस बात पर गर्व करते हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यदि ऐसा है तो इतने बड़े आकार व सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली में कार्यशैली के ऐसे दावों का सरकारात्मक पक्ष क्या है? वहीं, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन का सफल नेतृत्व करने वाले वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल इस प्रणाली को सरकार का सबसे खराब रूप मानते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह सरकार उपयोगितावाद के मूल सिद्धांत ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ पर आधारित है, परंतु यह भी आवश्यक है कि सरकार का संचालन योग्य तथा सकारात्मक आचरण के मूल्यों में विश्वास रखने वाले लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। कई व्यावहारिक अध्ययनों के परिणाम बताते हैं कि यह सरकार सुस्त तथा कम महत्त्वहीन होती है, जिसकी पूर्व शर्त है कि लोगों को सद्मूल्यों का अनुपालन करना चाहिए।

हाल में लोकसभा में भी लोकतंत्र पर पक्ष-विपक्ष में बहस चली। जो सांसद इस मत में विश्वास रखते हैं कि कांग्रेस ही लोकतंत्र है, उन लोगों को याद दिलाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिपादित किया कि भारत में लोकतंत्र युगों पुरानी पंचायती राज व्यवस्था तथा सहभागी शासन व्यवस्था की परिपाटियों का परिणाम है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पश्चिमी व्यवस्था भारत में प्रचलित रही राज व्यवस्था से नई है। भारत की मिसाल यह है कि यहां राजा मंत्रिमंडल तथा आम लोगों की सहभागिता से शासन करते रहे हैं। सहभागी शासन का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह था कि इसमें सलाह-मशविरे तथा पारदर्शिता से काम होते थे। प्राचीन भारतीय व्यवस्था में राजा द्वारा धर्म के अनुपालन पर बहुत जोर दिया जाता था। अंकुश लगाने वाला यह तत्त्व शासक की गतिविधियों को नियंत्रित करता था।

सुकरात की मान्यताओं को प्रतिपादित करने वाले अफलातून ने भी शासन व्यवस्था के लिए दार्शनिक राजा की संकल्पना की थी, जिसका काम लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करना था। लेकिन सरकार का ऐसा रूप, जो संसदीय प्रणाली के समान था, का इस यूनानी दार्शनिक ने भीड़तंत्र कहकर मजाक उड़ाया था। भारतीय संसद के दोनों सदनों में आजकल हम जो देख रहे हैं, वह अफलातून द्वारा की गई सरकार की इस उपहासपूर्ण व्याख्या से कम नहीं है। दोनों सदनों में विपक्ष सरकार को तर्क व वाद-विवाद के बजाय हुल्लड़बाजी व नारेबाजी से घेर रहा है। कांग्रेस के इस तर्क का कोई विरोध नहीं कि उसने यह सब कुछ भाजपा से ही सीखा है, जब वह विपक्ष में रहकर सदन में हुल्लड़बाजी करती थी। भाजपा ने एक गलत मिसाल पेश की, परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि बुरा जो है, उसका अनुपालन कर वह अच्छा हो जाएगा। जब हम यह जानते हैं कि मात्र शोर-शराबा कोई समाधान नहीं है, तो समस्याओं के समाधान के लिए वाद-विवाद व परिचर्चा का मार्ग अपनाया जाना चाहिए। स्थिति इस हद तक बिगड़ चुकी है कि सदन में कोई भी सदस्य घटिया हरकत कर सकता है, सीटियां बजा सकता है और शैतानों जैसी बेढंगी हंसी हंस सकता है। एक मिसाल राज्यसभा सदस्य रेणुका चौधरी की है जो हाल में सदन में कुटिल हंसी हंसती देखी गईं। यह वाकया उस समय हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना संबोधन शुरू किया। इस तरह मुंह बनाकर हंसना प्रधानमंत्री का उपहास उड़ाने के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता। इससे प्रधानमंत्री को निश्चित रूप से आघात पहुंचा होगा, लेकिन उन्होंने इसे जाहिर नहीं होने दिया और नम्रतापूर्वक सभापति से आग्रह किया कि वह रेणुका चौधरी को हंसने दें क्योंकि उन्होंने रामायण के बाद दूसरी बार इस तरह की हंसी सुनी है। प्रधानमंत्री के मात्र यह कहने भर से लंबे समय तक विवाद चलता रहा और कहा जा रहा है कि रेणुका चौधरी एक महिला हैं और महिलाओं से समान व्यवहार नहीं हो रहा है।

अद्भुत बात यह है कि इस महिला सदस्य ने ऐसा व्यवहार किया जो एक सभ्य महिला कभी नहीं करती। यह मसला अब महिला से अनुचित व्यवहार का बन गया है क्योंकि प्रधानमंत्री ने जो टिप्पणी की, उसका तात्पर्य अब रामायण की पात्र शूर्पणखा से लिया जा रहा है जिसकी नाक लक्ष्मण ने राम से किए गए व्यवहार के कारण काट दी थी। प्रधानमंत्री ने कभी भी यह खुले रूप से नहीं कहा, लेकिन स्पष्ट रूप से इसका मतलब अब यही लिया जा रहा है। इस तरह एक अनावश्यक मसला राज्यसभा में पक्ष व विपक्ष के बीच बहस का मसला बन गया। इससे सदन की कार्यवाही बाधित हुई। राज्यसभा को ऊपरी सदन इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर ज्यादा संवेदनशीलता होती है और परिचर्चा का स्तर बहुत ऊंचा होता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात अब यह है कि राज्यसभा के साथ-साथ लोकसभा में भी अब चर्चा व बहस के लिए अनावश्यक व अप्रासंगिक मसले आ जाते हैं। यह सब कुछ दोनों सदनों की कार्यशैली को उघाड़ता है, जहां व्यापक हितों के लिए राष्ट्रीय समस्याओं पर चर्चा के बजाय महत्त्वहीन मसलों पर सदस्य आपस में भिड़ रहे हैं। सदन अपनी गंभीरता खो रहे हैं। इसी से पता चलता है कि यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि भीड़तंत्र है। जरूरत इस बात की है कि सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों संसद की प्रासंगिकता बनाए रखने व उसकी कार्यशैली में सुधार लाने के लिए मिलकर काम करें। अगर संविधान में बदलाव की जरूरत हो तो वे भी किए जाने चाहिएं। दूसरे देशों, विशेषकर अमरीकी संविधान से कुछ सीखना हो तो संबद्ध संशोधन किए जाने चाहिएं। संशोधन के लिए आम सहमति बनानी होगी तथा सदन जो गंभीरता खो रहे हैं, उसकी पुनर्स्थापना करनी होगी।

अनावश्यक मसलों पर हुल्लड़बाजी की परंपरा जल्द रोकनी होगी। संसद की कार्यशैली में सुधार लाए जाने चाहिएं। लोकतंत्र का मतलब केवल यह नहीं है कि नियमों को लिख भर दिया जाए। इसकी अपनी एक आत्मा होती है जो सहभागिता के आधार पर काम करती है तथा जिसमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना होती है। आम सहमति की परंपरा विकसित करने तथा राष्ट्रीय हितों के लिए निजी हितों की कुर्बानी देने की परिपाटी शुरू होनी चाहिए। अगर मूल्यों की कुर्बानी इसी तरह दी जाती रही व संवैधानिक पदों का अपमान जारी रहा, तो यह संस्थान जीर्ण-शीर्ण व खोखला हो जाएगा। इसके लिए जरूरी है कि संसद में पहुंचने वाले लोग उच्च आदर्शों को स्थापित करें। हमारे कानून निर्माताओं को चिंता करनी होगी कि वर्तमान में संसद का स्वरूप कितना बिगड़ गया है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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