आम आदमी के लिए न्याय कहां ?

By: Mar 23rd, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

अगर सभी को न्यायालय से बिना किसी पक्षपात, भ्रष्टाचार व कोई अन्य समस्या के न्याय मिल जाता है, तो इससे समाज में अच्छा, ईमानदार व सुरक्षित जीवन सुनिश्चित हो जाता है। यह सर्वाधिक मूलभूत मूल्य है तथा यदि हम प्राचीन शिक्षाओं को देखें तो हमें पता चलेगा कि किसी देश के शासन में यह सबसे ऊंचे शिखर पर विराजमान होता है। प्राचीन भारतीय चिंतक चाणक्य ने भी इसके बारे में बात की है तथा कहा था कि अगर राजा भ्रष्ट है तथा लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है तो लोग भी भ्रष्ट हो जाते हैं…

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन ने एक बार कहा था कि देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के समान है। उनका यह वक्तव्य भारत में न्यायपालिका की प्रणाली व स्थिति पर समुचित रूप से लागू होता है। भारत के न्यायालयों में 1.3 करोड़ मामले पांच साल से भी अधिक अवधि से फाइलों में निपटाने के लिए लंबित पड़े हुए हैं और इसका कोई उपचार अभी भी दिखाई नहीं दे रहा है। मेरे विचार से किसी देश में नागरिक की सर्वाधिक आवश्यकता सुरक्षा तथा न्याय की स्थिति में रहना होता है। यहां तक कि सुरक्षा भी समाज में समानता व न्याय की प्रणाली पर आधारित होती है। जंगल के कानून में स्थिति यह होती है कि सही और गलत में भेद किए बिना ज्यादा शक्ति वाले लोग कम शक्ति वाले लोगों पर जघन्य तरीके से शक्ति का प्रयोग करते हैं। एक सभ्य समाज व्यवहार के सही आचरण को सुनिश्चित बनाता है। इसमें सभी को न्याय मिलता है तथा जंगल के कानून को परे हटाते हुए कानून का शासन चलता है। अगर आपको न्याय मिलता है तो अन्य चीजें स्वयं ही ठीक हो जाती हैं। मिसाल के तौर पर महिलाओं की समानता अथवा नागरिकों की समानता के मसले को लेते हैं। अगर सभी को न्यायालय से बिना किसी पक्षपात, भ्रष्टाचार व कोई अन्य समस्या के न्याय मिल जाता है, तो इससे समाज में अच्छा, ईमानदार व सुरक्षित जीवन सुनिश्चित हो जाता है। यह सर्वाधिक मूलभूत मूल्य है तथा यदि हम प्राचीन शिक्षाओं को देखें तो हमें पता चलेगा कि किसी देश के शासन में यह सबसे ऊंचे शिखर पर विराजमान होता है।

प्राचीन भारतीय चिंतक चाणक्य ने भी इसके बारे में बात की है तथा कहा था कि अगर राजा भ्रष्ट है तथा लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है तो लोग भी भ्रष्ट हो जाते हैं। यह दुख का विषय है कि लोकतंत्र व न्याय के हमारे दावों के बावजूद लोगों को यह सुविधाएं तथा मूल्य उपलब्ध करवाने में हम विफल रहे हैं। लोकतंत्र का मतलब केवल यह नहीं है कि अधिकतम संख्या शासन करे। लोकतंत्र से अभिप्राय सहभागिता वाली संस्कृति के उच्च मूल्य से है। इसमें लोग एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करते हैं, लोगों को अपने शासकों को चुनने की स्वतंत्रता होती है। इसका मतलब उन लोगों को शक्ति सौंप देने मात्र से नहीं है जिन्हें शासन करना होता है। अगर कानून के शासन को लागू नहीं किया जाता है तो समाज में भ्रष्टाचार व अराजकता फैल जाएगी। भ्रष्टाचार, अपराध और लैंगिक पक्षपात तभी होता है जब न्याय प्रणाली ठीक ढंग से काम नहीं कर पाती है। भारत में न्यायपालिका हालांकि गौरव व सम्मान की पात्र है, इसके बावजूद यह मूलतः दो कारणों के चलते सभी को न्याय उपलब्ध करवाने में विफल रही है। पहला कारण यह है कि देश में न्यायाधीशों की कमी है, कई पद खाली पड़े हैं। दूसरा कारण यह है कि हमारी वैधानिक प्रणाली जीर्ण-शीर्ण, पुरातन व अपर्याप्त है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने न्याय में देरी पर अप्रसन्नता व्यक्त की तथा जांच एजेंसियों को निर्देश भी दिया कि वह टू जी स्पेक्ट्रम मामले में दो माह में जांच कार्य को पूरा करें। सुनवाई के लिए मामलों के आवंटन को लेकर सुप्रीम कोर्ट की अपनी प्रणाली भी सवालों के घेरे में है। इसे भीतर से ही चुनौतियां मिल रही हैं। भारत की न्यायपालिका की सबसे बड़ी खामी यह है कि यहां नए नियुक्त न्यायाधीश केवल उन्हीं न्यायाधीशों के प्रति जिम्मेवार होते हैं जिन्होंने उनकी नियुक्ति की होती है। विश्व के किसी भी अन्य देश में इस तरह की व्यवस्था नहीं है। इस तरह की लचर प्रणाली का सबसे बुरा प्रभाव यह है कि यहां राजनेता मामलों के निपटारे में देरी का लाभ उठाते हुए भ्रष्टाचार फैलाते रहते हैं तथा उन्हें सजा हो ही नहीं पाती है। मामले कई-कई वर्षों तक लटके रहते हैं।

अभियोजक कई बार मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, गवाहों को प्रभावित करना आसान हो जाता है तथा सबूतों को नष्ट भी कर दिया जाता है। केस खत्म करने पड़ते हैं तथा गवाह थक-हार जाते हैं। इसके कारण राजनेताओं व अपराधियों में गठजोड़ बहुत आसान हो जाता है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा है कि आज भारत में 36 फीसदी नेता, जिनकी संख्या 60 हजार बनती है, अपराधों में संलिप्त हैं तथा उन पर केस चल रहे हैं। इन नेताओं पर भले ही मामले अभी अभियोजन के स्तर पर हैं तथा इनमें फैसले आने बाकी हैं, फिर भी सवाल उठता है कि ऐसे नेताओं को संसद अथवा विधानसभाओं में चयनित कर क्यों भेजा जाए, इनकी वहां पर घुसपैठ क्यों हो। जो लोग कानूनों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें कानून निर्माण करने वाली संस्थाओं का भाग नहीं होना चाहिए। हमारा कानून है कि जब तक अभियोजन की कार्रवाई पूरी नहीं होती, तब तक किसी को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। ऐसी स्थिति में आपराधिक छवि वाले लोग भी संसद या विधानसभाओं में प्रवेश पा लेते हैं। उन पर कोई रोक-टोक नहीं है। कई बार ऐसा भी होता है कि इसके कारण अच्छी छवि वाले लोग चुनाव नहीं जीत पाते हैं और वे आपराधिक छवि वाले लोगों से हार जाते हैं। इससे सरकार में ईमानदार लोगों का प्रवेश बंद हो जाता है। इसका समाधान यह है कि कुछ ऐसे विशेष न्यायालय बनाए जाएं जो इस तरह के अपराधों में संलिप्त नेताओं के मामलों की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर करें तथा मामलों का निपटारा जल्द से जल्द हो। ऐसी स्थिति में जबकि देश में बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है, यह बात समझ से परे है कि देश के विभिन्न न्यायालयों में खाली पड़े न्यायाधीशों के पद क्यों नहीं भरे जा रहे हैं। इस समय देश में 12177 न्यायाधीश कार्यरत हैं, जबकि इनकी कमी अभी भी है। ऐसी गंभीर स्थिति में पदों को न भरना चिंता का विषय है। इसके लिए विशेष भर्ती अभियान चलाना चाहिए। यह प्रावधान भी होना चाहिए कि हमारे न्यायालय डिजीटल युग के अनुरूप स्तरोन्नत किए जाएं। न्यायालयों का आधुनिकीकरण होना चाहिए, फर्जी मामलों का अभियोजन रोकना चाहिए तथा एक ही केस कई-कई न्यायालयों में नहीं चलने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार के लिए पहल करनी चाहिए।

राष्ट्रीय विधि आयोग को न्याय प्रणाली में कुशलता के लिए काम करना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार इस दिशा में काम नहीं करेगी तो कौन करेगा। हाल में कुछ न्यायाधीश काम के बंटवारे को लेकर सार्वजनिक रूप से सामने आए थे। इससे न्यायालय की किरकिरी हुई थी। ऐसा दोबारा न हो, इसके उपाय करने होंगे। यह सही समय है कि लोगों को न्याय मिलना चाहिए। न्यायालय को संसद के प्रति अपनी जिम्मेवारी को भी समझना होगा। न्यायालय गैर जिम्मेवार नहीं हो सकते। हमारी जग-हंसाई न हो, इसके उपाय करने होंगे।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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