त्रिपुरा के चुनावों में राष्ट्रवादी ताकतों की जीत

By: Mar 10th, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

वामपंथियों और राष्ट्रवादियों में अंतिम लड़ाई शुरू हुई, जिसका परिणाम तीन मार्च को सामने आया। सीपीएम अपना यह अंतिम किला नहीं बचा सकी। भाजपा ने उसे बीच चौराहे पर चित्त कर दिया। 2018 के  इन चुनावों में  त्रिपुरा में कहने भर के लिए लेफ्ट फ्रंट था, लेकिन असल में वह सीपीएम ही थी। फ्रंट में एक- एक सीट सीपीआई ए रिवोलूशनरी पार्टी ऑफ  इंडिया और आल इंडिया फार्वर्ड ब्लाक को दे देने के बाद शेष 57 सीटें सीपीएम ने ही लड़ीं।  सीपीएम ने 57 सीटें लड़ कर 16 पर कब्जा जमा लिया…

तीन मार्च को त्रिपुरा के चुनाव परिणाम आने शुरू हुए तो देश की साम्यवादी ताकतों को सबसे बड़ा झटका लगा। देश में उनका दूसरा और अंतिम गढ़ भी ढह गया। उनका पहला और बडा किला तो पश्चिमी बंगाल था, जिसे ममता बनर्जी ने कुछ साल पहले ध्वस्त कर दिया था। बहुत ही मेहनत से तीस साल में तैयार किए गए उनके नेटवर्क को ममता ने गिरा दिया था। दरअसल वामपंथियों का यह नेटवर्क भय से संचालित था और इसी के बलबूते आम बंगाली को डराता था। ममता ने उसे आम बंगाली में हिम्मत जगा कर नष्ट कर दिया। लोगों में भय उत्पन्न करके, ज्यादा देर तक नकेल नहीं डाली जा सकती। एक स्थिति ऐसी आ ही जाती है जब लोग भय से संचालित होना बंद कर देते हैं। बंगाल में यही हुआ।   तब वामपंथियों ने अपनी पूरी ताकत लगा कर अपना छोटा किला, त्रिपुरा बचाने की कोशिश की । इस किले पर पिछले पच्चीस साल से लाल झंडा फहरा रहा था।  त्रिपुरा में 1998 से सीपीएम का कब्जा है। उससे पहले भी दस साल तक सचिवालय पर उनका कब्जा रहा था। इस किले पर भी वामपंथियों का नेटवर्क भय पर ही आधारित था और इसी नेटवर्क  से वे आम आदमी को डराते थे और लाल सलाम के लिए विवश करते थे। इस बार भी साम्यवादियों ने अपनी ओर काफी मजबूत मोर्चेबंदी की थी। क्योंकि वे जानते थे कि उनके लिए हिंदोस्तान में यह उनकी अंतिम लड़ाई साबित होने वाली थी। सबसे बड़ी बात उनका किलेदार ईमानदार था और वे उसकी ईमानदारी की ढाल से किले को कब्जाए रखना चाहते थे, लेकिन किसी ने सही टिप्पणी की कि साम्यवादी सरकार ने पिछले पच्चीस साल में त्रिपुरा को माणिक सरकार की व्यक्तिगत ईमानदारी के सिवा कुछ नहीं दिया । त्रिपुरा को पिछड़ा रखने में साम्यवादियों का अपना स्वार्थ था। यदि त्रिपुरा तरक्की कर गया, तो आम नागरिक उनके भय पर आधारित नेटवर्क से मुक्त हो जाएगा। जैसे पुराने राजा- महाराजा स्कूल खोलने से डरते थे, ताकि लोगों में जागृति न आ जाए। उसी प्रकार साम्यवादी विकास से डरते हैं कि लोग उनके पंजे से मुक्त न हो जाएं।

कांग्रेस में अब न तो साम्यवादियों का मुकाबला करने की हिम्मत बची थी और न ही मंशा। इसके विपरीत लोगों को शक था कि कांग्रेस राष्ट्रवादियों को हराने के लिए साम्यवादियों के साथ समझौता करने  की सीमा तक भी जा सकती है। इसलिए त्रिपुरा में सभी को लगने लगा था कि यदि कोई इस प्रदेश को वाम शिकंजे से मुक्त करवा सकता है, तो वह भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों का समूह ही हो सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों को यह अजीब लग सकता है कि त्रिपुरा के लोग उस भाजपा में विश्वास प्रकट कर रहे थे, जिसकी इस प्रदेश में 1967 में हुए पहले चुनावों से लेकर 2013 में हुए विधानसभा चुनावों तक कभी एक सीट भी नहीं  रही थी। त्रिपुरा में 1967 में पहली विधान सभा के चुनाव हुए थे और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया था। 1967 में जनसंघ ने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 1506 वोट मिले थे। 1972 में जनसंघ ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था और तीनों पर जमानत जब्त करवाई थी। उसे तीनों सीटों पर कुल 345 वोट मिले थे। 1977 में जनता पार्टी की आंधी में भी जनता पार्टी कोई सीट जीत सकी थी। तब सीपीएम ने अपने बलबूते 51 सीटें जीतीं थीं। 1983 में भाजपा ने चार सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे केवल 578 मत मिले । 1988 में उसने दस सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल 1757 वोट हासिल किए। 1993 में उसने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा। 36 में जमानत जब्त करवाई और कुल मिला कर 27078 वोट मिले।

1998 में उसने साठ उम्मीदवार मैदान में उतारे, 58 की जमानत जब्त हुई और कुल 80272 वोट मिले। 2003 में भाजपा के 21 मैदान में थे। सभी की जमानत जब्त हुई और 20032 वोट मिले। 2008 में उसके 49 प्रत्याशी मैदान में थे। सभी की जमानत जब्त हुई और केवल 28102 वोट मिले। 2013 में उसके पचास प्रत्याशी मैदान में थे। 49 की जमानत जब्त हुई और कुल मिला कर 33808 वोट यानी 1.5 प्रतिशत मत मिले। यह कथा तो है त्रिपुरा में भाजपा के होने या न होने की, लेकिन सीपीएम की कहानी इसके विपरीत है। उसकी कहानी शिखर से नीचे उतारे जाने की कहानी है। सीपीएम ने 1978 में 56 सीटें जीत कर सचिवालय पर कब्जा कर लिया था। उसने यह कब्जा 1982 में भी 39 सीट जीत कर बरकरार रखा, लेकिन 1987 में उसे 28 सीटें मिलीं और सत्ता उसके हाथ से खिसक गई, लेकिन सत्ता खिसक गई। इतने से कथा पूरी नहीं हो जाती। हारने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नृपेण चक्रवर्ती ने यह कह कर धमाका कर दिया कि सीपीएम सब से भ्रष्ट पार्टी है। 1993 में एक बार फिर सीपीएम ने सचिवालय पर कब्जा जमाया और दशरथ देव राज्य के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उसके तुरंत बाद 1995 में सीपीएम ने नृपेण चक्रवर्ती को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। पार्टी का कहना था कि नृपेण दा दल का अनुशासन भंग कर रहे हैं, लेकिन नृपेण दा का कहना था पार्टी भ्रष्टाचार के दलदल में फंसती जा रही है। उसके बाद पार्टी ने पच्चीस साल तक त्रिपुरा पर कब्जा जमाए रखा। अलबत्ता 1998 में पार्टी ने दशरथ देव की जगह माणिक सरकार को मुख्यमंत्री बना दिया और अंत में 2017 में वामपंथियों और राष्ट्रवादियों में अंतिम लड़ाई शुरू हुई, जिसका परिणाम तीन मार्च को सामने आया। सीपीएम अपना यह अंतिम किला नहीं बचा सकी। भाजपा ने उसे बीच चौराहे पर चित्त कर दिया। 2018 के  इन चुनावों में  त्रिपुरा में कहने भर के लिए लेफ्ट फ्रंट था, लेकिन असल में वह सीपीएम ही थी। फ्रंट में एक- एक सीट सीपीआई ए रिवोलूशनरी पार्टी ऑफ  इंडिया और आल इंडिया फार्वर्ड ब्लाक को दे देने के बाद शेष 57 सीटें सीपीएम ने ही लड़ीं।  सीपीएम ने 57 सीटें लड़ कर 16 पर कब्जा जमा लिया। पिछली बार उसे 49 सीटें मिलीं थीं, लेकिन वोट उसने 42.7 प्रतिशत झटक लिए। भाजपा ने 51 सीटें लड़ीं और शेष 9 सीटें उसने अपने सहयोगी दल आईपीएफटी के लिए छोड़ दीं। सोनिया कांग्रेस ने 59 सीटों पर अपने महारथी उतारे। उसे 1.8 प्रतिशत वोट तो मिले, लेकिन सीट उसके हिस्से कोई नहीं आई। पिछले चुनाव में उसे दस सीटें मिलीं थीं।

भारतीय जनता पार्टी ने 51 में से 35 सीटें जीतीं और 43 प्रतिशत वोट हासिल किए। उसके सहयोगी दल आईपीएफटी ने नौ में से 8 सीटें झटक लीं। उसे 7.5 प्रतिशत मत मिले। अब केवल एक शेष बचा सवाल। सीपीएम का एक तीसरा किला भी है। यह केरल का है, लेकिन वामपंथी भी जानते हैं कि केरल वामपंथियों का किला की नहीं रहा। यह जान बूझ कर फैलाया गया भ्रम है। वहां दो गठबंधन हैं। एक कांग्रेस का और दूसरा सीपीएम का। दोनों ने अपने साथ छोटी- छोटी अनेक पार्टियां जोड़ रखी हैं। ये पार्टियां अपनी सुविधा के अनुसार पाला बदलती रहती हैं, लेकिन इससे न तो सीपीएम को कोफ्त होती है और न ही मिशनरियां को।

राज्य में एक बार कांग्रेस का गठबंधन जीतता है, तो दूसरी बार साम्यवादियों का दूसरा गठबंधन । केरल अनिश्चित है उसी प्रकार जिस प्रकार विश्व में साम्यवाद अनिश्चित हो गया है,  लेकिन त्रिपुरा में भाजपा के जीत जाने के अर्थ केवल इतना नहीं हैं कि एक पार्टी हार गई है और दूसरी जीत गई है। त्रिपुरा में भाजपा की आमद का अर्थ है कि भारत के लोगों ने मडहबीवाद और साम्यवाद दोनों को ही नकार दिया है

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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