प्राकृतिक खेती से ही संभव कृषि क्रांति

By: Mar 20th, 2018 12:05 am

शरद गुप्ता

लेखक, शिमला से हैं

प्रकृति की बनाई इस सुंदर व्यवस्था को बनाए रखने में क्यों न हम भी अपना सहयोग करें? सुभाष पालेकर ने वर्ष 1990 में भारत में शून्य लागत खेती की संकल्पना की थी। इस क्षेत्र में कार्य के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है…

आज हिमाचल में की जाने वाली कृषि व बागबानी में भी रासायनिक खादों व कीटनाशकों का भरपूर प्रयोग हो रहा है। फसल का उत्पादन बढ़ाने तथा पौधों को बीमारियों और कीड़ों के प्रकोप से बचाने के उद्देश्य से किसान इनका प्रयोग कर रहा है। शायद वह इस बात से अनभिज्ञ है कि वह अपने बच्चों को भी जहर ही परोस रहा है। आखिर पौधों को रासायनिक खादों और कीटनाशकों की आवश्यकता क्यों पड़ने लगी? इतिहास के पन्नों को पलटें तो प्रतीत होता है कि हरित क्रांति के आने से पहले किसान प्राकृतिक रूप से ही खेती करते थे। बीमारियां भी कम थीं और फसल भी अच्छी होती थी, लेकिन आज जिस तरह से हम खेती कर रहे हैं, ऐसा लग रहा है कि हमने प्रकृति की बनाई व्यवस्था से छेड़छाड़ करना आरंभ कर दिया है। जिसके गंभीर परिणाम हमें कैंसर इत्यादि जैसी भयंकर बीमारियों के रूप में देखने को मिल रहे हैं। हरित क्रांति के आने से रासायनिक खादों का भरपूर इस्तेमाल होने लगा है। परिणामस्वरूप फसलों के उत्पादन में भी आश्चर्यजनक बढ़ोतरी दर्ज की गई, लेकिन लंबे समय तक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग करने से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता क्षीण होती चली गई।

आज यदि पंजाब की तरफ देखें, तो वहां की मिट्टी रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते अपनी उपजाऊ क्षमता लगभग खो चुकी है। हाल ही में महाराष्ट्र की सड़कों पर उतरी हजारों किसानों की भीड़ एक अच्छे भविष्य का संकेत नहीं है। किसानों द्वारा कर्जा माफ किए जाने व अन्य मांगों को लेकर प्रदर्शन करना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि देश व प्रदेश के किसानों, बागबानों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक सुदृढ़ पालिसी बनानी चाहिए। एक आकलन के अनुसार हिमाचल में प्रति वर्ष 68490 मीट्रिक टन कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है, जिसकी कीमत लगभग 6000 करोड़ रुपए आंकी गई है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के लिए कर्जे तले दबे किसान इस कद्र लाचार हो जाते हैं कि आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध कर बैठते हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि देश का अन्नदाता ही आत्महत्या कर रहा हो। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में हिमाचल प्रदेश के 32 किसानों ने आत्महत्या की थी, जिसमें 28 किसानों की आत्महत्या का कारण फसल का बर्बाद होना था। क्यों न हम प्रकृति की बनाई व्यवस्था में सहयोग करें? ऐसी ही दूरदर्शी सोच को लेकर हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल  के प्रयासों द्वारा शून्य लागत प्राकृतिक खेती का आरंभ करना वास्तव में एक नई क्रांति का उद्घोष है। इस खेती के माध्यम से जहां किसानों के खेतों की उपजाऊ क्षमता बढ़ेगी, वहीं दूसरी ओर जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग को भी पूरा किया जा सकेगा। शून्य लागत प्राकृतिक खेती में इस्तेमाल होने वाले देशी गाय के गोबर के आलावा गुड़, बेसन और मिट्टी का प्रयोग किया जाता है, जिससे मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की संख्या कई लाख गुना बढ़ जाती है। इसके अलावा इसमें इस्तेमाल होने वाले केंचुए मिट्टी में लाखों छिद्र करके जहां एक तरफ  हवा के आवागमन को सहज करते हैं, वहीं दूसरी तरफ  वर्षा के जल को इन छिद्रों के माध्यम से सरंक्षित करते हैं। प्रकृति की बनाई इस सुंदर व्यवस्था को बनाए रखने में क्यों न हम भी अपना सहयोग करें? सुभाष पालेकर ने वर्ष 1990 में भारत में शून्य लागत खेती की संकल्पना की थी। इस क्षेत्र में कार्य के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। शून्य लागत प्राकृतिक खेती के महत्त्व को समझते हुए प्रदेश सरकार ने 2018-19 के बजट में इसके लिए 25 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। आगामी 5 वर्षों में हिमाचल को जैविक राज्य के रूप में देखना सरकार की गंभीरता और प्रतिबद्धता को दर्शाता है, लेकिन इस योजना को धरातल पर लाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। किसानों को इस प्राकृतिक खेती के लिए प्रेरित करना शुरुआती दौर में मुश्किल भरा हो सकता है। साथ ही उनके द्वारा तैयार किए गए जैविक उत्पादों को बाजार में अच्छे दाम दिलवाना भी एक चुनौती है। इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है। प्रदेश में एक तरफ  जहां शून्य लागत प्राकृतिक खेती का आगाज किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ  विरोधाभासी स्वर भी उठने लगे हैं। विरोधी खेमे का मानना है कि रासायनिक खादों के प्रयोग न होने से फसलों के उत्पादन में गिरावट आएगी। जिन बागबानों ने संकर किस्मों के बागीचे लगाए हैं, वे इस प्राकृतिक खेती की राह कैसे पकड़ पाएंगे? विदेशों से लाई गई अधिक फल देने वाली किस्मों द्वारा भारी भरकम पोषक तत्त्वों की मांग को इस देशी तकनीक द्वारा कैसे पूरा किया जा सकेगा?

यदि इसके सकारात्मक पहलू पर नजर डाली जाए, तो, इस प्राकृतिक खेती को अपनाने वाले किसानों का मानना है कि इससे फसल उत्पादन में कुछ हद तक  गिरावट तो होती है, परंतु ज्यादा नहीं। यह गिरावट शुरुआती तौर पर होगी, हमेशा के लिए नहीं और खुशी की बात यह है कि जैविक खेती का प्रयोग करके कम से कम हम अनाज के रूप में जहर नहीं उगाएंगे। हमारा उद्देश्य मिट्टी को उपजाऊ बनाना है, ताकि लंबे समय तक जहर रहित फसलों का अच्छा उत्पादन किया जा सके। इसके लिए जैविक खेती के अलावा और कोई साधन नहीं है। अगर हम अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए कृषि लायक भूमि बचा के रखना चाहते हैं, तो हमें अभी से जैविक खेती का प्रयोग प्रारंभ करना होगा, नहीं तो आने वाले समय में अनाज की समस्या देश की सबसे बड़ी समस्या बन जाएगी। आने वाले कुछ वर्षों अथवा दशकों तक तो रासायनिक खादों के भरोसे रहा जा सकता है, परंतु हमेशा के लिए ऐसा संभव नहीं है। क्या हम अपनी आने वाली पीढि़यों को वही सोना उगलने वाली जमीन दे पाएंगे, जो हमें विरासत में मिली थी, जोे देश को अनाज और रोजगार उपलब्ध करवा रही है?


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App