विकास का नया मॉडल बनाए हिमाचल

By: Mar 9th, 2018 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा की जो निम्न क्वालिटी है, उसे सुधारने के लिए सरकार को इसे प्राथमिकता देने की सख्त जरूरत है। इस ओर से आंख-कान मूंद लेना आधारभूत शिक्षा की कमर तोड़ने के समान है। इसे यह तर्क देकर जायज नहीं ठहराया जा सकता कि हमारे प्राइवेट स्कूलों में गुणवत्ता वाली शिक्षा है। जब तक शिक्षा के लिए कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं बनता, तब तक इसे उच्च प्राथमिकता देने तथा इस पर नजर रखने की जरूरत है…

-गतांक से आगे…

किसी राज्य के विकास व प्रगति के लिए शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होता है। हिमाचल अपने बारे में यह प्रचार करता रहा है कि उसने राष्ट्रीय शैक्षणिक मापदंडों के अनुकूल इस क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। वास्तविक उपलब्धि साक्षरता दर में है जहां वह देश में उच्च स्तर पर है, लेकिन जहां तक स्कूलों, विशेषकर सरकारी क्षेत्र में शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल है, तो यह संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती और हमारे लिए चिंता का विषय है। इस क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज्यादा है। यह हस्तक्षेप शिक्षकों की भर्ती से लेकर अध्यापन व कौशल विकास तक में देखा जा सकता है। रिसर्च के अनुसार भारत के तीन राज्यों में हिमाचल सबसे नीचे है। यह प्राइमरी स्कूलों में अध्यापन की गुणवत्ताहीनता की ओर संकेत करता है। अध्ययन से पता चलता है कि पांचवीं कक्षा के 40 फीसदी छात्र तीन अंकों की संख्या को एक अंक से विभाजित करना भी नहीं जानते हैं। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस मसले पर कैबिनेट में विचार करके शिक्षा क्षेत्र को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई है। सरकार ने पांच छात्रों से कम संख्या वाले 99 स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है। हिमाचल में इस समय करीब 10500 स्कूल व करीब 25000 शिक्षक हैं। इस नजरिए से अध्यापक-छात्र अनुपात अच्छा माना जा सकता है। इसके बावजूद 1343 ऐसे स्कूल हैं जहां केवल एक-एक शिक्षक हैं। 6324 ऐसे स्कूल भी हैं जहां दो-दो शिक्षक हैं। ऐसे स्कूल भी हैं जहां माता-पिता एक छात्र को पढ़ाते हैं और वह छात्र उनका ही बच्चा है।

सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के हजारों पद खाली हैं तथा प्रशिक्षित अध्यापक बेरोजगार चल रहे हैं। शिक्षकों की भर्ती व नियुक्ति के लिए क्रैश कोर्स व प्रोग्राम शुरू किए जाने चाहिए। प्राथमिक शिक्षा को अनदेखा करना घातक होगा क्योंकि जब बच्चा नया ज्ञान अर्जित करता है, तो उसकी लर्निंग फाउंडेशन यहीं पर रखी जाती है। अगर आधारशिला ही कमजोर व उपेक्षित रह जाएगी, तो बाद के जीवन में होने वाली पढ़ाई को भी लकवा मार जाएगा। सबसे पहले हमें राजनीतिक हितों के लिए स्कूल गिफ्ट करने की परिपाटी को खत्म करना होगा। मैंने अकसर देखा है कि जब कोई बड़ा नेता अथवा मुख्यमंत्री किसी कस्बे या गांव का दौरा करता है, तो वहां के लोग ऐेसी मांगों की सूची बना लेते हैं जिन्हें वे नेताओं से मंजूर करवाना चाहते हैं। सबसे आसान काम यह है कि कोई स्कूल अथवा कालेज मांग लिया जाए। राजनेता भी बिना सोचे-विचारे जनसभा में ही इसकी घोषणा करके प्रफुल्लित हो जाते हैं। लोगों को उपहार बांटने में उन्हें बड़ा मजा आता है। विशेषज्ञ स्वीकार करते हैं कि इस तरह की घोषणाएं करने से पहले अकसर औचित्य व वास्तविक जरूरत का अध्ययन होता ही नहीं है। वास्तव में नेताओं के निशाने पर तो वोट बैंक होता है। परिणामस्वरूप कई ऐसे स्कूल हैं जो ऐसे स्थानों पर खुले हैं जहां वास्तव में इनकी जरूरत ही नहीं है। जो स्कूल ठीक ढंग से संचालित नहीं हो पा रहे हैं, उन स्कूलों को बंद करते समय सरकार स्वीकार करती है कि इन्हें जरूरत का अध्ययन किए बिना खोल दिया गया था।

प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता क्या होगी, जब ज्यादातर निर्णय बिना सोचे-विचारे व बिना अध्ययन के ही ले लिए जाएंगे। गुणवत्ता आंकने की कोई माकूल व्यवस्था न होना भी क्वालिटी एजुकेशन की राह में एक बड़ी बाधा है। प्रदेश के स्कूलों की बुरी स्थिति को लेकर मैं यहां दो उदाहरण पेश करना चाहूंगा। मामला संख्या-1 ः एक स्कूल में एक शिक्षक है, पर वहां कोई छात्र नहीं है। शिक्षक अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाकर उसे पढ़ाता है और बच्चे की मां उसके लिए मिड डे मील बनाती है। मामला संख्या -2 ः पिछले सत्र में मुख्यमंत्री ने एक स्थान पर स्कूल के लिए नौवीं व दसवीं की कक्षाएं मंजूर की। वहां नौवीं कक्षा में छह छात्र हैं। स्कूल में पढ़ाने के लिए शिक्षक की कोई व्यवस्था नहीं की गई। स्कूल में एक चपड़ासी तैनात है, जो बच्चों को पढ़ाने का काम करता है। अब स्कूल के छात्र किसी निकटवर्ती स्कूल में जाकर शिक्षा ग्रहण करने की सोच रहे हैं। परंतु सवाल यह है कि स्कूल को सुविधाएं व पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था किए बिना इस तरह की विवेकहीन मंजूरी क्यों दी गई। शिक्षकों के विवेकहीन तबादलों व उनकी कमी के अनेक मामले हैं। शिक्षकों की अकसर गैर शैक्षणिक कार्यों, जैसे समारोहों, चुनाव, जनगणना या इसी तरह के अन्य कार्यों में ड्यूटी लगा दी जाती है। उन्हें जब मर्जी सरकारी कामों में झोंक दिया जाता है। क्लासरूम टीचिंग और बच्चों के व्यक्तित्व विकास के नजरिए से छात्रों को प्राथमिकता नहीं मिल पाती है।

तबादलों को लेकर जब मैंने शिक्षकों से सवाल किया तो औसत जवाब यह था कि जिसकी कोई पहुंच है, वह अपनी मर्जी के स्थान पर अपना तबादला करवा लेता है। प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा की जो निम्न क्वालिटी है, उसे सुधारने के लिए सरकार को इसे प्राथमिकता देने की सख्त जरूरत है। इस ओर से आंख-कान मूंद लेना आधारभूत शिक्षा की कमर तोड़ने के समान है। इसे यह तर्क देकर जायज नहीं ठहराया जा सकता कि हमारे प्राइवेट स्कूलों में गुणवत्ता वाली शिक्षा है। जब तक शिक्षा के लिए कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं बनता, तब तक इसे उच्च प्राथमिकता देने तथा इस पर नजर रखने की जरूरत है। राज्य में उच्च शिक्षा की भी पेचीदा समस्या है तथा इस पर अलग से ध्यान देने, अन्वेषण करने तथा उपचार की जरूरत है। मेरा सुझाव है कि प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा में व्यापक बदलाव के लिए कोई एक्शन प्लान बनाने के उद्देश्य से सक्रिय शिक्षा अधिकारियों, शिक्षकों के प्रतिनिधियों व बाहरी विशेषज्ञों का एक कार्यबल बनाया जाना चाहिए। लक्षित फे्रमवर्क के भीतर समयबद्ध कार्य एजेंडा लागू किया जाना चाहिए। राजनेताओं व बाबुओं की फौज पर शिक्षा छोड़ देने के बजाय इससे व्यावसायिक तरीके से निपटा जाना चाहिए। मुख्यमंत्री को ज्यादा विकास समर्थक तथा कम राजनीति समर्थक होना चाहिए।

-मेल : singhnk7@gmail.com


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