अपनी दीवारों के प्रतिनिधि

By: Apr 20th, 2018 12:05 am

हमारी दीवारें पुनः तब तसदीक हुईं जब हिमाचल के दो मंत्रियों के बीच तकरार सार्वजनिक बहस का हिस्सा बन गई। केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा की मौजूदगी के बीच सरकार की प्राथमिकताओं की कलई खुल गई, जब विषयों के अधूरे पन्ने फटे और कलह की पोशाक में, दो मंत्रियों का स्वाभिमान जाग गया। यहां मसला चंद कर्मचारियों या अधिकारियों की तैनाती को लेकर है, तो सरकार के अध्याय सरेआम कांगड़ा एयरपोर्ट पर क्यों खुले। अपनी-अपनी खामोशी के बीच सरवीण व किशन कपूर का वाकयुद्ध समझना होगा। अगर किशन कपूर वाकई नजरअंदाज हुए हैं, तो इस कद के नेता को कोई नसीहत मिल रही है या यह कोई सियासी वसीयत है कि हर विधायक अपनी महफिल में कर्मचारी-अधिकारियों को चुन सके। कायदे से जो विभाग सरवीण के पास है उसकी सियासी आमदनी धर्मशाला में तय है, तो इस अधिकार पर दरार तो आएगी, क्योंकि किशन कपूर के तराजू पर खाद्य आपूर्ति के नापतोल शायद वर्षों से जंग खाए हैं। हम यह भी मान सकते हैं कि वरिष्ठतम मंत्री होकर भी अगर किशन कपूर की दाल में कंकड़ फेंके जा रहे हैं, तो स्वाभिमान की लाल जमीन तो खुद ब खुद बनेगी। हैरानी यह है कि मंत्रियों की अधिकतम रुचि मनपसंद के कर्मचारी कबीले बनाने में लगी रहती है। आपसी द्वेष और द्वंद्व की पारी खेलती राजनीति या सरकारें आखिर किस हद तक हिमाचल को घायल कर सकती हैं, इसका जीवंत उदाहरण सार्वजनिक स्थल पर प्रस्तुत हुआ है। पुनः स्थानांतरण के अखाड़े सजे हैं, तो टकराव के बिंदुओं पर आर-पार की लड़ाई है। हम यह क्यों न मानें कि सरकार बदलने के बावजूद कार्य संस्कृति के तिलक पर सियासत के चिन्ह विद्यमान हैं। बड़ी बेरहमी से अदला-बदली जब होती है, तो कामकाज की व्यवस्था मुजरिम सरीखी हो जाती है। जनता की निगाहों में चमकते पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी, डाक्टर-इंजीनियर, अधिकारी व कर्मचारी अचानक खुड्डे लाइन लगा दिए जाते हैं, तो क्या हम जी हुजूरी के युग में सत्ता के डंके बजा रहे हैं। इतना ही नहीं, पूर्व सरकारों के फैसले महज इसलिए बदल दिए जाते हैं, ताकि कोई चिन्ह न बचें। प्रगति के पैमाने और विकास के रथ बदल दिए जाते हैं, तो यह कौन सी नफरत या हिकारत है जिसकी तानाशाही में समय को बदलने का वादा होता है। जाहिर है मंत्रियों की ऊर्जा का निम्न स्तर जाहिर है और रोजाना बयानों की रेहड़ी पर केवल सूचना-जनसंपर्क विभाग का कोई न कोई प्रेस बयान बिक रहा होता है। प्रदेश की कार्यसंस्कृति को दो मंत्रियों की लड़ाई से क्या मिला- क्या मिलेगा और क्या इस अनुपात में सरकार का कोई मुआयना हो पाएगा। ऐसे में जनता के रेंगते सवाल और युवा अपेक्षाओं के द्वार कब खुलेंगे। बेहतर होता दोनों मंत्री या तो केंद्रीय मंत्री से गुफ्तगू में अपने दायित्व का प्रसार कर रहे होते या केंद्रीय मदद के प्रश्न हल कर रहे होते। जिस कांगड़ा एयरपोर्ट पर विवाद हुए, अगर उसके विस्तार पर बहस होती तो संवेदना देखी जाती। विडंबना यह है कि जीत के बाद हर नागरिक सियासी मिलकीयत की तरह अपने जनप्रतिनिधियों को टुकर-टुकर देखता है। हमारी आशाएं दरख्वास्त बनकर ठोकरें खाती हैं और फिर कहीं तेजाब बनकर जब सियासी हिसाब होता है, तो चुन-चुन कर बदला लिया जाता है। कहना न होगा कि बिना नीति, सिद्धांत और मर्यादा के हर बदली अब एक बदला है। अगर किशन कपूर की पसंद को सरवीण चौधरी ने अहमियत नहीं दी, तो यह बदली अंततः बदला बनी और वहां दीवार पर गतिरोध चस्पां हो गया। क्या मुलाजिम होना केवल एक मुहर बन गया है कि कभी कांग्रेस या कभी भाजपा का ठपा लगाकर फैसला किया जाए। जो कुछ एयरपोर्ट पर हुआ, उसका व्यापक असर कांगड़ा की सिकुड़ती सियासत पर भी है। वर्तमान सरकार में सबसे अधिक विधायक देने वाले जिला की भागीदारी में जिन्हें मंत्री पद मिला, क्या वे इसकी अहमियत जानते हैं। इससे पहले भी जब धूमल सरकार के दौरान कांगड़ा जिला के टुकड़े किए जा रहे थे, तो ताली बजाने वाले मदारी यहीं से थे। हर बार मंत्रियों-विधायकों के युद्ध में कांगड़ा इसलिए अपना वजूद खोता है, क्योंकि शांता कुमार के बाद कोई कद्दावर नेता पनप नहीं पाया। कभी डा. सुशांत अपनी ज्वाला से भस्म हो गए या कभी मेजर मनकोटिया टोपियां बदलते-बदलते अप्रासंगिक हो गए। कभी सुधीर के कूचे पर बाली का युद्ध रहा, तो कभी स्व. सतमहाजन, विप्लव ठाकुर या चंद्र कुमार यह सिद्ध न कर पाए कि उनका भी स्वाभिमान है। कांगड़ा को कभी एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के नाम पर तोड़ने का जहर पिलाया, तो कभी नेताओं के आपसी द्वंद्व ने इसे नुकसान पहुंचाया। बेशक सरवीण और किशन कपूर अपनी छोटी सी लड़ाई के पात्र बन गए, लेकिन इससे वे अपने-अपने क्षेत्र के युद्धरत मसलों का हल नहीं निकाल पाएंगे। भाजपा जिस दृष्टि पत्र की बुनियाद पर सत्ता में लौटी है, कम से कम कांगड़ा एयरपोर्ट का नजारा इसके विपरीत ही दिखाई दिया।

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