मासूम के मुजरिम को फांसी!

By: Apr 23rd, 2018 12:05 am

मध्यप्रदेश के इंदौर में आठ महीने की बच्ची से बलात्कार और हत्या…क्या इससे ज्यादा पाशविक, नृशंस, जघन्य अपराध कोई और भी हो सकता है? अभी तक तो वह बच्ची दूध और मां की गोद के लिए रोती थी, लेकिन उसे जानलेवा दर्द में चीखना भी पड़ा। वह समझ नहीं सकती थी कि आखिर उसके साथ क्या हुआ था? अभी तो बच्ची की उम्र मां के आंचल में गहरी नींद सोने की थी, लेकिन उसे लाश बन कर एक कपड़े में बंद होना पड़ा, नींद अनंत हो गई थी। मध्यप्रदेश में तो ऐसे बलात्कारियों के लिए फांसी के कानून का प्रावधान है। क्या उस हैवान को मौत की सजा मिलेगी? हम इस सवाल के साथ तब तक प्रतीक्षा करेंगे, जब तक कानूनन सजा तय नहीं हो जाती। इस अपराध का एक और कानूनी तथा सामाजिक विद्रूप चेहरा भी गौरतलब है। मेरठ की एक पंचायत ने अजीब फरमान सुनाया कि पीडि़ता का परिवार 3 लाख रुपए ले और बलात्कार का मामला रफा-दफा करे। घोर शर्मनाक… बलात्कार की भी कीमत…! ऐसे में मोदी सरकार द्वारा अध्यादेश लाना बेहद जरूरी था, क्योंकि हर 15 मिनट पर देश में एक बच्चा यौन अपराध का शिकार होता है। हर रोज औसतन 100 बलात्कार किए जा रहे हैं। यानी हर घंटे में करीब पांच बलात्कार…! बेशक दावा किया जाता रहे कि मौत की सजा के कारण केस ही दर्ज नहीं होंगे। ऐसी दरिंदगी कानून से समाप्त नहीं हो सकती। यह सामाजिक समस्या है, मनोविकार के अपराध हैं। आठ माह की बच्ची के साथ बलात्कार कोई सोच या हवस भी नहीं है। आखिर इतनी छोटी शिशु-बच्ची किसी को हवस के लिए कैसे प्रेरित कर सकती है? निश्चित रूप से यह कोई सामान्य बीमारी नहीं है। बीते एक दशक में बच्चों के खिलाफ अपराध में करीब 500 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। खौफनाक…हैवानियत…! हम लगातार इस मुद्दे पर फांसी की सजा का सुझाव देते रहे हैं। अब मोदी सरकार ने 21 अप्रैल को पोक्सो कानून में संशोधन करने और बदलाव लाने का जो अध्यादेश पारित किया है, कमोबेश मौत की सजा का प्रावधान तो शामिल किया गया है। दुनिया के 13 देशों में बलात्कार या दुष्कर्म की सजा ‘मौत’ है, बेशक उनमें ज्यादातर मुस्लिम देश हैं। अमरीका में न्यूनतम 30 साल की सजा का प्रावधान है। बेशक भारत में फांसी देने का कानून पहले से ही है, लेकिन नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के संदर्भ में यह प्रावधान विशेष तौर पर होना चाहिए था, ऐसी मांगें भी उठती रही हैं। यह भी फैसला उचित है कि रेप की जांच-रपट दो माह की अवधि में ही पूरी करनी होगी और अंतिम फैसला 6 माह में करना ही होगा। कानून के इन प्रावधानों में कितने छिद्र हैं, कितने झोल हैं और कितने वैकल्पिक रास्ते निहित हैं, इसका विश्लेषण कानून के लागू होने के बाद ही होना चाहिए। अलबत्ता ‘आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश-2018’ का स्वागत किया जाना चाहिए। अब 12 साल तक की बच्ची के साथ बलात्कार की सजा न्यूनतम 20 साल जेल या उम्रकैद अथवा मौत होगी, जबकि सामूहिक बलात्कार के मामले में उम्र कैद या मौत की सजा के ही प्रावधान रखे गए हैं। 16 साल तक की बच्ची के संदर्भ में सजा 20 साल जेल न्यूनतम या उम्र कैद और महिला के साथ बलात्कार की सजा 7 साल से बढ़ाकर 10 साल न्यूनतम की गई है। इसे बढ़ाया भी जा सकता है। इस संदर्भ में देश को बताना जरूरी है कि बलात्कार के 1,37,000 से अधिक मामले आज भी लंबित पड़े हैं। उनमें नाबालिग मासूमों की चीखों की कहानियां दफन होंगी! अध्यादेश के कानूनी प्रावधानों से राहत मिलने की उम्मीद की जा सकती है, जैसा कि 2012 में ‘निर्भया कांड’ के बाद जस्टिस जेएस वर्मा और जस्टिस लीला सेठ की कमेटी ने कानून में जो बदलाव सुझाए थे, उम्मीद उसके बाद भी जगी थी, लेकिन कुछ खास नहीं हो सका। बलात्कार अब रोजाना की आवश्यक सुर्खी बन गए हैं। अब लोगों की चेतना भी उग्र होना कम हो गई है। बेशक 8 माह की बच्ची के साथ रेप और हत्या के आरोपी की अदालत के परिसर में लोगों ने जमकर पिटाई की। वकीलों ने भी आक्रोश जताया और आरोपी की पैरवी न करने का फैसला लिया गया। यह एक दुर्लभ जन-प्रतिक्रिया है। बहरहाल बुनियादी सवाल तो बलात्कार से जुड़ा है कि क्या उन पर रोक लग सकेगी? हम नकारात्मक भी क्यों सोचें? अभी तो कानून बना है। उसे लागू करने के लिए फास्ट टै्रक अदालतें गठित की जानी हैं, पीडि़त का पक्ष रखने के लिए राज्यों में विशेष लोक अभियोजकों के पद सृजित किए जाएंगे, समर्पित पुलिस बल तैयार करना होगा, ताकि समय से आरोप-पत्र दाखिल किए जा सकें, थानों और अस्पतालों में विशेष फारेंसिक किट दी जानी है, अपराध रिकार्ड ब्यूरो यौन अपराधियों का डाटा तैयार करेगा और उसे राज्यों से साझा किया जाएगा। ऐसा बुनियादी ढांचा तो तैयार करना होगा, तभी जल्दी परिणाम की अपेक्षा की जा सकती है। एक संशोधन किया जाना चाहिए। उम्र कैद और मौत की सजा के बीच विकल्प नहीं होना चाहिए। नाबालिग मासूम के मुजरिम को सीधी फांसी होनी चाहिए। अलबत्ता रेप तो रेप ही है, बेशक वह बच्ची के साथ किया जाए या किसी महिला के साथ, लिहाजा महिलाओं के संदर्भ में 10 साल की सजा बेहद नाकाफी है। मनोविकारी और अपराधी ऐसी सजाओं के आदी होते हैं, लिहाजा अंतिम विकल्प फांसी की सजा ही होना चाहिए। समाज के कुछ सुधारक ठेकेदार और मोदी सरकार के विरोधी तो अब भी कह रहे हैं कि यह वोट की राजनीति के मद्देनजर किया गया है। सरकार ने पहले चार सालों में ऐसा क्यों नहीं किया?

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