संवैधानिक संस्थानों पर यह आक्रमण क्यों?

By: Apr 27th, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

यह एक वास्तविकता है कि संसद व न्यायपालिका जैसे संस्थान हमें एक लंबे संघर्ष के बाद मिले तथा इसमें जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं का भी योगदान रहा। फिर आज क्यों वही लोग इन संस्थानों की घेरेबंदी में लगे हैं। ये संस्थान हमारे लिए तोहफे की तरह हैं। जिन लोगों को इन संस्थानों का संरक्षण करना था, वही आज उनकी घेरेबंदी में क्यों लगे हैं? हमारी मूल्य प्रणाली हमें विफल करने में क्यों लगी हुई है…

भारत के संविधान से काफी ज्यादा अपेक्षाएं की गई थीं, परंतु इसमें एक के बाद एक करके 85 संशोधन से भी ज्यादा संशोधन हो चुके हैं जिससे इसका स्वरूप अब बिगड़ गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इसके निर्माताओं, विशेषकर डा. राजेंद्र प्रसाद ने आशा की थी कि जो इसका प्रयोग करेंगे, वे ईमानदार होंगे तथा इसकी आत्मा को बनाए रखेंगे। दुर्भाग्य से यह एक व्यर्थ आशा साबित होती जा रही है। आज जबकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को महाभियोग प्रस्ताव का सामना करना पड़ रहा है, इस समय हम एक विकट समय से गुजर रहे हैं जिसमें न्याय के सबसे बड़े निकाय पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसी अधोगति तक न्यायपालिका अब तक कभी भी नहीं पहुंची थी और न ही राजनीतिक दलों ने कभी शक्ति पाने के लिए इतने निचले स्तर तक अभियान छेड़ा था। सही सोच वाले देश के नागरिकों को वातावरण को विकृत करने के खिलाफ अपनी आवाज उठानी चाहिए। इसके लिए सभी राजनीतिक दल जिम्मेवार हैं, लेकिन मुख्य विफलता विपक्ष की रही है, जिसने व्यापक राष्ट्रीय हित में एक समाधान व सहयोग के लिए बातचीत की मेज पर आने के लिए कुछ नहीं किया। शायद सबसे बुरी स्थिति का सामना जस्टिस रामास्वामी ने किया जब एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई थी कि उनके विरुद्ध जांच में 12 आरोपों में से 11 आरोप सही पाए गए थे। सत्य की उपहासात्मक रचना यह है कि उस समय कपिल सिब्बल महाभियोग के खिलाफ उनकी हिफाजत में पैरवी कर रहे थे। उस समय कांग्रेस ने न केवल सदन से वाकआउट कर महाभियोग प्रस्ताव पास होने से रोका था, बल्कि उसने बाद में उन्हें कई एसाइनमेंट व लाभदायक काम देकर पुरस्कृत भी किया। उन्हें कांग्रेस का समर्थन मिला था तथा किसी ने भी इस पर शोरोगुल नहीं किया था। सुप्रीम कोर्ट का मामला काफी देर बाद आया, परंतु अन्य संस्थान अर्थात भारतीय संसद की भी विपक्ष ने खूब नुक्ताचीनी की थी।इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस तरह की प्रक्रिया बहुत पहले छोटी सी शुरुआत करके भाजपा ने ही आरंभ की थी जब उसने सदन की कार्यवाही में व्यवधान पैदा कर दिया था।

परंतु इस तरह का कार्य व्यवधान व ऐसी कड़वाहट, जब सलाह-मश्विरे से कोई भी कार्य न हो पा रहा हो, भारत के इतिहास में कभी नहीं देखे गए। लोकपाल के मामले को ही ले लेते हैं। इस संबंध में तय हुआ था कि विपक्ष के नेता के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे, जिन्हें मनोनीत किया गया था तथा जिन्होंने अपनी सहमति भी जताई थी, उन्होंने इसमें अपनी सहभागिता नहीं की। बजट को भी विपक्ष की सहभागिता के बिना ही पारित कर दिया गया और किसी ने भी राष्ट्रीय हितों की सेवा करने की चिंता नहीं की। संसद में ऐसे कार्य व्यवधान के होते हुए सरकारी पक्ष के सांसदों द्वारा 23 दिन का वेतन न लेने से भी राष्ट्रीय सरोकारों की रक्षा नहीं होती है। यह वाकया दर्शाता है कि संसद अप्रासंगिक होती जा रही है तथा वह अपने ही सदस्यों के हाथों निष्क्रिय भी हो रही है। यह बात सत्य है कि कांग्रेस 50 से भी अधिक वर्षों तक शासन में रही है तथा अब सत्ता के बिना उसकी छटपटाहट देखी जा सकती है।

वह लोकतंत्र के संचालन के लिए एक सहायक के रूप में काम करना स्वीकार नहीं कर रही है। इसके बावजूद लोकतंत्र का सलीका यह होता है कि इसमें विविध विचारों का समन्वय किया जाता है। सभी पक्षों को इसमें महत्त्व दिया जाना चाहिए। कोई भी यह विश्वास करने के लिए तैयार नहीं है कि राहुल गांधी को संसद में 15 मिनट तक बोलने का भी वक्त नहीं दिया गया। लोकतंत्र में सहमति तक पहुंचने के लिए विश्वसनीय संवाद तथा चर्चा की जरूरत भी होती है। मेरा विचार है कि जितने झूठे इरादे व विचार फैलाए जाते हैं, उतना ही तर्कहीन कथन इस इरादे के अफसाने में जुड़ जाता है। यह कुलीनतंत्र जैसे मानसिकता की मिसाल है। इससे बचने के लिए यह जरूरी है कि जो कुछ झूठ बोला जाता है, उसे अलग किया जाना चाहिए। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि सरकार की ओर से भी अफवाहों व झूठ को दूर करने के लिए कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास  प्रभावशाली संचार करने की क्षमता है, किंतु इससे सूचना के भूखे लोगों से उत्पन्न शून्य भरने वाला नहीं है। उन्हें हर स्तर पर एक प्रभावशाली संचार प्रणाली को बनाना होगा। ऐसा नहीं हो पा रहा है, इसीलिए तो विपक्ष अब संविधान बचाओ दिवस मनाने में लगा है। आप किसी भी संविधान को नहीं बचा सकते हैं, अगर आप उसकी आत्मा के अनुरूप काम नहीं करते हैं तथा बार-बार तर्कहीन व अविश्वसनीय बातें करते हैं। सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों को ऐसी बातों से बचना चाहिए। संस्थानों पर आक्रमण की बात लेते हैं। अगर चुनाव परिणाम आपके अनुकूल रहते हैं, तो कोई समस्या नहीं है। अगर चुनाव आपके पक्ष में नहीं रहते हैं, तो ईवीएम पर दोष मढ़ दिया जाता है। भारत के चुनाव आयोग के खिलाफ इतना विवाद खड़ा किया गया कि उसे सार्वजनिक रूप से यह प्रमाणित करना पड़ा कि ईवीएम में कोई गड़बड़ नहीं है।

अगर आप चुनाव में उत्तर प्रदेश में हार गए तो दोष ईवीएम का है, अगर आप पंजाब में चुनाव जीत गए तो ईवीएम सही हो गईं। आम आदमी पार्टी तो इससे भी ज्यादा संदेह करती दिखी क्योंकि वह कहीं भी नहीं जीत पाई और उसने ईवीएम पर निगाह रखने के लिए अपने लोग  तैनात कर दिए। अगर अहमद पटेल जीत जाते हैं तो ईवीएम ठीक हैं, परंतु अगर राज्यों के चुनाव में भाजपा जीत जाती है तो फिर दोष ईवीएम का निकल आता है। इसी तरह का मामला सुप्रीम कोर्ट का है। अगर फैसला आपके पक्ष में आता है तो सुप्रीम कोर्ट सही है। अगर फैसला किसी  अन्य पार्टी के पक्ष में आता है तो सुप्रीम कोर्ट पर सवालिया निशान लग जाते हैं। न्याय के सबसे बड़े निकाय पर अब संदेह किया जा रहा है। महाभियोग का प्रस्ताव जब राज्यसभा के पदेन अध्यक्ष खारिज करते हैं तो फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जान की रणनीति बनती है। यह सुप्रीम कोर्ट वही निकाय है जिस पर आप पहले ही संदेह जता चुके हैं। यह सब मजाक सा लगता है, इसमें गंभीरता नहीं दिखती है। यह एक वास्तविकता है कि संसद व न्यायपालिका जैसे संस्थान हमें एक लंबे संघर्ष के बाद मिले तथा इसमें जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं का भी योगदान रहा। फिर आज क्यों वही लोग इन संस्थानों की घेरेबंदी में लगे हैं। ये संस्थान हमारे लिए तोहफे की तरह हैं। जिन लोगों को इन संस्थानों का संरक्षण करना था, वही आज उनकी घेरेबंदी में क्यों लगे हैं? हमारी मूल्य प्रणाली हमें विफल करने में क्यों लगी हुई है?

बस स्टाप

पहला यात्री : कांग्रेस के लोग आजकल ‘लोकतंत्र बचाओ’ क्यों चिल्ला रहे हैं?

दूसरा यात्री : वे यह भूल गए हैं कि लोकतंत्र का अनुशीलन उन्हें पहले खुद पार्टी के भीतर करना है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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