हत्यारी हिंसा के जरिए हक!

By: Apr 4th, 2018 12:05 am

सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में कुछ बदलाव करने का फैसला सुनाया था, नतीजतन देश का दलित-आदिवासी वर्ग गुस्से में था। फैसले के खिलाफ ‘भारत बंद’ का आह्वान किया गया था। दरअसल न तो भारत बंद संभव है और न ही संपूर्ण भारत एक मुद्दे पर सहमत हो सकता है। फिर भी 20 राज्यों तक ‘भारत बंद’ के गुस्से का फैलाव देखा गया। यह भी कम बड़ी कामयाबी नहीं है। यदि ‘भारत बंद’ के दौरान आंदोलन, प्रदर्शन आदि अहिंसक रहते, तो उनका विश्लेषण भिन्न प्रकार से किया जाता, लेकिन एक दर्जन से अधिक राज्यों में हिंसा का जो नंगा नाच किया गया, उससे असल मकसद पीछे छूट गया। कहीं पुलिस चौकी और थाने फूंक दिए गए, तो कहीं सार्वजनिक वाहनों में आग लगा दी गई। रेलगाडि़यों पर पथराव किए गए, तो कहीं रेल की पटरी उखाड़ने की कोशिश की गई। कहीं भीड़ के हाथों में लाठियां, बंदूक या रिवाल्वर देखे गए। कुछ स्थानों पर कर्फ्यू तक लगाना पड़ा। पंजाब में बैंक और स्कूल तक बंद कराने पड़े। सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इन हरकतों की भूमिका क्या थी? क्या यह अंधाधुंध हिंसा दलितों और आदिवासियों को उनका हक वापस दिला सकती है? यदि दलित खुद ही पीडि़त और शिकार है, तो चक्का जाम किसने किया? आगजनी किसने की? देश के करीब 15 राज्यों में उपद्रव के हालात किसने पैदा किए? क्या प्रदर्शन के नाम पर दलितों को हिंसा और मार-काट का लाइसेंस मिल गया? क्या बाबा अंबेडकर से यही सीख ली है दलितों ने? क्या ऐसी हिंसा के आगे सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट घुटने टेकने को विवश होंगी? लोकतंत्र में प्रदर्शन और आंदोलन के नाम पर ऐसी हिंसा कतई बर्दाश्त और स्वीकार्य नहीं है। दलितों पर सामाजिक, आर्थिक, सामूहिक ज्यादतियों का जवाब भी हिंसा और हत्याएं नहीं हो सकता। कथित ‘भारत बंद’ के दौरान 14 लोग मारे गए और करीब 50 लोग जख्मी हुए। कईयों की स्थिति नाजुक बताई गई। वे शायद ही बचें! इन स्थितियों से दलितों को हासिल क्या हुआ? 12 राज्यों में 8-10 घंटे हिंसा जारी रही। 28 शहरों में धारा 144 लगानी पड़ी। मोबाइल इंटरनेट भी बंद करने पड़े। 100 से ज्यादा रेलगाडि़यां प्रभावित हुई। हिंसा के चलते फरीदाबाद में छः घंटों तक घरों में बंधक बने रहे करीब 10 लाख लोग। भारत भययुक्त बना दिया गया। यदि दलितों और आदिवासियों के मौलिक अधिकार हैं, तो मारे गए नागरिकों के अधिकार नहीं थे? उन्होंने दलित-विरोध में क्या किया था? ऐसे देश में अराजकता तो फैलाई जा सकती है, लेकिन किसी को न्याय मिलने का आधार ये स्थितियां नहीं हो सकतीं। पहली बार देखा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय का इतना व्यापक और हिंसक पलटवार हुआ है। यह भी विशेषाधिकार में अतिक्रमण है। शीर्ष अदालत ने एससी, एसटी कानून के कथित दुरुपयोग के मद्देनजर प्राथमिकी दर्ज करने पर ही गिरफ्तारी रोक दी है। 1989 के कानून को लेकर नई गाइडलाइन दी है। अब इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी के बजाय एसएसपी जांच करेगा और उसके निष्कर्ष के बाद ही गिरफ्तारी तय होगी। अब अग्रिम जमानत भी संभव होगी। दलित संगठनों को लगता है कि कानून को भोथरा और नरम किया जा रहा है, तो कमोबेश उन्हें भारत सरकार को इतना वक्त देना चाहिए था कि वह पुनर्विचार याचिका डाल सके। एकदम कुछ भी संभव नहीं है। सरकार के सामने देश-विदेश के ढेरों मामले विचारार्थ रहते हैं। बेशक संसद की कार्यवाही न चले, लेकिन सरकार को तैयारी तो करनी पड़ती है। जब 1989 में वीपी सिंह सरकार के दौरान बनाए गए इस कानून में 2015 में मोदी सरकार ने ही संशोधन किए और कानून को पुख्ता किया, तो प्रधानमंत्री मोदी क्यों खलनायक हो गए? चूंकि केंद्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका शीर्ष अदालत में दे दी है, फिर भी हिंसक आंदोलन के मायने क्या हैं? सरकार ने याचिका डालने में देरी की, तो उसके मायने ये ही हुए कि देश को आग में झोंक दिया जाए? राष्ट्रीय संपदाओं को क्षतिग्रस्त किया जाए? कमोबेश न्याय की यह परिभाषा हमारी समझ के परे है। इतना संवेदनहीन और असहिष्णु नहीं होना चाहिए। दलितों और आदिवासियों की पीड़ा हम समझते हैं। आजादी के 70 सालों के बाद भी उन्हें सामाजिक भेदभाव और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है, लेकिन यह भी गौरतलब है कि संविधान सभा में जो आरक्षण 10 साल के लिए तय हुआ था, वह 27.5 फीसदी के रूप में आज भी जारी है, बेशक दलित-आदिवासी परिवार कितना भी सम्पन्न हो गया हो। बेशक देश में दलित सदियों से एक खास तरह की मनोवैज्ञानिक हिंसा भी झेलते रहे हैं। ऐसे में यह कानून उनके लिए हथियार-सा लगता है। यह न तो छीना जा रहा है और न ही इसको हल्का किया जा सकता है। दलितों को अपनी सरकार पर भरोसा होना चाहिए। बहरहाल अब फिर यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के सामने है। उसके नए फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App