हिमाचली सुशासन की लागत

By: May 16th, 2018 12:05 am

सुशासन का विश्वास अर्जित करने की मेहनत करते हुए हिमाचल सरकार ने पुनः पत्ते फेंट दिए। यह सत्ता का अधिकार है और करिश्मा दिखाने का सियासी अवतार भी, जो हर बार केंचुली की तरह बदल जाता है। अंततः लोकतंत्र की भारतीय पद्धति में प्रशासन के मायने राजनीतिक बंदोबस्त की खुमारी में देखे जाते हैं, तो हिमाचल भी अछूता नहीं है। हर बार की तरह हमारी गली का सांप सलामत है और सत्ता की लाठी भी नहीं टूटी। जयराम सरकार के लगभग पांच महीनों की लागत में प्रशासन के पहिए बदलते रहे हैं और अब ऐसे फेरबदल से नागरिक समाज के भाग्य का छींका टूटने का आभास होने लगा है। नागरिक आशा तो यह है कि उनके जिला, तहसील या शहर के अधिकारी इस कद्र कड़क हों कि ईमानदार लोग अपना खो चुका विश्वास पुनः हासिल कर लें। इतना तो संभव है कि दोपहिया वाहन चालक हेल्मेट पहन कर निकलें या परिवहन व्यवस्था किसी बड़े जाम से यारी न करे। सुशासन की पहचान न होने के कारण जनता का नजरिया रोगग्रस्त हो चुका है या समाज ने प्रशासनिक दखल की सीमा रेखा तय कर रखी है। जिस प्रदेश में अतिक्रमण एक लत या विशेषाधिकार की तरह समाज की निगाहों का दरिया हो जाए, वहां खड्ड-नाले या जंगल कैसे बचेंगे, कोई जानना भी नहीं चाहता। स्वयं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने लोक सेवा आयोगों की बैठक में ईमानदार अधिकारियों की आवश्यकता पर बल दिया है, लेकिन प्रश्न तो प्रशासन को स्वतंत्र, निष्पक्ष और सक्षम बनाने का है। इसे संभव बनाने की चुनौतियां स्थानांतरण के कागजी टुकड़े पर असंभव है। यहां सुशासन के लिए सरकार को सतर्क रखने का दायित्व विपक्ष पर भी है, लेकिन कई बार विरोध के राजनीतिक कारण बढ़ जाते हैं। यह दीगर है कि हिमाचल में कांग्रेस ने पहले सांसदों से सवाल पूछ कर भाजपा को अपना रिपोर्ट कार्ड बनाने की चुनौती दी, तो अब प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू ने चुनावी जंग का ऐलान कर दिया। सुक्खू की कमान अपने रंग में है, तो आरोपों की बरसाती पर सियासत की पूरी धूप खिल रही है। यह पक्ष-विपक्ष का आपसी द्वंद्व नहीं, बल्कि सत्ता पक्ष से जाहिर हुए विवाद भी आमने-सामने है। कांगड़ा एयरपोर्ट पर दो मंत्रियों के बीच पैदा हुआ विषाद ज्यादा जोखिम भरा है या मंडी में प्रस्तावित हवाई अड्डे के स्थल निर्धारण को लेकर दो विधायकों की सियासी पूंजी का एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा होना अधिक घातक है, इसका फायदा विपक्ष को ही मिलेगा। बहरहाल हिमाचल में लगातार अधिकारियों की उठापटक से सुशासन की जमीन पर प्रश्न तो उठेंगे ही। हो सकता है अपने विश्वासपात्र खोजने और आजमाने में सरकार आहिस्ता-आहिस्ता प्रगति करना चाहती हो, लेकिन फैसलों के आकाश में अगर बादल ही दिखाई देंगे तो गरजने-बरसने की लुका-छिपी में कहीं दिन के उजाले कम न हो जाएं। सरकारी कार्यसंस्कृति में सुशासन को बसाने के लिए कई कड़े कदम आवश्यक हैं, लेकिन इससे प्रशासन की सहजता-सरलता पर आंच नहीं आनी चाहिए। दरअसल प्रशासन अब सत्ता की परिक्रमा का साधक बनता जा रहा है और इसलिए सरकारों की कथनी व करनी में अंतर दिखाई देता है। यही कारण है कि सरकारी कामकाज की निरंतरता बाधित होती है और जिसका फायदा उठाने वाले बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए जिन अधिकारियों ने स्मार्ट सिटी की रूपरेखा को अनुमति तक पहुंचाया, उन पर कार्यान्वयन तक का भरोसा तो दिखाना चाहिए। जो अधिकारी बागबानी या कृषि संबंधी परियोजनाओं को जमीन पर लाए, उन पर विश्वास न करके प्रदेश का ही घाटा होगा। शिक्षा मंत्री की पुरजोर कोशिश जारी है कि किसी तरह स्कूली वातावरण से स्थानांतरणों की काली छाया हटे, लेकिन अतीत की मोटी तहों में व्यवस्थागत सुराख करना इतना भी आसान नहीं। प्रदेश के भाग्य निर्माता और पहरेदार की भूमिका में सरकारी कार्यसंस्कृति को स्थापित करना है, तो विश्वास की धुरी पर सारी व्यवस्था को घुमाना अपरिहार्य होगा।

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