कहां है अघोषित आतंकवाद

By: Jun 28th, 2018 12:05 am

26 जून, 1975, करीब 43 साल पहले देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जो आपातकाल लगाया था, सिर्फ 28 साल की स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बंधक बनाया था, संविधान ‘कागजी पुलिंदा’ बनकर रह गया था। न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थाओं की तटस्थता और निष्पक्षता छीन ली गई थी। आज उस ‘काले दौर’ के ‘भयावह यथार्थ’ का उल्लेख करना इसलिए जरूरी और प्रासंगिक है, क्योंकि देश की करीब दो-तिहाई आबादी आपातकाल के जुल्मों को नहीं जानती  है या विस्तृत इतिहास की जानकारी नहीं है। निश्चित रूप से वह आजादी की दूसरी लड़ाई थी, जो करीब 1.75 लाख उन लोगों ने लड़ी थी, जिन्हें जबरन जेलों में ठूंस दिया गया था, यातनाएं दी गई थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने उस ‘काले अध्याय’ पर कुछ सवाल खड़े किए, उसे पाप करार दिया और गांधी परिवार को निशाना बनाया, तो चारणभाट किस्म के कांग्रेस प्रवक्ताओं ने प्रधानमंत्री को ‘औरंगजेब से भी क्रूर तानाशाह’ करार दिया। लोकतंत्र खतरे में है, संविधान संकट में है और देश में अघोषित आपातकाल के हालात हैं, इस दलील के साथ कांग्रेस ने बड़ी बेशर्मी से ऐसा पलटवार किया। कांग्रेस नेताओं ने टीवी चैनलों पर ‘इंदिरा गांधी महान थीं’ का ही राग बार-बार अलापा। गांधी परिवार को ही ‘देश’ करार दिया। तब आपातकाल के दौरान देवकांत बरुआ अकेले ही थे, जिन्होंने ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ का नारा दिया था। आज तो असंख्य चाटुकार कांग्रेस में हैं, वे न तो आपातकाल के लिए माफी मांगने को तैयार हैं, न ही अपनी गलती कबूल कर रहे हैं, बल्कि मौजूदा मोदी सरकार के कार्यकाल को ‘अघोषित आपातकाल’ की संज्ञा दे रहे हैं। कांग्रेस की यह सियासी हरकत पुरानी है, देश जानता है। दरअसल हम आज भी जलियांवाला बाग के नरसंहार को याद करते हैं, आज़ादी के आंदोलन की विशेष घटनाओं का स्मरण करते हैं, गांधी और उनके समकालीन आंदोलनकारी आज भी ‘आदरणीय’ और ‘श्रेष्ठ’ हैं, तो आपातकाल की दरिंदगी और हिटलरशाही को क्यों न याद करें? यह किसी को डराने की कोशिश नहीं है, हिंदुस्तानी इतना डरपोक नहीं है, लेकिन हम आपातकाल की तमाम ज्यादतियों का विश्लेषण क्यों नहीं कर सकते? कमोबेश नौजवान पीढ़ी को इतना तो पता चले कि एक लंबे संघर्षशील आंदोलन के बाद जो आजादी हमें नसीब हुई थी, उसे छीनने की कोशिश देश के प्रधानमंत्री ने ही की थी। बहरहाल आलेख की सीमा के मद्देनजर आज सिर्फ मीडिया के दमन, शोषण, अत्याचार और जब्ती आदि पहलुओं का ही उल्लेख करेंगे, क्योंकि मीडिया ही अभिव्यक्ति की आजादी का प्रथम प्रतीक है। इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान 327 पत्रकारों को जबरन जेल में डाला गया। 3801 अखबारों को जब्त किया गया और 290 अखबारों के सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए। ‘टाइम’ पत्रिका और ‘गार्जियन’ अखबार के 7 अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को भी भारत से बाहर निकाल दिया गया था। भारतीय प्रेस परिषद को भी भंग कर दिया गया। पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती सरीखी एजेंसियों का विलय एक ही समाचार एजेंसी में किया गया और शेष पर ढक्कन लगा दिया गया। सैकड़ों पत्रकार बेरोजगार होकर सड़क पर आ गए। आपातकाल के दौरान सरकार की इतनी तानाशाही थी कि अखबार में क्या छपेगा, उसे सेंसर करना पड़ता था। अफसरों की सेंसरशिप कमेटी बना दी गई थी। उस दौरान तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने जब प्रधानमंत्री के छोटे बेटे संजय गांधी के नाजायज आदेशों को मानने से इनकार कर दिया, तो उन्हें कैबिनेट से बाहर कर दिया गया। संजय ने अपने चहेते विद्याचरण शुक्ल को नया सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया था। ऐसी परिस्थितियों के बावजूद कुछ अखबारों ने काले पन्ने छापकर अपना विरोध प्रकट किया, तो कुछ ने संपादकीय के कॉलम खाली छोड़ दिए थे। बिजली काटने के बावजूद ट्रैक्टर लगाकर मशीन चलाई गई और अखबार छापा गया। यदि सिनेमा को भी अभिव्यक्ति की आजादी के वर्ग में रखें, तो फिल्मों के सुपरस्टार देवानंद को ‘नेशनल पार्टी ऑफ  इंडिया’ बनानी पड़ी। किशोर कुमार ने इंदिरा गांधी की स्तुति करने वाले गीत गाने से इनकार कर दिया, तो उनके गानों के रेडियो-प्रसारण पर पाबंदी चस्पां कर दी गई। गुलजार और कमलेश्वर की फिल्म ‘आंधी’ पर भी पाबंदी थोपी गई। ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म भी रोक दी गई। इन फिल्मों में इंदिरा के किरदार को दिखाया गया था। प्रसंगवश यह भी खुलासा कर दूं कि आपातकाल के दौरान करीब 86 लाख लोगों की ‘नसबंदी’ की गई। उनमें करीब 900 लोग नाबालिग थे। चूंकि नसबंदी के आंकड़े संजय गांधी को दिखाने थे, लिहाजा पाशविक व्यवहार किए गए। संक्षेप में ऐसा था आपातकाल…! आज मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं। चुनाव स्थगित नहीं होते। विपक्षी दलों के उम्मीदवार भी चुनाव जीत रहे हैं। न्यायपालिका स्वायत्त और स्वतंत्र है। सुप्रीम कोर्ट के जिन चार न्यायाधीशों ने सवाल उठाए थे, वे आंतरिक व्यवस्था को लेकर थे, न कि ‘अघोषित आपातकाल’ को लेकर थे। मीडिया स्वतंत्र है। कोई भी अखबार न तो ‘काला पन्ना’ छाप रहा है और न ही संपादकीय कॉलम खाली छोड़े जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार और नीतियों-योजनाओं की खूब आलोचनाएं की जा रही हैं। खोज खबर के जरिए मोदी सरकार को आईना भी दिखाया जाता रहा है। प्रेस काउंसिल का निरंतर चलन और चयन जारी है। एक मुद्दे पर सूचना-प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी की छुट्टी हो जाती है। तो कहां है अघोषित आतंकवाद, तानाशाही, हिटलरशाही और औरंगजेबी सल्तनत ! देश खुद ही तय कर लेगा।


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