चुनाव नतीजों के स्पष्ट संकेत

By: Jun 2nd, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

इन चुनावों का एक संकेत स्पष्ट है। खासकर उत्तर प्रदेश में। वहां भाजपा बनाम सभी शेष दलों के बीच मुकाबला था, लेकिन जीत का अंतर इतना नहीं था, जिसका यह अर्थ निकले कि चुनाव एकतरफा हो गया है। बल्कि अर्थ यह है कि सभी विपक्षी दल एक तरफ और अकेली भाजपा दूसरी ओर, तब भी मुकाबला बराबर का ही बनता है। उत्तर प्रदेश में यदि भाजपा अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करती है, तो समस्त विपक्ष पर भी भारी पड़ना ज्यादा मुश्किल नहीं है। महाराष्ट्र में शिवसेना ने भाजपा से भिड़ने का मन बनाया था, लेकिन उसे पराजय मिली…

एक के बाद एक होने वाले चुनावों के परिणामों को लेकर देश भर के राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढंग से विश्लेषण के काम में जुटे हुए हैं। सबसे पहले जिन चुनावों का विश्लेषण हो रहा है, उनका सिलसिलेवार इंदराज कर लिया जाए। सबसे पहले पश्चिमी बंगाल के पंचायत चुनाव, दूसरे कर्नाटक के विधानसभा चुनाव और तीसरे मई के अंत में हुए चार लोकसभा और दस विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव। कर्नाटक के चुनावों के परिणामों और उसके बाद के हुए घटनाक्रम को लेकर काफी कहा-सुना जा चुका है। शेष चर्चा बंगाल के पंचायत चुनावों और उप चुनावों की है। उत्तर प्रदेश के किराना लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल के प्रत्याशी ने भाजपा को 44618 मतों से हराकर सीट जीत ली। नूरपुर विधानसभा सीट समाजवादी पार्टी ने भाजपा को 5662 मतों से हराकर जीत ली। महाराष्ट्र में पालघर लोकसभा सीट भाजपा ने शिव सेना के प्रत्याशी को 29572 मतों से हराकर जीती। कांग्रेस को केवल 47000 मत मिले। भंडारा, गोंदिया लोकसभा सीट पर नेशनल कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को 48097 मतों से हराया। नागालैंड में लोकसभा की सीट भाजपा के सहयोगी दल एनडीपीपी ने जीती। झारखंड विधानसभा की दोनों सीटें झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जीत लीं। इन चुनावों का एक संकेत स्पष्ट है, खासकर उत्तर प्रदेश में। वहां भाजपा बनाम सभी शेष दलों के बीच मुकाबला था, लेकिन जीत का अंतर इतना नहीं था, जिसका यह अर्थ निकले कि चुनाव एकतरफा हो गया है। बल्कि इसका यह अर्थ है कि सभी विपक्षी दल एक तरफ और अकेली भाजपा दूसरी ओर, तब भी मुकाबला बराबर का ही बनता है। उत्तर प्रदेश में यदि भाजपा अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करती है, तो समस्त विपक्ष पर भी भारी पड़ना ज्यादा मुश्किल नहीं है। महाराष्ट्र में इस बार शिवसेना ने भाजपा से भिड़ने का मन बनाया था, लेकिन उसे पराजय मिली।

पहले यह माना जाता था कि भाजपा और शिव सेना मिल कर ही कांग्रेस से मुकाबला कर सकती हैं, लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि यदि शिव सेना विरोधी खेमे में भी जाती है तब भी महाराष्ट्र में भाजपा की स्थिति मजबूत है। भंडारा, गोंदिया में लगभग सारा विपक्ष एक साथ था, तब भी जीत का अंतर बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता। उत्तराखंड में भाजपा ने विधानसभा की सीट जीत ली है। पश्चिमी बंगाल में विधानसभा की सीट तृणमूल कांग्रेस ने जीत ली है। इसमें पहले भी कोई संशय नहीं था, लेकिन इस चुनाव में पहली बार सीपीएम और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा है, परंतु इससे भी उनमें प्राण संचार नहीं हो सका। दूसरे नंबर पर भाजपा रही और सीपीएम-कांग्रेस का प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहा। इसी पृष्ठभूमि में पश्चिमी बंगाल के कुछ दिन पहले ही हुए पंचायत चुनावों को देखना होगा। पश्चिमी बंगाल के पंचायत चुनावों में सीपीएम और सोनिया कांग्रेस के लगभग चिन्ह ही बचे थे। तृणमूल के बाद दूसरे नंबर पर भाजपा आ गई थी। पश्चिमी बंगाल में जिला परिषदों की कुल मिला कर 825 सीटें बनती हैं, इनमें से केवल 621 सीटों के लिए चुनाव हुए।

ममता बनर्जी का कहना था कि शेष 204 सीटों के लिए विरोधी दलों के उम्मीदवारों ने अपने पर्चे दाखिल ही नहीं किए या वे रद्द हो गए। खैर, इन 621 सीटों में से तृणमूल ने 590 सीटों पर विजय प्राप्त की। भाजपा को 22 सीटें मिलीं। कांग्रेस को 6 और सीपीएम को शून्य। उनका एक प्रत्याशी भी जीत नहीं पाया। इसी प्रकार पंचायत समितियों की प्रदेश में कुल सीटें 9217 हैं। चुनाव केवल 6118 के लिए हुए। टीएम ने 4974 जीतीं। भाजपा ने 760 सीटें जीतीं। सीपीएम ने 111 और सोनिया कांग्रेस ने 133 सीटें जीतीं। प्रदेश में ग्राम पंचायतों की कुल सीटें 48650 हैं। चुनाव 31777 के लिए हुआ। ममता बनर्जी की पार्टी का दावा है कि ग्राम पंचायतों की 16873 सीटें उसने निर्विरोध जीत लीं, शेष बची सीटों में से तृणमूल ने 21269 सीटें जीतीं। भाजपा ने 5776, सीपीएम ने 1486 और सोनिया कांग्रेस ने 1065 सीटों पर फतह हासिल की। पश्चिमी बंगाल के इन पंचायत चुनावों को सूत्र रूप में कहना हो, तो पश्चिमी बंगाल में भाजपा नंबर दो पर आ गई है, कांग्रेस नंबर तीन पर और सीता राम येचुरी की सीपीएम नंबर चार पर पहुंच कर विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। पंचायत चुनावों से मिले संकेतों को इस विधानसभा उपचुनाव में भी देखा जा सकता है। तब कुल मिलाकर इन समग्र चुनावों के क्या संकेत हैं। पहला संकेत तो यही है कि सीपीएम अप्रासंगिक हो गई है। हां, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना होना चाहे तो उसे कोई नहीं रोक सकता। दूसरा कांग्रेस भारतीय राजनीति में अपना महत्त्वपूर्ण दर्जा गंवा चुकी है। वह भारतीय राजनीति की निर्णायक भूमिका से परे हो चुकी है। अब भी पिछलग्गू बनने की स्थिति में आ गई है। नेतृत्व देने की उसकी स्थिति समाप्त हो गई है। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्तर प्रदेश की राजनीति को लेकर है।

भाजपा के मुकाबले सांझा मोर्चा बना लेने का प्रयोग विपक्ष ने गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा चुनावों में शुरू किया था। वहां उसे सफलता मिली थी। कैराना और नूरपुर में विपक्षी एकता का घेरा भी व्यापक हुआ है और उसका आधार भी विस्तृत हुआ है। कैराना और नूरपुर चाहे दोनों विपक्ष ने जीत भी ली हैं, लेकिन जीत का अंतर इतना ज्यादा नहीं है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि भाजपा चित्त हो गई है। भाजपा ने सिद्ध कर दिया है कि वह अकेले भी संयुक्त पर भारी पड़ सकती है। वह हारी जरूर है, लेकिन चित्त नहीं हुई। उसे उत्तर प्रदेश में अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना होगा। ध्यान से देखा जाए, तो सारे चुनावों में कांग्रेस कहां है, क्षेत्रीय दलों ने उसकी भूमिका पालकी उठाने वालों तक सीमित कर दी है। सीपीएम को शायद यह दर्जा भी नहीं मिला है। अलबत्ता वह पीछे-पीछे तुरही बजाते हुए चल सकती है।

ई-मेलःkuldeepagnihotri@gmail.com

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