हिंदुत्व को नीचा दिखा रही पंथनिरपेक्षता

By: Jun 8th, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

हमारे संविधान निर्माताओं को पंथनिरपेक्षता शब्द को संविधान में डालने की जरूरत महसूस नहीं हुई, लेकिन बाद में जब वोट की राजनीति का विकास हुआ तो इसे एक आदर्श के रूप में संविधान में शामिल कर लिया गया। इंदिरा गांधी ने इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने के लिए संशोधन किया था। पंथनिरपेक्षता का उनके लिए अर्थ था अल्पसंख्यकों के प्रति प्रीति दर्शाना। मुस्लिम तथा ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले धार्मिक संगठनों के साथ कोई समस्या नहीं थी, लेकिन हिंदू संगठनों पर त्योरियां चढ़ाई गईं…

उत्तर प्रदेश के कैराना में हाल में जो चुनाव हुआ, वह भविष्य में आने वाले चुनावों में भावी घटनाक्रम को आकार देने के लिए गेम चेंजर के रूप में साबित होगा। मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिए तथा हिंदू निष्क्रमण झेल रहे हैं जैसा कि एक पूर्व सांसद हुकम सिंह ने कर्कश आवाज में कहा। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी पार्टियों का महागठबंधन ट्रायल पर था। महागठबंधन दो उद्देश्यों का दावा कर रहा है। यह चुनाव पूर्व गठबंधन था तथा यह इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भी था कि सभी दलों ने व्यापक रूप से मोदी पर हमला करने के लिए पंथनिरपेक्षता को अपनाने का फैसला किया था। दिन-प्रतिदिन यह स्पष्ट हो रहा था कि मोदी राजनीतिक दलों के लिए अपराजेय थे। ये दल मोदी से व्यक्तिगत रूप से हार चुकी लड़ाई लड़ रहे थे। अपना अस्तित्व बचाने के लिए यह जरूरी भी था कि वे सभी एक छत के नीचे आते। यह डर के मारे बनी प्रतिक्रिया है। यह कोई उपलब्धि नहीं है, बल्कि एक सुरक्षात्मक रणनीति है। इस तरह के महागठबंधन के लिए साझा बात क्या है? अपने आदर्श के रूप में जिसकी वे पैरवी कर रहे हैं, वह है पंथनिरपेक्षता में विश्वास। यह मोदी के पास नहीं है, हालांकि वह कई बार यह संकल्प जता चुके हैं कि धर्म, जाति व पंथ  के बजाय सभी नागरिकों की समानता के संवैधानिक लक्ष्य  के प्रति वह कटिबद्ध हैं। हमारे मूल संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द बिल्कुल भी नहीं था, जबकि समानता व अन्य अधिकार कानून के शासन के सिद्धांत के अनुसार संरक्षित हैं।

हमारे संविधान निर्माताओं को पंथनिरपेक्षता शब्द को संविधान में डालने की जरूरत महसूस नहीं हुई, लेकिन बाद में जब वोट की राजनीति का विकास हुआ तो इसे एक आदर्श के रूप में संविधान में शामिल कर लिया गया। इंदिरा गांधी ने इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने के लिए संशोधन किया था। पंथनिरपेक्षता का उनके लिए अर्थ था अल्पसंख्यकों के प्रति प्रीति दर्शाना। मुस्लिम तथा ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले धार्मिक संगठनों के साथ कोई समस्या नहीं थी, लेकिन हिंदू संगठनों को लेकर त्योरियां चढ़ाई गईं। अल्पसंख्यकों के साथ विशिष्ट व्यवहार का हक आरक्षित हो गया तथा इसे ही पंथनिरपेक्षता मान लिया गया। एक जर्मन विद्वान, जो बाद में साधक बन गए, ठीक ही कहते हैं कि गांधी ने यह बात नहीं कही होती कि सभी धर्म समान हैं, जैसे कि वह समान नहीं हैं। हिंदू धर्म को सकारात्मक रूप से सिद्धांत के खिलाफ देखा जाता है। जब गांधी ने कहा कि मैं हिंदू, एक मुसलमान, एक ईसाई, एक पारसी व एक  यहूदी हूं तो मुहम्मद अली जिन्ना ने व्यंग्य किया कि केवल एक हिंदू ही ऐसा कह सकता है। मेरा विश्वास है कि अगर हम हिंदुत्व के वैदिक आधार को समझें तो यह विस्तृत है, इसमें अनेकता निहित है तथा इसकी आत्मा स्वतंत्र है। उस अर्थ में हिंदू संस्कृति का भारत में प्राधान्य है तथा इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि यह देश की शक्ति है।

दूसरी ओर दुख की बात है कि जब हिंदुओं से पूछा जाता है तो वे इससे इनकार करते हैं तथा पंथनिरपेक्षता पर जोर देते हैं। गांधी व नेहरू, जिन्होंने पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत की पैरवी की, ने अपने जीवन में जीने व मरने में हिंदू रीतियों का अनुपालन किया। एक अन्य विद्वान ने हाल में इस बात पर आश्चर्य जताया कि भारत अपने आप को हिंदू राष्ट्र बोलने से क्यों सकुचाता है, जबकि पश्चिमी देश पंथनिरपेक्ष होते हुए भी अपने आपको ईसाई राष्ट्र के रूप में स्वीकार करते हैं। हमने अवचेतन रूप से यह ग्रहण करना शुरू कर दिया कि हम किसी भी धर्म से संबंधित नहीं है, ऐसा केवल अपने को पंथनिरपेक्ष कहने के लिए किया जाता रहा है। इस शून्यवादी कथन के लिए हमारा आवेग क्या था? प्राथमिक रूप से यह मार्क्सवाद से निकली अवधारणा है जिसमें भगवान के ऊपर भौतिकता व धन को तरजीह दी जाती है। भौतिकवादी अवधारणा ने ईश्वरवाद को खत्म कर दिया। धन ने इतना बड़ा महत्त्व पा लिया कि हम चमकीले सोने के समुद्र में डूब गए। सभी चीजों का मूल्यांकन अब पैसे के हिसाब से होने लगा है। सत्ता के राजनीतिक गलियारों में हम अगर किसी घटनाक्रम पर चर्चा करते हैं, तो हम सभी जगह यही चर्चा सुनते हैं कि इस सौदे में कितना धन खर्च हुआ अथवा सरकार निर्माण या चुनाव की बात होती है। मैं जब कबायली गांवों में रहा तो मैंने जमीनी सच्चाई देखी कि वहां दौलत के लिए दौड़ लगी हुई है। यहां तक कि चुनावों के दौरान देसी शराब, नकदी तथा अन्य आकर्षक वस्तुओं का आवागमन स्वतंत्र रूप से होता है। लेकिन ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में चुनावों पर दौलत व धर्म का आधिपत्य देखा जा सकता है। मैं जब इस गांव में आया था तो यहां केवल एक कार थी, जबकि अब हर दूसरे परिवार के पास कार है।

यह भौतिकवादी विकास का प्रतीक है। ग्रामीण जनसंख्या तथा महानगरों में अंतर यह है कि शहरों में दौलत का प्राधान्य है, जबकि छोटे कस्बों व गांवों में दौलत के साथ धर्म की भी हिस्सेदारी है। एक नजदीकी कस्बे के व्यक्ति ने मोदी के बारे में बात करते हुए कहा कि साहब, यहां के लोग तो मोदी की पूजा करते हैं। उनकी इस पूजा का कारण दौलत नहीं है, बल्कि यह है कि उनका देश के लिए जो महत्त्व है, उसके कारण उनकी पूजा होती है। मेरे लिए पंथनिरपेक्षता का मतलब सभी नागरिकों के साथ बिना किसी पक्षपात के समान व्यवहार तथा उन्हें न्याय दिलवाना है। सार रूप में यह वह है जिसकी संविधान गारंटी देता है। मोदी के शासन काल में एक बदलाव यह आया कि एक या दो धर्मों के साथ विशिष्ट व्यवहार के बजाय सभी धर्मों को समान रूप से देखा जा रहा है। भारत में हिंदू संस्कृति की बहाली भी हुई है। क्या यह सांप्रदायिक या पंथनिरपेक्ष है? लेकिन धर्मनिरपेक्षतावादी, जो अल्पसंख्यकों से विशिष्ट व्यवहार चाहते हैं, वे इसे संप्रदायवाद कहते हैं। अगले आम चुनाव में मिथ्यावादी पंथनिरपेक्षता विभिन्न धर्मों के बीच वोटों का विभाजन करेगी, लेकिन अगर भारत को एक रखना है तो हिंदू संस्कृति के साथ पंथनिरपेक्षता की जरूरत है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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