आत्म पुराण

By: Jul 7th, 2018 12:05 am

सप्तम अध्याय के आरंभ में ब्रह्म विद्या के विषय में अधिक जानने की इच्छा से शिष्य ने प्रश्न किया-‘हे भगवन! याज्ञवल्क्य ऋषि ने अपनी स्त्री को ब्रह्म विद्या का जो उपदेश दिया, उसे श्रवण करने की हमारी इच्छा है।’ गुरु ने कहा, हे शिष्य! जिस याज्ञवल्क्य मुनि ने राजा जनक को उपदेश दिया था, वह बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक विषयों की इच्छा से रहित थे। उनके कठिन तप को देखकर इंद्र ने विघ्न करने के लिए अनेक अप्सराओं को वहां भेजा था, पर वह कभी अपने व्रत से च्युत नहीं हुए। उन्होंने घोर तप करके सूर्य भगवान को प्रसन्न किया और उन्हीं से ब्रह्म विद्या का उपदेश ग्रहण किया। फिर सूर्य के आदेश से ही उन्होंने कात्यायिनी और मैत्रेयी नामक दो स्त्रियों से विवाह और इस प्रकार पितृ ऋण और देव ऋण से निवृत्त हुए।

शंका-हे भगवन! पहले आप याज्ञवल्क्य मुनि को विरक्त बना चुके हो और अब उन्हीं को ऋण की प्राप्ति कहते हो। पर जो मनुष्य विरक्त होता है, उसको ऋण कैसे हो सकता है?

समाधान-हे शिष्य! याज्ञवल्क्य मुनि विरक्त हैं, इससे उसे ऋण को प्राप्ति नहीं होनी चाहिए, पर पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में रहने और फिर गृहस्थ आश्रम, स्वीकार करने के कारण ऋण होना संभव है, क्योंकि श्रुति में कहा है-‘जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिऋर्णै र्झणवान जायते’ अर्थात-‘जो ब्राह्मण उपनयन संस्कार युक्त होता है, वह ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण-इन तीनों ऋणों से मुक्त होता है।’ शास्त्र की ऐसी व्यवस्था को जानने वाले याज्ञवल्क्य मुनि यद्यपि अपने मन में ऋणों से मुक्त थे, पर गृहस्थ आश्रम के कर्त्तव्य के विचार से उन्होंने देवता तथा पितरों की प्रसन्नता के लिए गो, सुर्वण, अन्न आदि का विधिवत दान किया और यज्ञ, होम आदि कर्म करके इंद्रादि देवताओं को भी संतुष्ट किया। उन्होंने पिंडदान करके पितों को भी भली प्रकार तृप्त किया। इस प्रकार याज्ञवल्क्य जी का गृहस्थाश्रम अपने ढंग का आदर्श ही था। इसी पत्नी कात्यायिनी गृह कार्यों में अत्यंत कुशल थे। वह अपने घर की भूमि तथा दीवारों, दरवाजों, यज्ञशाला की भूमि को सदैव झाड़तों पोछती और चूना आदि से पोत कर दूध की तरह सफेद रखती थी। फिर उन स्थानों को लाल-पीले, सिंदूरी रंगों से सुशोभित बना देती थी। अन्न पकाने के पात्र, जल के घड़ा, कमंडलों तथा उनके ढक्कनों को भस्म से अच्छी तरह स्वच्छ और चमकदार बना देती थी। वह सवेरे ही उठकर स्नान आदि नित्य कर्मों को करके अपने पति का पूजन करती। फिर पति के माता-पिता, ज्येष्ठ भ्राता, भगनियों का भी पूजन और सम्मान करती। इस प्रकार के सब व्यवहारों में अत्यंत कुशलता का परिचय देकर कात्यायिनी स्त्री समाज में प्रमुख मानी जाने लगी। याज्ञवल्क्य की दूसरी स्त्री मैत्रेयी इससे भिन्न प्रकार की थी। संसार के जन्म-मरण आदि दुःखों को देखकर वह उन्मत्त की तरह विचरती रहती है। जैसे बछड़े के मर जाने पर गो सदा शोकातुर घूमती है, वह उसी प्रकार शोकातुर दिखाई पड़ती थी, पर स्त्री के ऐसे स्वभाव को देखते हुए भी याज्ञवल्क्य कुछ विचार करके उसे ब्रह्म विद्या का उपदेश नहीं देता था और उसे गृह कार्यों में प्रवित्त होने की प्रेरणा देता रहता था। इस प्रकार गृहस्थ आश्रम में रहते याज्ञवल्क्य को बहुत समय व्यतीत हो गया, तो एक समय उनको विचार आया कि कैसे आश्चर्य की बात है कि संसार के सब लोगों को प्राण धारण करना ही सबसे बड़ा काम जान पड़ता है, पर यह वास्तव में बड़ा भारी बंधन ही है। यह जीवात्मा इस शरीर रूप बंधन को इसी कारण स्वीकार करता है कि वह प्राणों को धारण करता है। पर यह शरीर तो सब प्रकार मलों से भरा और अत्यंत दुर्गंध वाला है। यह तरह-तरह के रोगों का भंडार है। इस प्रकार अहं मन अभिमान रूप आसक्ति में बंधा यह शरीर ही सब दुःखों का कारण है।


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