बंधन और मुक्ति

By: Jul 7th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

अब हमें अपने आप को तरंग या भंवर मान कर उलझना नहीं चाहिए, बल्कि अपने आप को सागर ही मानना ठीक है, बस इतनी सी मान्यता का भेद है ‘बंधन’ और ‘मुक्ति’ में, जिसने अपने आप को सागर समझा वह मुक्त हो गया। उदाहरण के तौर पर आकाश बाहर भी और भीतर भी  स्थित है…

कई बार हमें पानी में भंवर दिखाई देती है। भंवर क्या है? यह पानी में पैदा हुई उल्टी लहर है। फिर जब यह भंवर शांत हो जाती है, तब भंवर कहां खो जाती है? वास्तविकता यह है कि भंवर थी ही नहीं। यह तो केवल पानी में एक तरंग थी, पानी में एक रूप उठा था। ऐसे ही हम सब परमात्मा में उठी एक तरंग है और जब तरंग खो जाती है, फिर कुछ भी पीछे छूटता नहीं, कुछ निशानी भी नहीं छूटती। जैसे पानी में कुछ लिखें तो लिखते ही मिट जाता है, ऐसे ही जीवन में सारी आकार की स्थितियां तरंग मात्र हैं, मानो जो हमारा आकार है वही भ्रांति है। अब जिस तरह दर्पण अपने में प्रतिबिंब रूप के भीतर और बाहर स्थित है, चुनांचे जब हम दर्पण के सामने खड़े होते हैं, तो केवल प्रतिबिंब बनता है, यानी कुछ भी नहीं बनता, क्योंकि अगर हम दर्पण से परे हट जाएं, तो यह प्रतिबिंब भी हट जाता है और दर्पण जैसा था, वैसा ही है। मानो दर्पण में न कुछ बना न ही कुछ हटा, दर्पण अपने स्वभाव में रहा। इसीलिए हमें प्रतिबिंब से धोखा नहीं खाना चाहिए। वास्तविकता यह है कि बाहर भीतर प्रतिबिंब में दर्पण ही दर्पण है और कुछ भी नहीं है। ऐसे में परमात्मा इस शरीर के भीतर और बाहर स्थित है, ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं सब तरफ यही एक है यानी इस विराट के सागर में उठी हम छोटी- छोटी तरंगें हैं। अब हमें अपने आप को तरंग या भंवर मान कर उलझना नहीं चाहिए, बल्कि अपने आप को सागर ही मानना ठीक है, बस इतनी सी मान्यता का भेद है ‘बंधन’ और ‘मुक्ति’ में, जिसने अपने आप को सागर समझा वह मुक्त हो गया। उदाहरण के तौर पर आकाश बाहर भी और भीतर भी स्थित है। एक घड़ा रखा है, घड़े के भीतर भी और बाहर भी वही आकाश है। हम अगर घड़े को फोड़ दें, तो आकाश नहीं फूटता और अगर घड़े को बना लें, तो भी आकाश बिगड़ता नहीं, घड़ा तिरछा हो, गोल हो मानो कैसा भी आकार हो, इस आकाश पर कोई आकार नहीं चढ़ता। इसी तरह हम सब भी ‘मिट्टी के भांडे’ हैं, मिट्टी के घड़े हैं और नित्य और निरंतर हम में ब्रह्म (सब भूतों में) स्थित हैं। ख्याल रहे कि इस मिट्टी की दीवार को हम बहुत ज्यादा मूल्य मत दें, यही मिट्टी की दीवार हम को घड़ा बना रही है, इससे हम बहुत जकड़ मत जाएं। अगर भूल से हमने मान लिया कि यही मिट्टी की दीवार हम ही हैं, तो फिर हम बार-बार घड़े बनते रहेंगे, क्योंकि हमारी मान्यता ही हमें वापस खींच लाएगी, कोई और हमें संसार में नहीं लाता, मानो हमारे घड़े होने की धारणा ही हमारा बंधन है। चुनांचे जीवन के शास्त्र को पढ़ने में जरा सी गलती के कारण सब कुछ गलत हो जाता है। अब अगर हम एक बार पूर्ण सद्गुरु द्वारा यह जान लें कि घड़े की दीवार का क्या मूल्य है, दीवार तो आज है, कल गिर जाएगी, आकाश सदा है, असली मूल्य तो घड़े के भीतर शून्य का होता है, अगर पानी भरेंगे तो खाली में ही भरेगा। दीवार में थोड़े ही भरेगा, मानो हम शरीर में हैं, लेकिन हम शरीर नहीं हैं। शरीर हमारा है, हम शरीर के नहीं हैं। शरीर तो हमारा साधन है, हम साध्य हैं। हम शरीर का उपयोग तो जरूर करें, मगर शरीर के भीतर रहते हुए शरीर के पार रहे, जल में कमलवत। वास्तविकता में यही ‘बंधन’ और ‘मुक्ति’ का रहस्य है।

 


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