मुसीबत में ‘पहाड़े दा बसना’ 

By: Jul 31st, 2018 12:05 am

मौत के कदम भी मौसम के भयावह पोशाक की तरह, हिमाचल में कमोबेश हर साल दुखद एहसास दे जाते हैं और हम वार्षिक नुकसान के गणित में यह नहीं समझ पाते कि कहीं विकास के गलत पैमानों की यह सजा तो नहीं। लोक गीतों में जिक्र जब ‘पहाड़ पर बसने’ का होता है, तो कहीं न कहीं श्रम के फिजूल बह जाने का सबब दर्द देता है। बरसात की आमद में लिखा विषाद, विकास की हर ईंट के खिलाफ हो जाता है तो सामने भयभीत भविष्य की चरागाह में भटकने के सिवा और कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। विकास की सुनहरी लकीरों को काटती खबरें हर दिन दो चार होती हैं, तो शिमला से चंबा तक दरकते मंजर के बीच प्रगति के प्राण सकते में आ जाते हैं। कहीं तो यह मूल्यांकन हो कि क्यों बार-बार सड़कें नालों में तबदील हो रही हैं या डंगे वहीं धंसते हैं, जहां बस्तियां आबाद होती हैं। क्या हमने बेवजह पहाड़ छील दिया या जल निकासी के प्राकृतिक रास्ते रोक दिए। क्या मकान बनाने की धुन में हम यह भूल गए कि पर्वतीय ढांचे की कुछ तो शर्तें होती हैं। जुलाई में अब तक 88 मौतों के बीच गुनहगार ढांचा और समाधान के प्रति लापरवाही स्पष्ट है। वाहनों को भारी नुकसान और कातिल मौसम के आगे चिल्लातीं इमारतें पुनः कागज की नाव पर सवार। धार्मिक अलख जगाती यात्रा श्रीखंड के बहाने प्रदेश की व्यवस्था से सवाल पूछ रही है। कठिन सफर में भक्ति का उन्माद अगर अब तक छह लोगों को लील गया, तो हम तमाशाई अंदाज में मंजीरें क्यों बजा रहे। ऐसी यात्राओं की आवश्यकता और सुरक्षा इंतजाम को समझे बिना यात्रा की छड़ी थाम कर हम हर आपदा के लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं मान सकते। कुछ इसी तरह शहरी विकास के बिगड़ते अंदाज में मौसम से बेखबर कब तक रहेंगे। जब वन संरक्षण कानून से छूट कर कोई पेड़ शूल बनकर विकास पर चुभता है, तो शिमला भी हाय तौबा मचाता है, लेकिन पहरे नहीं टूटते। सड़कों के किनारे सूखे ठूंठ की मर्यादा में वन संरक्षण कानून की सजा, किसी दिन किसी निर्दोष को मिलेगी। हमें नहीं मालूम हिमाचली विकास की अनुमति से खेलता वन संरक्षण कानून, आम नागरिकों की हिफाजत का तर्क क्यों नहीं जानता। इसलिए नई सड़क अपनी करवटों को ऐसे चुनती है, जहां कम पेड़ हों, भले ही भौगोलिक कठिनाइयां बढ़ जाएं। सड़कें सीधी व सुरक्षित हो सकती हैं, लेकिन पर्वत की पीड़ा में पेड़ का कद कम नहीं होता। इसलिए बरसात हमेशा की तरह सड़कों पर भारी है और जब हम हिसाब करेंगे तो नुकसान का आंकड़ा रुला देगा। फिर कहीं कोटरूपी सक्रिय विध्वंस का वाहक और सोलंग गांव अपने भविष्य के पाताल में प्रश्न पूछ रहा है। क्या आपदा उसी जंगल से आ रही है, जिसकी छांव में मानवता अपने दौर की प्रगति करना चाहती है या वन केवल जड़ है। जाहिर है जंगल की दरार से जब संकेत विकराल हो जाते हैं, तो इसका असर मानव बस्तियों तक पहुंच रहा है। दूसरे नदियों के प्राकृतिक स्रोत तथा जल बहाव को अवरुद्ध करती प्रगति के मायने वीभत्स हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के मुहानों पर टिका मानव अस्तित्व अब पहाड़ से शिकायत कर रहा है, तो इस त्रासदी को राष्ट्रीय स्तर पर समझने की आवश्यकता है। पर्वतीय विकास को इसकी चुनौतियों के संदर्भ में न तो परखा गया और न ही ऐसा तकनीकी सहयोग मिला जो तुलनात्मक दृष्टि से अधिक सुरक्षित पैमाने तय कर सकता। उदाहरण के लिए अधिक से अधिक सुरंग मार्ग, एलिवेटिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम तथा आधुनिक तकनीक से सड़क निर्माण के लिए आवश्यक धन मिले, तो जोखिम घटेगा। दूसरे हिमाचल में शहरीकरण तथा बढ़ती आवासीय जरूरतों के हिसाब से सुरक्षित विकल्प नहीं तलाशे गए तथा नागरिक सुविधाओं के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ होती रही। प्रदेश में जल प्रबंधन की नई परिभाषा का दायरा प्राकृतिक संतुलन के प्रति जवाबदेह बनाना होगा। ऐसी कितनी ही पेय जलापूर्ति, सिंचाई तथा सीवरेज परियोजनाएं हैं, जो हर साल विनाशक साबित होती हैं। सामुदायिक नजरिए में आए खोट के कारण अब हिमाचली भी अपने परिवेश के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, अतः बरसात के कहर को आसमान के अलावा अपने वजूद के आसपास देखना, समझना तथा अपनी-अपनी भूमिका में आवश्यक योगदान करना होगा।


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