आर्थिक विकास से सहज ही जनहित नहीं

By: Aug 7th, 2018 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

बाजार में श्रमिक के सच्चे वेतन में वृद्धि हासिल करने के लिए विशेष कदमों की जरूरत है। आर्थिक विकास से सहज ही सच्चे वेतन में वृद्धि नहीं होती है। आर्थिक विकास और श्रमिक के वेतन का जो अलगाव है उसका मूल कारण है कि हम अधिकाधिक पूंजी-सघन उत्पादन को अपना रहे हैं। विकास की प्रक्रिया में देश में पूंजी की आपूर्ति बढ़ती है, फलतः ब्याज दर में गिरावट आती है। पूंजी सस्ती होने से उद्यमियों के लिए लाभप्रद हो जाता है कि वे स्वचालित मशीनों से उत्पादन करें। इसलिए आर्थिक विकास के साथ श्रम की मांग नहीं बढ़ती…

माना जाता है कि आर्थिक विकास या जीडीपी में ग्रोथ अथवा सकल घरेलू उत्पाद से सहज ही जनहित हासिल हो जाएगा। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में फैक्टरियां लगेंगी, श्रम की मांग बढ़ेगी और लोगों को रोजगार मिलेंगे। श्रम की मांग बढ़ने से श्रमिक का वेतन भी बढ़ेगा। आज से दस साल पूर्व दैनिक वेतन लगभग सौ, दो सौ रुपए हुआ करता था। वर्तमान में यह बढ़कर 300 रुपए हो गया है, लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि श्रमिक के जीवन स्तर में सुधार आया है। कारण यह है कि श्रमिक के वेतन के साथ महंगाई भी बढ़ती है, जो कि वेतन की बढ़ोतरी को निरस्त कर सकती है। जैसे किसी श्रमिक का वेतन बीते वर्ष तीन सौ रुपए था और इस वर्ष 325 रुपए हो गया। यह देखना होगा कि इसी अवधि में महंगाई में कितनी वृद्धि हुई। मान लीजिए कोई टेबल लैंप बीते वर्ष 300 रुपए का मिलता था और इस वर्ष 350 रुपए का मिलता है। ऐसे में श्रमिक की सच्ची आय में गिरावट आई। पिछले वर्ष उसको तीन सौ रुपए नगद मिलते थे और टेबल लैंप का दाम 300 रुपए था और एक दिन की दिहाड़ी से वह लैंप खरीद सकता था। इस वर्ष उसे नगद मिल रहे हैं 325 रुपए, लेकिन टेबल लैंप का दाम 350 रुपए हो गया और आज वह अपनी एक दिन की दिहाड़ी में उस लैंप को नहीं खरीद पर रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि नगद वेतन के बढ़ने के साथ-साथ सच्चे वेतन में गिरावट आ सकती है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1998 से 2018 तक नगद वेतन लगातार बढ़ा है, लेकिन 1998 से 2010 के बीच श्रमिकों का सच्चा वेतन स्थिर रहा। इसमें जितना नगद वेतन बढ़ा, लगभग उतनी ही महंगाई बढ़ी और उनके जीवन स्तर में कोई विशेष अंतर नहीं आया। वर्ष 2010 से 2014 के बीच श्रमिक के सच्चे वेतन में वृद्धि हुई।

इसके बाद वर्तमान एनडीए सरकार के आने पर वर्ष 2014 से 2016 में सच्चे वेतन में गिरावट आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 2010 के लगभग देश में मनरेगा को लागू किया गया। श्रमिकों को अपने गांवों में निर्धारित वेतन सहज ही मिलने लगा। उनके लिए अब पंजाब अथवा केरल में जाकर रोजगार करना मजबूरी नहीं रह गई। उन्होंने पंजाब जाकर कार्य करने के लिए पूर्व से अधिक वेतन की मांग करना शुरू किया जिसके कारण नगद वेतन में वृद्धि ज्यादा हुई। इसकी तुलना में महंगाई में कम वृद्धि हुई, जिससे सच्चा वेतन बढ़ा और उनके जीवन स्तर में सुधार आया। एनडीए सरकार के आने के बाद नगद वेतन में वृद्धि कम हुई, लेकिन महंगाई में वृद्धि ज्यादा हुई, जिसके कारण श्रमिक के सच्चे वेतन और उसके जीवन स्तर में गिरावट आ रही है। ध्यान देने की बात है कि वर्ष 1998 से आज तक हमारी आर्थिक विकास दर लगभग 7 या 8 प्रतिशत पर बनी रही है। यानी सच्चे वेतन में यूपीए 2 सरकार के समय जो वृद्धि हुई और एनडीए सरकार के समय में जो गिरावट आ रही है, इसका कारण विकास दर में परिवर्तन नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि आर्थिक विकास से श्रमिक के वेतन का कोई जुड़ाव नहीं है। आर्थिक विकास की चाल अलग है और श्रमिक के वेतन की चाल अलग है।

निष्कर्ष निकलता है कि बाजार में श्रमिक के सच्चे वेतन में वृद्धि हासिल करने के लिए विशेष कदमों की जरूरत होती है। आर्थिक विकास से सहज ही सच्चे वेतन में वृद्धि नहीं होती हैं। आर्थिक विकास और श्रमिक के वेतन का जो अलगाव है उसका मूल कारण है कि हम अधिकाधिक पूंजी-सघन उत्पादन को अपना रहे हैं। विकास की प्रक्रिया में देश में पूंजी की आपूर्ति बढ़ती है, फलतः ब्याज की दर में गिरावट आती है। जैसे 80 के दशक में बैंकों द्वारा लगभग 16 प्रतिशत की दर से ब्याज लिया जाता था, जो कि आज 12 प्रतिशत हो गया है। पूंजी सस्ती होने से उद्यमियों के लिए लाभप्रद हो जाता है कि वे स्वचालित मशीनों से उत्पादन करें। इसलिए आर्थिक विकास के साथ श्रम की मांग नहीं बढ़ती है, बल्कि गिरावट भी आती है। आज उच्च क्षमता वाली तीन एक्सल की ट्रकें हैं, जो 30 टन माल की ढुलाई करती हैं। पूर्व में इसी 30 टन की ढुलाई के लिए तीन ट्रक का उपयोग होता था। इनमें तीन ड्राइवर और तीन क्लीनर रोजगार पाते थे। इस प्रकार पूंजी सघन उत्पादन ने श्रम की मांग को गिरा दिया है और यही कारण है कि सच्चे वेतन में गिरावट आ रही है। मूल बात है कि आर्थिक विकास से जनहित हासिल नहीं होता है। आर्थिक विकास के साथ-साथ जब मनरेगा जैसे स्पष्ट कदम उठाए जाते हैं, जिससे श्रमिक के वेतन में वृद्धि हासिल होती है, तब ही आर्थिक विकास का लाभ आम आदमी को पहुंचता है। यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि न्यूनतम वेतन कानून से अथवा जबरन उद्योगों और व्यापारियों को अधिक वेतन देने पर मजबूर करने से अंततः श्रमिक की हानि होती है। अब प्रश्न बनता है कि सरकार किस प्रकार की नीतियां अपना सकती है। इस दिशा में सरकार के लिए कुछ संभावनाएं इस प्रकार हैं। जीएसटी में वर्तमान में किसी भी माल पर टैक्स की दर आरोपित करते समय यह नहीं देखा जाता है कि वह माल पूंजी सघन मशीनों से निर्मित हुआ है या श्रम सघन तरीकों से। जैसे यदि ट्रांसपोर्टर को माल दिल्ली से कलकत्ता पहुंचाना है, तो जीएसटी की दर में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि उसने माल को 10 टन ढुलाई करने वाली तीन ट्रकों का इस्तेमाल किया है अथवा तीस टन वाली एक ट्रक से। एक संभावना यह है कि सरकार जीएसटी की दरों के निर्धारण श्रम सघन और पूंजी सघन उत्पादनों को ध्यान में रखकर करे। दूसरी संभावना है कि सरकारी खरीद में पूंजी सघन माल का उपयोग किया जाए। जैसे सरकारी कर्मियों के यूनिफार्म को हथकरघे से उत्पादित कपड़े से बनवाया जा सकता है। ऐसा करने से बुनाई में श्रमिकों की मांग बढ़ेगी और तदानुसार उनके वेतन भी बढ़ेंगे। वर्तमान एनडीए सरकार के लिए बाजार में श्रम की घटती मांग चिंता का विषय नहीं है।

सरकार का प्रयास है कि आम आदमी को उज्ज्वला या प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी तमाम योजनाओं के माध्यम से मदद उपलब्ध कराई जाए। निश्चित रूप से इससे आम आदमी को कुछ राहत मिलती है, लेकिन जीविका उज्ज्वला के गैस सिलेंडर से नहीं चलती है। जीविका के लिए परिवार के प्राणियों को रोजगार चाहिए और रोजगार से ही परिवार का विकास होता है। अतः सरकार को चाहिए कि श्रम की मांग उत्पन्न करने वाले कदम उठाए, जैसा कि यूपीए सरकार ने मनरेगा को लागू करके किया।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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