महागठबंधन को महा झटका

By: Aug 17th, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

अब तक यह महागठबंधन कोई परिणाम देने में विफल रहा है और इसे तीन बड़े झटके लगे हैं। भविष्य में सफलता का उत्साहजनक इशारा यह नहीं कर रहा है। महागठबंधन को पहला झटका उस समय लगा था जब नीतीश कुमार इससे बाहर आ गए और मोदी कैंप में शामिल हो गए। जिन लोगों को यह आशा थी कि संयुक्त विपक्ष के संचालन में नीतीश एक स्व-स्वीकार्य नेतृत्व चेहरा हो सकते हैं, उनके मोदी कैंप में चले जाने से उनकी आशाएं औंधे मुंह गिर गइ…

हालिया राज्यसभा चुनाव, जो विपक्ष की एकता के नजरिए से राजनीति के इतिहास में एक आमूल परिवर्तन काल है, ने दिल्ली की राजनीति के मूवर्स एंड शेकर्स को झटका दिया है। इस बात में आश्चर्य नहीं है कि लोकतंत्र कारुणिक रूप से संख्या का खेल है तथा इसमें गुणवत्ता या अखंड रेटिंग के लिए कोई जगह नहीं है। यह कोरी संख्या के पक्ष में आंख बंद किए हुए पीछे चलता है। मशहूर उर्दू कवि ने राजनीति की यह कहकर बिलकुल सही व्याख्या की है :

जम्हूरियत इक तरजे हकूमत है कि जिस में

बंदे गिने जाते हैं तोले नहीं जाते।

इसका हिंदी अनुवाद यह है कि लोकतंत्र सरकार का वह रूप है जिसमें संख्या गिनी जाती है, न कि गुणवत्ता या आदमियों का वजन। विपक्ष की संकल्पना थी कि अगर पूरा विपक्ष एक हो जाता है तो वह मोदी को मात दे सकता है तथा संख्या के लोकतांत्रिक खेल में सफल हो सकता है। यह एक आम परिपाटी है कि जब किसी व्यक्ति को अपने अस्तित्व का खतरा सताने लगता है तो वह दूसरों की मदद लेने की कोशिश करता है जो उसे ताकत देने में सक्षम हो तथा फिर एक होकर वे दुश्मन से लड़ते हैं। वर्ष 2014 के चुनाव में संख्या के खेल में संख्या बल अनपेक्षित रूप से शक्ति के केंद्र में एक नए सितारे, नरेंद्र मोदी के पक्ष में हो गया। अब मोदी के डर ने महागठबंधन को जन्म दिया है जिसमें पूरा विपक्ष शरण लेता प्रतीत होता है तथा अपने साझे शत्रु से लड़ने की वह तैयारी कर रहा है। लेकिन उनके विरोधाभास तथा निहित स्वार्थ इस प्रयास में बार-बार बाधक बन रहे हैं तथा एका विखंडित होती जा रही है।

अब तक यह महागठबंधन कोई परिणाम देने में विफल रहा है और इसे तीन बड़े झटके लगे हैं। भविष्य में सफलता का उत्साहजनक इशारा यह नहीं कर रहा है। महागठबंधन को पहला झटका उस समय लगा था जब नीतीश कुमार इससे बाहर आ गए और मोदी कैंप में शामिल हो गए। जिन लोगों को यह आशा थी कि संयुक्त विपक्ष के संचालन में नीतीश एक स्व-स्वीकार्य नेतृत्व चेहरा हो सकते हैं, उनके मोदी कैंप में चले जाने से उनकी आशाएं औंधे मुंह गिर गइर्ं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि अगर वह इस विपक्षी खेमे में बने रहते तो वह महागठबंधन के लिए एक राजनीतिक पूंजी हो सकते थे जो कि इस समूह में सभी दलों के लिए कमोबेश स्वीकार्य थे। उनका चले जाना विपक्षी खेमे में एक संभाव्य नेता की आशा को खत्म कर रहा है, जबकि राहुल गांधी की स्व-स्वीकार्य चेहरे के रूप में पहचान नहीं बन पा रही है। कर्नाटक के उदाहरण ने यह प्रतिस्थापित किया है कि कांग्रेस महागठबंधन के लिए अपनी लीड पोजीशन छोड़ने को तैयार है। सबसे ज्यादा संभावना इस बात की है कि विपक्ष की लड़ाई ‘सभी एक लड़ाई लड़ रहे’ के आधार पर होगी। महागठबंधन को दूसरा बड़ा झटका उस समय लगा जब लोकसभा में विपक्ष का सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव गिर गया।

यह आवश्यक संख्या अर्थात बहुमत नहीं जुटा पाया। ऐसा सोनिया गांधी की उस घोषणा के बावजूद हुआ जिसमें उन्होंने पूरे विश्वास के साथ कहा था कि हमारे पास संख्या है। सभी ने यह देखा कि उनके पास आवश्यक संख्या नहीं है तथा वे अंधेरे में तीर चला रहे हैं। शायद वे मोदी शिविर की शक्ति का जायजा ले रहे थे तथा साथ ही अपने पर तौलना चाहते थे। एनडीए की संख्या 314 थी, परंतु उन्हें 325 वोट मिले, जबकि यूपीए व उसके साथियों की संख्या 144 थी, परंतु उन्हें मात्र 126 वोट पड़े। इस परिणाम ने दर्शा दिया कि मोदी के पास भारी समर्थन है, परंतु इससे भी अधिक यूपीए के अपने साथी बिखर गए। यह एक बड़ी विफलता है। राहुल केवल यह कर पाए कि उन्होंने मोदी को गले लगाया तथा अपनी दिमागी निष्क्रियता प्रमाणित करने के लिए आंख मार पाए। महागठबंधन को तीसरा बड़ा झटका राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में लगा। यह चुनौतीपूर्ण स्थिति थी जबकि इस सदन में सत्तारूढ़ दल के पास बहुमत नहीं था। इसमें उसे साथियों को जोड़ने की योग्यता प्रमाणित करनी थी। अमित शाह की चतुर रणनीति के आगे यूपीए की यह योग्यता विफल हो गई कि वह बिना किसी उपलब्धि के भी अपने साथियों को जोड़े रखने में दक्ष है। वे बीजू जनता दल, आप व शिवसेना के वोट अपने पक्ष में क्यों नहीं कर पाए जबकि इसकी संभावना थी कि वे विपक्षी खेमे के लिए वोट करेंगे। यहां तक कि महबूबा मुफ्ती ने भी उनके पक्ष में मतदान नहीं किया जबकि एनडीए से उनका मोह भंग हो चुका है। यूपीए ने अगर एनसीपी की वंदना चवन को प्रत्याशी बनाया होता तो उसे ज्यादा वोट मिल सकते थे, किंतु लगता है कि यूपीए से धोखा हुआ क्योंकि चतुर शरद पवार ने समर्थन की कमी का उल्लेख करते हुए  खुद को दौड़ से बाहर कर लिया। ममता ने भी मदद नहीं की क्योंकि उन्होंने केजरीवाल को इस महागठबंधन को ज्वाइन करने के लिए कहने से परहेज किया, जबकि वह ममता के प्रभाव क्षेत्र में हैं। क्या वह मोर्चे के नेतृत्व के प्रश्न को तय करने के लिए चालाकी से अपना वजन तौल रही थीं? महागठबंधन कहां था? अंग्रेज विचारक हॉब्स ने राजनीतिक स्वार्थ की बेहतर व्याख्या की है।

वह कहते हैं कि स्वार्थों की राजनीतिक भूख में हर कोई अपनी रोटी की खोज में रहता है जबकि हरेक के हाथ दूसरों के गले पर होते हैं। महागठबंधन यहां भी दयनीय स्थिति से हार गया और वह केवल 101 वोट का ही जुगाड़ कर पाया। कर्नाटक के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर विपक्ष की ओर से दिखाई गई एकता असामान्य थी। पूरा विपक्ष उच्च लक्ष्यों एवं आशाओं के साथ एकत्र हुआ था। वे केवल यह प्रमाणित कर पाए कि खाने-पीने पर खूब खर्च करके जीत का जश्न मनाकर महागठबंधन की सफलता प्रमाणित की जाए। कर्नाटक में मिली सफलता को इस तरह दर्शाया गया कि जैसे उन्होंने आम चुनाव जीत लिया है। मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि कैसे केजरीवाल ने दो घंटे में ही पेय पदार्थों पर 85 हजार रुपए खर्च डाले। अंत में महागठबंधन एक ही झोंके से टूट गया लगता है। अब सीमित सीट एडजस्टमेंट की बात हो सकती है तथा 2019 के चुनाव के बाद महागठबंधन हो सकता है। वैसे भारत में सत्ता के खेल के अगले अध्याय को लिखने के लिए सभी दल तैयारी कर रहे लगते हैं।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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