भाजपा के प्रबोधन काल की शुरुआत

By: Sep 28th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

अब तक उपलब्ध साहित्य व नेताओं द्वारा दिए गए संबोधनों का सार यह रहा है कि पार्टी हिंदू समर्थक संगठन है तथा बहुसंख्यक समुदाय के हितों को संरक्षित करती रहेगी। वास्तव में यह प्रक्रिया अति सूक्ष्म रूप से अटल बिहारी वाजपेयी के काल में ही शुरू हो गई थी। वह ऐसे व्यक्ति थे जो अपने दृष्टिकोण में उदारवादी तथा व्यापक हितधारक थे। इसलिए उन्होंने पार्टी की कार्यशैली में खुलेपन का अंदाज लाया जिससे न्यायसंगत मानव चिंताओं को इसमें स्थान मिला…

विश्व की सबसे बड़ी पार्टियों में से एक, भाजपा में बड़े बदलाव की बयार चल पड़ी है। यह इसके पितृ अथवा मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अपने रणनीतिक उद्देश्यों तथा सिद्धांतों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव है। केशव बलिराम हेडगवार द्वारा 27 सितंबर 1925 को नागपुर में स्थापित आरएसएस मूलतः एक सामाजिक संगठन है जो कि इसलिए विशेष रूप से जाना जाता है क्योंकि इसका उद्देश्य हिंदू हितों को संरक्षित करना रहा है। अन्य धर्मों, विशेषकर इस्लाम की ओर से हो रहे आक्रमणों से हिंदू हितों की रक्षा करना इसका मूल उद्देश्य रहा है। इस संगठन में शुरू से ही मुस्लिम व ईसाई सदस्य रहे हैं, इसके बावजूद यह हिंदू समर्थक संगठन बना रहा। यह नरेंद्र मोदी हैं जो वर्ष 2014 के चुनाव से पहले इसे ज्यादा उदारवादी बनाते हुए इसकी विचारधारा में बदलाव लेकर आए। उन्होंने सबका साथ सबका विकास का नारा दिया जिससे यह प्रतिस्थापित हो गया कि राजनीतिक पार्टी भाजपा धर्म अथवा जाति का भेदभाव किए बिना सभी के लिए काम करेगी। यह एक बड़ी भूमिका वाली पुनः परिभाषा थी जो मोदी द्वारा की गई तथा कुछ लोगों ने इसे दिशा सहीकरण बताया। अब तक उपलब्ध साहित्य व नेताओं द्वारा दिए गए संबोधनों का सार यह रहा है कि पार्टी हिंदू समर्थक संगठन है तथा बहुसंख्यक समुदाय के हितों को संरक्षित करती रहेगी। वास्तव में यह प्रक्रिया अति सूक्ष्म रूप से अटल बिहारी वाजपेयी के काल में ही शुरू हो गई थी। वह ऐसे व्यक्ति थे जो अपने दृष्टिकोण में उदारवादी तथा व्यापक हितधारक थे। इसलिए उन्होंने पार्टी की कार्यशैली में खुलेपन का अंदाज लाया जिससे न्यायसंगत मानव चिंताओं को इसमें स्थान मिला। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व के अपने मूल मार्ग पर चलता रहा। कई बार यह भय भी अभिव्यक्त हुआ कि आरएसएस वाजपेयी शैली का उदारवाद अस्वीकृत भी कर सकता है।

नरेंद्र मोदी ने इस प्रक्रिया को और विस्तार देते हुए एक नई नीति की परिपाटी स्थापित की कि हम संविधान की भावना के अनुकूल हिंदू और मुसलमानों के साथ समान व्यवहार करेंगे ताकि संविधान में परिकल्पित समानता तथा न्याय को प्राप्त किया जा सके। किंतु इसने मुसलमानों से अधिमान्य समूह की भावना को छीन लिया। कांग्रेस के राज में यह भावना मुसलमानों की मत-शक्ति के कारण उत्पन्न हुई थी न कि छद्म पंथनिरपेक्षता के कारण जैसी कि उन्होंने परिकल्पित की। सभी दलों के लिए अल्पसंख्यकों के वोट का महत्त्व बहुत अधिक है क्योंकि वे एक सेगमेंट के रूप में अपने निर्णय सामूहिक रूप से करते हैं। बहुसंख्यक समुदाय का इस लिहाज से कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि वे जातीय आधार पर बंटे हुए हैं। परिणामस्वरूप होने यह लगा कि जो पार्टी इस समुदाय के सबसे अधिक अनुकूल लगती थी, उसी के पक्ष में इस समुदाय का झुकाव हो जाता था। वे अब तक विशिष्ट स्थिति का लाभ उठा रहे थे, किंतु हाल के दिनों में उन्हें चुनौती उभरती दिखाई दी।

विशेषाधिकार के लिए संघर्ष कानून के अंतर्गत अनुरक्षणीय नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य का अकसर उद्वरण दिया जाता है कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। इस वक्तव्य को तुष्टिकरण के रूप में देखा जाता रहा है। सवाल यह है कि जब संविधान पक्षपात व अधिमान्य व्यवहार की अनुमति देता ही नहीं तो क्यों किसी का पहला अधिकार होना चाहिए। मनमोहन सिंह जैसे विशुद्ध अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री पद पर होते हुए उन्हें क्या जरूरत थी कि वह इस तरह का वक्तव्य देते जिसकी पैरवी करना बहुत मुश्किल है। लेकिन धर्म व जाति के आधार पर वोट पाने की परिपाटी जारी रही। मैं समझता हूं कि संवैधानिक रूप से स्वीकृत बिना पक्षपात के समानता व न्याय वाला दृष्टिकोण जिसे मोदी ने प्रतिस्थापित किया है, यही आरएसएस में प्रचलित था जो कि मोहन भागवत द्वारा परिकल्पित किए गए बदलावों से जाहिर है। भाजपा व आरएसएस दोनों एक ही दिशा में चल रहे लगते हैं तथा इस पर विरोधियों द्वारा अकसर सवाल उठाए जाते रहे हैं। यह बात वास्तव में मूल हिंदू दृष्टिकोण में है जो कि इसके धर्मग्रंथ में प्रतिपादित है जिसमें सभी के सुखी व स्वस्थ होने की कामना की जाती है, भले ही वह उस धर्म का अनुयायी न ही हो। स्वामी विवेकानंद इस विचार का प्रतिपादन करने वाले शायद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हमारी धरोहर की अंतर-लहर को महसूस किया। वास्तव में हमारा मूल धर्म वैदिक है जिसमें बाद में पुजारियों के स्वार्थ के कारण कुछ रीति-नीति व अंधविश्वास आ गए जिन्होंने मूल धर्म को हानि पहुंचाने का काम किया। बहुत बाद में भारत पर हमला करने वाले विदेशी आक्रांताओं के हिंसक कार्यों व अत्याचारों से ये मिक्स हो गईं। जैसा कि हम अपने मंदिरों को भूल गए थे और उन पर धूल जम गई थी, मूल धर्म को फिर से प्रतिस्थापित करने का समय आ गया है। भारत इस तरह के जघन्य इतिहास से भी गुजर चुका है कि लोग यही भूल गए थे कि गौतम बुद्ध का जन्म कहां पर हुआ था।

यह बहुत बाद में हुआ कि जापानी तीर्थ यात्री गया में इन मंदिरों के भ्रमण को आए तथा इस महान घटनाक्रम को लुंबिनी से जोड़ते हुए धूल की परतें हटाई गईं। भारत के भविष्य पर जो तीन दिन का सम्मेलन हुआ, उसमें आरएसएस ने अपना नया चेहरा प्रोजेक्ट किया है, यह इसका नया अवतार हो सकता है। लेकिन जब भविष्य की बात हो रही हो तो मसले को इतिहास के झरोखे में छिपाया नहीं जा सकता। भावी संबंधों में भाजपा का क्या प्रतिरूप होगा तथा उसकी भावी संभावनाएं क्या हैं, इस संबंध में एक पूरी कहानी बताने की जरूरत है। आने वाले दिनों में इन विषयों पर भी व्यापक विचार-विमर्श होता रहेगा तथा मैं फिर से विस्तृत समीक्षा पेश करूंगा।

 ई-मेल ः singhnk7@gmail.com


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