संसदीय प्रणाली

By: Sep 9th, 2018 12:01 am

संसद के आंतरिक मामले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं

संसद तथा कार्यपालिका

संसद के किसी भी सदन की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को, प्रक्रिया की किसी कथित अनियमितता के आधार पर, किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्रत्येक सदन का पीठासीन अधिकारी या कोई अन्य अधिकारी, संसद  सदस्य जिसमें प्रक्रिया को विनियमित करने या संसद के किसी भी सदन के निर्णय को लागू करने या कार्यरूप देने की शक्तियां निहित की गई हों, उन शक्तियों का प्रयोग करने में न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।

 सदन के आतंरिक मामलों को प्रभावित करने वाले किसी मामले के संबंध में ‘रिट’, निदेश या आदेश जारी करना न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से परे हैं। ऐसे संविधान के ढांचे में जो व्यक्तिगत मूल अधिकारों की गारंटी देता है।

संघ तथा राज्यों की अलग-अलग शक्तियां  का उपबंध करता है और संसद सहित राज्य के प्रत्येक निकाय की शक्तियाोंं एवं कृत्यों की स्पष्ट परिभाषा करता है। उनका परिसीमन  करता है, न्यायपालिका न्यायिक पुनर्विलोकन की अपनी शक्तियों के अधीन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका  अदा करती है।

 संसद द्वारा बनाए गए किसी भी विधान को न्यायालय संविधान की शक्तियों से बाहर और इस कारण शून्य एवं अप्रर्वतनीय घोषित कर सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद 13 में यह स्पष्ट उपबंध है कि संसद, राज्य विधानमंडल या कोई  भी अन्य प्राधिकरण ऐसा  विधान न बनाए जो संविधान के भाग 3 में वर्णित किसी भी मूल अधिकार से असंगत हो, या उसे न्यून करता हो।

अनुच्छेद 32 और 226 द्वारा इन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए क्रमशः उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को शक्ति प्रदान की गई है। इस प्रकार भारत में किसी विधान की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि विधान का विषय :

(क) उस विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, जिसने इसे पास किया है।

(ख) संविधान के उपबंधों के प्रतिकूल है या

(ग) मूल अधिकारों  में से किसी का हनन करता है।

  • क्रमशः

 


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